"पथ नहीं भूली"
(आलेख)
गर पतझड़ ही ना होती तो भला कहाँ फूलों को मुरझाने का शौक़ होता है...
मैं पथ नहीं भूली.....ज़िंदगी की भूलभूलैया ने गुम कर दिया है मुझे अपनों के पेट की ज्वालाएँ उठती सीधा मेरे उर को जलाती थी। दुन्यवी मायाजाल से बचती बचाती उलझती रही आख़िर बना दी गई कोठे की शान।
गंधडूबी काया अंदर ही अंदर अश्कों से नहाती पाक साफ़ पड़ी है। उपरी त्वचा के मोहाँध के हाथों रात की रंगीनियों के आगाज़ से लेकर सुबह तक ना जानें कितने हाथों से गुज़रती हूँ चाय की किटली पर पड़े इकलौते अखब़ार कि तरह। मेरे तन के स्नेह में भिगते कोई पढ़ता है मुझे तो कोई कुचलता है। किसीको सज़ल मेरी पुतलियों की नमी क्यूँ नहीं भिगोती। मेरा मन आकाश निर्लेप सा अड़ग खड़ा है। स्पंदन नहीं गलते किसी छुअन से मेरे, अग्नि की आँच में जैसे मोम पिघलता है।
ये रंजो गम का सफ़र आसान नहीं रूह ही नहीं रूह की परछाई तक छलनी है मेरी। बस कोई मेरे एहसास को हवा दो थोड़ी तो महसूस हो मुझे की मैं भी ज़िंदा हूँ अभी। ज़हर भी पीकर देखा ज़माने के हाथों आँख ही नहीं लगती। मेरी त्वचा पर असंख्य किड़े रेंगते अपनी छाप छोड़ गए है कोई ऐसी फूँक मारो की सारे दाग उड़ जाएं। आँचल उतरने वाले ही मिले किसीने पाक दुपट्टे के दामन से मेरे छरहरे बदन को ढ़कने की कोशिश तक नहीं कि। "कहाँ मैं किसीकी अपनी थी"
मेरे रक्तकणों में बह रही तरह तरह की हवस की बदबू खेल रही है। मणिकर्णिका से जब आख़री आँच उठेगी मेरी चिता से तब नासिका मत सिकुड़ लेना सब। काया भले ही मिट रही होगी कोठे वाली की पर मेरी छलनी रूह कान्हा की मुरली से प्रीत गुण्ठन करते अनंत के संग मिलन साध रही होगी।
ना कोई महफ़िल का शोर होगा ना उन्मादीत साँसों की गंध। झंझा से विमुख होते अन्तहीन निरवता के लय कणों में सोना है मुझे मधु-प्रभात के इंतज़ार में हंमेशा के लिए। ज़िंदगी की आपाधापी को झेलते कोठे वाली का तन भले अपवित्र हो चुका आत्मा की शिखा पाक सी दिपदिपाती है।
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