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Sunday, 11 October 2020

नजर अस्थि पंजर पे है (कविता) - आशीष तिवारी 'निर्मल'

 

नजर अस्थि पंजर पे है
(कविता)
मेरे साथ मेरी जिम्मेदारियां सफर पे है,
ध्यान मेरा माता - पिता और घर पे है।

हो लाख किताबी ज्ञान मगर याद रहे ये
दुनिया तो चलती सिर्फ ढाई अक्षर पे है।

बेशक अनदेखा कर देते अच्छी बातों को,
आनंद लेते लोग यहाँ हर बुरी खबर पे है।

सदियों तक याद रखे जाते वो लोग यहाँ,
कर्तव्य निभाते जो अपनी हर उमर पे है।

मजलूमों का खून पिएँ खटमल की तरह,
अब नजर किसानों की अस्थि पंजर पे है।

कुछ तो चाल तेरी बदचलन है सियासत,
यूँ ही नहीं यह हाय तौबा हर अधर पे है।

मैं कलमकार हूँ ना किसी से दोस्ती ना बैर,
आस और विश्वास माँ शारदा के दर पे है।
-०-
आशीष तिवारी 'निर्मल'
रीवा (मध्यप्रदेश)

-०-



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बस प्रेम का नाम मिले तुमको (मुक्तक) - एस के कपूर 'श्रीहंस'

 

बस प्रेम का नाम मिले तुमको
(मुक्तक)

जिस  गली से  भी  गुज़रो बस
 मुस्कराता  सलाम हो  तुमको।

किसी की मदद तुम कर सको
बस  यही  पैगाम  हो  तुमको।।

दुआयों का लेन देन हो तुम्हारा
बस  दिल  की   गहराइयों  से।

प्रभु से करो    ये  गुज़ारिश कि
बस  यही  काम   हो   तुमको।।

-०-
पता:
एस के कपूर 'श्रीहंस'
बरेली (उत्तरप्रदेश) 

-०-

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पापा की प्यारी (कविता) - निधि शर्मा

  

पापा की प्यारी
(कविता)
पापा की परी

 दिल में अरमान
 आखों में सपने
 मुठ्ठी में ले आशाएं
 और अपने नन्हें परों से
 छू लेने आसमां
 आई है
 पापा की परी

 दृढ संकल्प लिया है
 अपने सपनों को
 हकीकत बनाना है
 वो है अपने पापा की परी

 ठाना है
 किसी भी परिस्थिति में
 निराश नहीं होना है
 वो है अपने पापा की परी

 दिल में है अरमान
 कुछ ऐसा कर जाएं
 कि हर बेटी के पापा कहे
 मेरी परी आसमां छुएगी
 वो है अपने पापा की परी
 वो है अपने पापा की परी
-०-
पता:
निधि शर्मा
जयपुर (राजस्थान)


-०-


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Saturday, 10 October 2020

आओ, चलें गाँव की ओर (गीत) - डॉ. त्रिलोकी सिंह


आओ, चलें गाँव की ओर
(गीत)
धूल-धुएं से शहर प्रदूषित,
आओ!चलें गांव की ओर।

    जहां नीम की छांव तले हम,
    प्रतिदिन बैठ थकान मिटाते।
    जहां प्रदूषण-मुक्त वायु से,
    सचमुच हम नवजीवन पाते।

जहां हमें अतिशय प्रिय लगता,
नित नन्हीं चिड़ियों का शोर।
 धूल-धुएं से शहर प्रदूषित,
आओ! चलें गांव की ओर।
     जहां खेत की फसलों को हम,
     देख-देख हर्षित हो जाते।
     चना-मटर की मीठी फलियां,
     तोड़-तोड़ कर घर ले आते।

ईख चूसते, रस भी पीते,
जहां नहीं हम होते बोर।
धूल-धुएं से शहर प्रदूषित,
आओ! चलें गांव की ओर।

     जहां टहलने स्वजनों के संग,
     सुबह-सुबह बगिया हम जाते।
     आम और अमरूद तोड़ते,
     झउआ भर महुआ ले आते।

सचमुच तबियत खुश हो जाती,
करते नृत्य मगन जब मोर।
धूल-धुएं से शहर प्रदूषित,
आओ! चलें गांव की ओर।

    जहां नहर के बहते जल में,
    नित्य तैरने हम जाते थे।
    जहां पास के पोखर में हम,
    गाय-भैंस को नहलाते थे।

जामुन का था पेड़ पास में,
लाते जामुन खूब बटोर।
धूल-धुएं से शहर प्रदूषित,
आओ! चलें गांव की ओर।
-०-
पता:
डॉ. त्रिलोकी सिंह
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

 
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आओ , मिलकर दीप जलाएँ (कविता) - त्रिलोक सिंह ठकुरेला

आओ , मिलकर दीप जलाएँ 
(कविता)
आओ , मिलकर दीप जलाएँ।
अंधकार को दूर भगाएँ ।।

नन्हे नन्हे दीप हमारे
क्या सूरज से कुछ कम होंगे ,
सारी अड़चन मिट जायेंगी
एक साथ जब हम सब होंगे ,
आओ , साहस से भर जाएँ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ।

हमसे कभी नहीं जीतेगी
अंधकार की काली सत्ता ,
यदि हम सभी ठान लें मन में
हम ही जीतेंगे अलबत्ता ,
चलो , जीत के पर्व मनाएँ ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ ।।

कुछ भी कठिन नहीं होता है
यदि प्रयास हो सच्चे अपने ,
जिसने किया , उसी ने पाया ,
सच हो जाते सारे सपने ,
फिर फिर सुन्दर स्वप्न सजाएँ ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ ।।
-0-
त्रिलोक सिंह ठकुरेला ©®
सिरोही (राजस्थान)








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