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Friday, 31 January 2020

गूँथ (कविता) - शिखा सिंह

गूँथ
(कविता)
एक स्त्री
जो गूँथ लेती है
सपने
मंगलसूत्र में
जो जिन्दगी बना कर
पहनती है
सारी उम्र इम्तहान
देने के लिये
कितनी परीक्षाओं का
सामना करना हैं
अभी उसे
ये वह खुद भी नही जानती
कितने ही अंधेरे हो
जाना उसी को है
परछाई ढूंढने के लिए
सोचती है
छाँव के भी पैर होते
आशाँ होती मेरे हाथ पकड़ने में
कठिन और दुर्गम रास्तों में
आग की रेखाओं से
खेलना बहुत बड़ा नही अब
झिरझिरी चादर सी
लगने लगी है
पत्थर भी लुड़कने लगे है अब
हमारी सहनशीलता को देख कर
कितनी गहरी हो गई है
स्त्री की सांसें?
पता ही नही चलता कि
मृत्यू के नजदीक है
या हर रिश्ते बचाने की
दीवार बनी है
कैसा विचित्रता भरा मंजर है
आगे खडा करना है उसे
अब भी पहले रिश्तों की दीर्घायु को
आज भी खामोश है
कहीं न कहीं
उस गुँथी हुई जिन्दगी के लिए!!
-०-
पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-

***
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