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Thursday, 16 July 2020

प्रियंवदा (लघुकथा) - आर्या झा


प्रियंवदा

(लघुकथा)
"लता! वह आ रही है, नारंगी कोर की सफेद साड़ी में साक्षात सरस्वती सी, अपनी अंजलि में प्रसाद का दोना थामे मुझे लेने आ रही है!"

लता सदमें में थी। पचास वर्षों में जिसका जिक्र तक नहीं हुआ, आज अंतिम समय में उस सौत का परिचय पाकर भी वह क्या कर लेती? कलेजे के सौ-सौ टुकड़े हुए जाते थे। मृत्यु शय्या पर लेटे पति की ओर देखते ही आँखें बरसती थीं। खुद को संभालते हुए थरथराती आवाज़ में इतना ही बोली,

"आजतक क्यों छुपाया मुझसे?"

"पहले ही अपराधी हूँ किसी का अब और इल्जाम ना सह सकूँगा।"

गिरीश जी ने धीमी आवाज़ में विरोध जताया, तब लता ने भी चुप रहकर उनका मान रखा। उन्होंने कभी पत्नी के मान-सम्मान में  कोई कमी नहीं की थी।

गिरिशचंद्र दीक्षित एक लंबी अवधि तक सरकार में बड़े पद पर कार्यरत रहे। सेवानिवृत्ति के पूर्व होमटाउन आ गए थे। भरे-पूरे परिवार के बीच रिटायरमेंट का शाॅक नहीं लगेगा यही सोच कर धर्मपत्नी ने वापस अपने ही शहर में तबादले का प्रस्ताव रखा था। उनके भलमनसाहत के मुरीद बड़े से बड़े ऑफिसर थे। इन्हीं कारणों से उनके कार्यकाल में, उनपर कोई आँच नहीं आई थी। आखिरी पोस्टिंग पसंद की मिल गयी।

रिटायरमेंट के बाद चंद वर्ष आराम से कट गए फिर मन लगना बंद हो गया। भाई-बंधु व मित्रों को बुलाकर पार्टीज कर के भी बोरियत होने लगी तो उन्होंने अपने पुराने शौक यानि लिखने का काम शुरु कर दिया। बालकनी से लगी मेज पर डायरी के पन्नों में आपबीती उकेरने लगे। वहाँ से लिखना शुरू किया जब वह आइएएस की कोचिंग के लिए दिल्ली गए थे। वहीं तो प्रियंवदा से मिले थे। वह उनके मकान मालिक की बेटी थी। कोचिंग क्लास जाते वक्त वह भी काॅलेज के लिये निकला करती। काॅलोनी पार कर बस स्टैंड तक पहँचते हुए दोनों में बातें भी होने लगी।

कुछ उम्र का तकाजा था तो कुछ पहले प्यार का जादू कि एक दूसरे में खोते चले गये। इधर सिविल सर्विसेज की परीक्षाएँ नजदीक थीं। कोचिंग क्लासेज खत्म हो चुके थे पर मन था कि बस प्रियंवदा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता। पढाई व परीक्षा के उद्देश्य से वापस घर आ गये और मन लगाकर पढ़ने लगे। प्रिलियम के बाद मेंस में महिनों का अंतराल होता है। सोचा रिजल्ट आते ही प्रियंवदा से मिलने जाएंगे। वह जल्दी ही उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहते थे।

इधर प्रियंवदा बेहद परेशान थी। मोबाइल व फोन का युग नहीं था। पत्र लिखने के लिए पता भी ना था। दोनों के बीच कोई संचार माध्यम या मित्र ना था जिसके द्वारा वह अपने अनायास तय हुए विवाह की सूचना भिजवा पाती। घरवालों से विवाह ना कराने के लिए बहुत हाथ-पैर जोड़े, रोई-गिड़गिड़ाई पर पुरुष प्रधान परिवार में उसकी एक ना सुनी गई। बेहद घबरा गई थी। हिम्मत देने वाले साथी का कहीं अता-पता ना था। प्यार की बात बताते ही उसपर और भी पहरे लगा दिए गए।

फिर एक रोज परिस्थितियों से हारकर उसने कायरतापूर्ण निर्णय ले लिया। भावुक उम्र की सोच कहें या एक कमज़ोर क्षण की दुर्बलता, आव देखा ना ताव, सोने के पहले दादाजी की नींद की गोलियों वाली पूरी शीशी मुँह में उड़ेल, हमेशा के लिए सो गई। रिजल्ट हाथ में लेकर गिरिश उसके घर, उसका हाथ माँगने पहुँचे तब दादी ने सब बताया।

उफ़! अनजाने में यह कैसा अपराध हुआ था उनके हाथों। झटका लगा था। क्या सोचा था और क्या हो गया। कितने दुःख झेले होंगें अकेले। जिस साथी पर गर्व कर सकती थी उसकी ही लापरवाहियों के कारण दुनिया छोड़ कर चली गई। भरे मन व खाली हाथ लेकर उसके दर से लौटे। प्रेयसी ने उनका नाम तक लिया था। यह बात उनकी आत्मा को खाए जा रही थी। वह अपराधी थे, प्रियंवदा के अपराधी। उन्हें जीवन से गहरी अरूचि हो गई थी। देवदास बन भटकते रहे। घरवालों ने विवाह का दबाव बनाया तो परिवार से भी विमुख हो गए। अपनी नौकरी में ही मन को समर्पित कर दिया।

जब पिता के गिरते स्वास्थ्य की खबर मिली तब मिलने आए। खानदान के इकलौते बेटे होने के नाते पिता ने उनकी एक ना सुनी। मौका पाकर अपने परम मित्र की पुत्री लता के संग फेरे लगवा दिये। आखिर उन्हें वारिस की चाह थी। गिरीश जी ने यथासंभव सभी संबंधो का मान रखा। एक अपराध का बोझ पहले ही छाती को छलनी किये जाता था और किसी को भला क्या तकलीफ देते। बस हर रात्रि आँखें मूँद कर उसके प्रति अपने किये की क्षमा माँगते आए थे।

अब साहस कर अपने गुनाह कबूलने के लिए ही लेखन शुरू किया था। प्रियंवदा की याद आते ही दर्द भरा सीना फटने लगा था| बडी बेचैनी सी महसूस हो रही थी| पसीने से तर-बतर हो गये थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था| जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। "कमबख़्त इश्क आज भी सीने में उथल-पुथल मचाकर जानलेवा दर्द जगाता है।" अपनी आवाज़ अपने-आप तक ही सीमित करते हुए देखा तो सभी आस-पास ही नजर आए| नहीं था कोई तो प्रियंवदा नहीं थी|

बाहर से आती भव्य रौशनी पर नजर पड़ी तो दिल आनंदित हो उठा! प्रियंवदा उन्हें लेने स्वयं आ रही है। उससे क्षमा माँग कर फिर से एक नई शुरुआत करेंगे| आखिर इस दिन के लिए उन दोनों ने पूरे पचास साल इंतजार किया है। साँसें उखड़ने लगी| आखिरी चंद घड़ियों में चेहरे की आभा दूनी हो गई| प्रियंवदा ने हाथ बढाया तो आखिरी बार उन्होंने नजर भरकर लता जी की ओर देखा| अनजाने में ही उसके प्रति भी अपराध हुआ था।

लता सब समझ रही थी, जानती थी कि पति दिल पर बोझ लिए अलविदा ले रहे हैं | साथ ही सौभाग्य भी लिये जा रहे हैं| नजरों से आश्वासन दिया। अर्द्धांगिनी है उनकी। क्या उनके दुख,उसके नहीं? तकलीफ तो इस बात की थी कि उन्होंने अपने दर्द साझा ना किये। जीवन-संगिनी बना कर इतना मान दिया पर संगिनी समझ कर दर्द ना बाँट सके। बिछोह व अपमान के मिले-जुले भावों के अतिरेक के कारण वह आँचल में मुँह ढाँप फफक कर रो पड़ीं। नजरों से ओझल होते ही गिरीश जी के प्राण पखेरू उड़ गए।
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आर्या झा
हैदराबाद (तेलंगाना)

-०-

***
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1 comment:

  1. बहुत ही भावुक कहानी है ! पात्र कहीं भी मर्यादा का उलंघन नही करते ! शालीन प्रेम कथा !

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