मन का वृंदावन
(कविता)बादल निकले हुए सैर पर,
खा सागर का पान |
घोर असंगति, प्रश्नावलियों
की वाचकता दूर,
किसी खेत के कोने पर हो
जैसे फैला घूर,
हिल-हिल झूम रहा पुलई सँग,
रोपा पिछड़ा धान |
फूट-फूट रोई गौरैया,
टूट गए हैं पंख,
घोंघा लादे घूम रहा है,
नदी किनारे शंख,
गजरा गया हुआ है करने,
खुशबू-कन्यादान |
उन्नतियों की चौपाटी पर,
तड़प रहा है पेट,
दिन भर खुरपी से बतियाता,
गमछा बाँधा मेट,
सेवा बोल रही है भागा,
लेकर कौआ कान |
तथ्यात्मक रचना के पीछे,
दौड़ रहा नवगीत,
और चुटकुले बैठ मंच पर,
चाट गए नवनीत,
कविता काफी हाउस बैठी ,
भूल गया पथ गान |
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पता:
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
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