एहसान-अहसास
(लघुकथा)
"रात को शायद बिल्ली ने बरामदे कुछ गंदगी कर दी है..थोड़ा देखना।" माँ रसोई से पिताजी को सम्बोधित करते हुए बोली तो बकरियों को पानी पिलाते हुए पिताजी बड़ी बहू की ओर देख तमककर बोले, "इसे क्या मौत आ रही है स्साली को,सफाई क्यूं नहीं करती?" कमरे में लेटे पूर्णतया दिव्यांग बेटे ने सुना तो घसीट कर दहलीज तक आया। पत्नी हाथ में पौछा लिए पिल्लर की ओट में खड़ी दिखी।
तभी माँ की आवाज आई, " देखो जी, मुझे पता है आपको गुस्सा जल्दी आता है पर कभी तीनों छोटी बहूओं-बेटों को कुछ अंटशंट मत कह देना, वो तो हारी-बीमारी में हमारे काम आते हैं, रुपये-पैसों से भी ठीक हैं। इन दोनों को भले ही गाली दे दो।"
दिव्यांग बेटे की आँखों से टप-टप आँसू बह निकले, रूंधे गले से इतना ही बोला, "पिताजी यह कर तो रही है।" यह एक पंक्ति सुनते ही माँ-पिताजी का पारा चढ़ गया। बोले, "पिछले अट्ठाईस सालों से तुम्हारी पड़त-पाल, दवा-दारू कर रहें हैं, आज थोड़ा सा कह दिया तो पड़ा-पड़ा बीवी का पक्ष ले रहा है। सारे एहसानों का अहसास है तुझे? बीवी को तु ही माथै चढ़ाता हैं।"
अवाक! दोनों पति-पत्नी चुपचाप माँ और पिताजी का मुँह देखते रह गये।
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गोविन्द सिंह चौहानराजसमन्द (राजस्थान)
यह भी ज़िन्दगी की हकीकत है। अच्छा चित्रण।
ReplyDeleteमार्मिक रचना
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