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Wednesday, 13 November 2019

याद (कविता) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

याद
(कविता)

मैं आया था
आपके पास
आपसे मिलने
आप पूजा कर रहे थे
मैं करने लगा था
आपका इंतज़ार
मेज पर रखा था अख़बार
पढ़ने लगा 
पढ़ा एक-एक पेज़
उस दिन जाना अख़बार को
खूब होती हैं ख़बरें
महानगर दिल्ली से लेकर
छोटे से गाँव की भी
छपती हैं खबरें
अपराधों से
दुर्घटनाओं से
अनियमितताओं से
भ्रष्टाचार से
तकरार से
भरा पड़ा था अख़बार
आँखों में भर आये थे आँसू
मैं भी करने लगा था याद
भगवान को
जब तक आप आये।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

***
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मुक्ति (कहानी) - डॉ दलजीत कौर

मुक्ति
(कहानी) 
वह जब भी अपने बचपन के बारे में सोचता तो अस्वाद से भर जाता |आज भी उसे अपने बचपन की बहुत बातें याद है |शुरू से ही वह जहीन बालक था |आँख बंद कर बैठने पर चालीस वर्ष बाद भी हर घटना एक फिल्म की तरह उसकी आँखों में तैरने लगती |उसे वे सारे घर याद हैं और उस घर से जुडी सब घटनाएँ ,जहाँ -जहाँ वहबचपन में पिता की सरकारी नौकरी के कारण रहा |माँ- बाप के बारे में सोचने पर जो तस्वीर पहले उभरती वह थी माता-पिता की आपसी कलह |दोनों पढ़े -लिखे व सरकारी कर्मचारी थे परन्तु हर पल जानवरों की तरह लड़ते देखा था उन्हें | यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक उनमें से एक की मौत नहीं हो गई | 

बचपन की महत्त्वपूर्ण घटना जो पूर्ण रूप से आज भी याद है ,वह थी दो रूपये के नोट का गुम हो जाना | पिता ने दो रूपये का नोट अपने मोटर साईकिल की चाबी के साथ खिड़की में रखा और रात को वह नोट वहां नहीं था |शक केवल और केवल उस मासूम पर किया गया |उस उम्र में वह चोरी का अर्थ भी नहीं जानता था |वह कहता रहा कि उसने पैसे नहीं लिए पर रात के ग्यारह बजे शराबी व गुस्सैल बाप ने उसे घर से बाहर निकाल दिया |वह दरवाज़ा पीटता रहा --'पापा ! मैंने पैसे नही लिए |नहीं लिए |पहले दो घंटे उसे बहुत डर लगा पर फिर उस रात उसने डर को जीत लिया |उसके मन से मौत का खौफ़ खत्म हो गया |साथ ही साथ पिता के मोह ,सम्मान ,विश्वास और प्यार का भी अंत हो गया |आज भी उसे वह जगह याद है जहाँ वह सारी रात छिप कर बैठा रहा |वह स्थान उसके लिए जीवन व सम्बन्धों से मोक्ष पाने जैसा था | 

पौ फटते ही माँ ढूढने आई और बाह पकड़ कर घर ले गई |माँ सरकारी क्लर्क थी |दफ्तर जाने से पहले उसे घर का सारा काम निपटाना होता था |पति से कलह के कारण जीवन से मोहभंग और बचपन से आलसी होने के कारण वह बेटे से घर की सफाई करवाती थी |बहला -फुसला कर सात बरस के बच्चे के हाथ में झाड़ू पकड़ा दी |झाड़ू लगाते हुए वही नोट पलंग के नीचे से निकला |पर गुस्सैल बाप मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि नोट उड़ कर पलंग के नीचे गया होगा |उसका शक अभी भी बच्चे पर ही था कि उसने नोट छुपकर रखा था और अब निकालकर लाया है |बच्चे के रोने चिल्लाने पर पिता ने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसका माथा किसी चीज़ से टकरा कर फट गया |उसने माथे पर हाथ फेरा जहाँ आज भी निशान बाकी था |उसे याद आया कि कैसे छोटे -छोटे हाथों की अंजुली खून से भर गई थी और वह बेहोश हो गया था | 

बहुत कोशिश करने पर भी पिता का हैवानियत भरा चेहरा ही जहन में उभरता रहा |अपनी सोच का रुख बदलने के लिए वह माँ के बारे में सोचने लगा |उसे एक भी क्षण ऐसा याद नहीं आया जब माँ ने प्यार से सीने से लगाया हो |बीटा कह कर पुकारा हो |स्नेह से सिर पर हाथ फेरा हो |जीवन से असंतुष्ट माँ ने अपना क्रोध सदा उस पर ही निकला था |उसका मन ज़ोर -ज़ोर से चिल्लाने को हुआ |उसने अपने सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और ज़ोर से दबाया|सब विचारों को झटक दिया | 

मुहं में से जब कोई दांत निकाल दिया जाता है तो जिह्वा उसी स्थान पर जा कर लगती है |उसी तरह जीवन के जिस पहलू में कमी हो ध्यान उसी ओर जाता है |उसे माँ की मृत्यु से पहले के दिन याद आए|जानलेवा बीमारी के दौरान माँ को न छोटे बेटे ने पूछा न पति ने परन्तु वह एक नेक आत्मा है जो दूसरों की मदद कर देता है फिर यह तो माँ थी |सब कुछ भुला कर उसने बीमार माँ की बहुत सेवा की |इतनी सेवा कि माँ आत्मग्लानि से भर उठी | 

एक दिन भावुकता के क्षण में माँ ने कहा --'मैंने कभी तेरा कुछ अच्छा नहीं किया फिर भी तू मेरी इतनी सेवा कर रहा है जिन पर मुझे विश्वास था उन्होंने इस हालत में मुझे छोड़ दिया '|माँ की आँखों में पश्चाताप के आंसुओ के साथ प्रश्नचिन्ह था | 

उसे याद है उसका चेहरा सपाट हो गया था और एक महात्मा की तरह उसने कहा था --'-माँ !तुमने मुझे जन्म दिया |यह संसार दिखाया |तुम्हारा यह क़र्ज़ मै इसी जन्म में उतार देना चाहता हूँ |मैं नही चाहता कि कुछ उधार रह जाए और मुझे दोबारा मनुष्य जन्म लेना पड़े |मुझे इसी जन्म में इस बंधन से मुक्त कर दो | मुझे मुक्ति दे दो |'
-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर
चंडीगढ़


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मानव हूँ (कविता) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'


मानव हूँ
(कविता)

मानव हूँ मानवता की बात करुँगा,
एक बार नहीं मैं तो दिन-रात करुँगा |
बैर मेरा तम भरी काली रातों से -
मैं उज्ज्वल प्रकाश की बात करुँगा ||


भेदभाव, आडंबर का हो विनाश,
फैले जग में सत्य ज्ञान प्रकाश |
भारत बने हमारा विश्वगुरु -
अज्ञान-अंधेरे का हो सर्वनाश ||


ओउम ध्वजा फहराये घर-घर,
ज्ञान-यज्ञ, वेदकथा हो हर-घर |
ये जग ही स्वर्ग बन जायेगा -
मिट जायेगा हर आसुरी ड़र ||
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गुर्जर, फतेहाबाद, आगरा, उ. प्र. 
-०-

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अंकुर (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला


अंकुर
(कविता)
कही ना कही कभी ना कभी
ये अंकुर तो फूटेंगे
दबे हैं सालों से जो शोले
कभी तो आखिर फूटेंगे

निरधन सह के जिये ही जा रहा
देख अमीरो की अय्याशी
कभी तो होगा ,सोचता बैठा
मेरा भी इक बँगला शाही

जिन बच्चो का शोषण होता
घृणा का अंकुर पनप रहा होगा
हमारा भी इक दिन आयेगा
जब इन सबका सफाया होगा

रोती बिलखती मासुम बेटियाँ
किसके दम पर धीरज धारे
मजबूत हो रही एक एक मिलके
बदले का अंकुर एैसे फूटे

देश मे बदहाली अव्यवस्था
भ्रष्टाचार आतंक अपहरण
कभी तो इक पौधा पनपेगा
असर तो दिखायेगा अंकूरण
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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दिन बादल वाले (नवगीत) - अशोक 'आनन'


दिन बादल वाले
(नवगीत)
अशोक 'आनन' 
लौट चले -
दिन बादल वाले ।
मचा तबाही -
जाने आतुर
पावस का -
वे देकर नासूर ।
मोड़ चले मुहं -
बादल काले ।
खूब किया -
बूंदों ने तांडव ।
प्रीत के -
जिनमें डूबे मांडव ।
फोड़ चले सब -
बादल छाले ।
नदियां तक -
पानी में डूबी ।
धरती तक -
पानी से ऊबी ।
तोड़ चले मन -
बादल साले ।
बादल की -
अपनी शर्तै हैं ।
मन में -
पर्तें -दर -पर्तें हैं ।
खूब चलें अब -
बादल चालें ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (म.प्र.)

-०-


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