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Tuesday, 22 September 2020

मैं और लेखन (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा


मैं और लेखन 
(कविता)
दिल में छिपे दर्द जब,
नासूर बन पलने लगे,
शब्दों की इक पोटली,
खुल कर बिखेरने सी लगी।
वर्ण शामिल हो गए,
मात्राओं का दे वास्ता,
लेखनी रफ़्तार से ,
काग़ज़ पे फिर चलने लगी।

गुमनाम सी थी ज़िंदगी,
शब्दों ने घेरा आ मुझे,
खोल कर दहलीज़ दिल की,
खिड़कियाँ खुलने लगी।
आगे आगे लेखनी ओर,
शब्द पीछे चल दिए,
ग़म तो बे हिसाब थे पर,
ख़ुशियाँ भी आ मिलने लगी।

आँख के आँसू मेरे ,
संतोष का आधार थे,
ग़म की क़तारें छँट गई,
ख़ुशियों का वो भंडार थे।
देख कर के रास्ता,
ये राह जो मैंने चुनी,
तन है काग़ज़,मन है जीवन
ज़िंदगी लेखन बनी।

मार के ठोकर ग़मों को,
रास्ते बनने लगे,
यूँ लगा ज्यों हाथ थामे,
ज़िंदगी चलने लगी,
मन में जो जज़्बात थे ,
निकले तो कवितायें बनी,
मेरे लिए लेखन नहीं,
लेखन के लिए मैं बनी।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-०-



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