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Saturday, 30 November 2019

गठरी (लघुकथा) - डा. नीना छिब्बर

गठरी
(लघुकथा)
नीरजा, अपनी मौसी मोहिनी को बस में बैठाकर अपने पति के साथ घर वापस लौट आई।घर पर मौसी की उपस्थिति हर जगह आभासित ह़ो रही थी ।मौसी के साथ बिताए कुछ दिन माँ की कमी को और जीवित कर गए।अनपढ़ बूढी मौसी किस तरह की गूढ बातें ,बातों बातों मे यूँही बोल जाती थी ।उम्र के अनुभवो की एक गठरी वह नीरजा के पास छोड़ गई थी।
उसने विज्ञान की कक्षा मे पढा था कि लाल लिटमस पेपर रसायन मे डालने पर उस का रंग नीला हो जाता है।आज ना जाने क्यों वह सब याद आ रहा था। यकिन हो गया कि यादों की अदृश्य पोटलियाँ खोलने पर भीतर कुछ और ही निकलेगा। 
पहली पोटली जिसपर कंजूस लिखा था ,उसके भीतर आत्म सुरक्षा के लिए धन संभालना लिखा था क्योंकि बुढापे मे पैसा होने पर ही कोई पूछता है। जिस पोटली पर बहू प्रशंसा लिखा था उसके भीतर अपनी ही बेटी को घर पर आने का प्रतिबंध लगने का भय था। जिस पोटली पर धार्मिक लिखा था उसके भीतर अकेलेपन की टीस थी।जिस पोटली पर सादा भोजन लिखा था उसके भीतर बच्चों की मनमानी व शासन लिखा था।जिस पोटली पर गहनों की लालची ,लोभी लिखा था उसके भीतर अपनी ही संचित कमाई से ,अपने मन मुताबिक बच्चों को उपहार एवं पुराने संस्कारो, यादों से जोडने का मन था।
नीरजा ने घबरा कर अदृश्य गठरी दूर फैक दी।। पर ऐसा महसूस हुआ विक्रम वेताल की कहानी की तरह वह फिर पीठ पर विराजमान हो गई है।
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डा. नीना छिब्बर
जोधपुर(राजस्थान)

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