बासमती का पौना
(कविता)माँग रही है ‘रामपियारी’,
बासमती का पौना.
सोलह से कुछ ही ऊपर की,
साँवर बदन छरहरा,
आँखों की पलकों पर ठहरा,
भृकुटी-भा का पहरा,
उछलकूद करता ललाट पर
भाग्यवाद-मृगछौना.
एक गरीबन की बेटी है,
किसमत की है मारी,
बेच दिया है गहना-गुरिया,
बेबस ‘रासबिहारी’,
साथ निभाएगा जीवन-भर,
हकलाता-सा बौना.
सज दहेज घर से निकली थी,
बेमौका यह शादी,
सुनकर वादविवाद रात में,
गुजर गई थी दादी,
पाँच साल के बाद हुआ अब,
किसी तरह से गौना.
यह है कोई नहीं मुसीबत,
आये कब खुशहाली,
आँख मिचौनी किन्तु खेलती,
दिग्दिगंत की लाली,
चूल्हा गड़ा उदासा बैठा,
माचिस नहीं, न लौना.-०-
पता:
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-
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