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Tuesday, 10 March 2020

आगाज़ होली का (कविता) - रंजना माथुर

आगाज़ होली का
(कविता)
होली का आगाज़ चलो न चलते हैं 
रंगों ने दी आवाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला 
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।। 

कटे हुए पंखों संग जो ये बैठे हैं
बन उसके परवाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला 
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।। 

कभी खफ़ा होकर रूठा जो हो हमसे 
मना उसे लो आज चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला 
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।। 

तपती धूप में छांव अंधेरे में दीपक
लेकर यह अंदाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला 
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।। 

झिड़क रही जिन्हें दुनिया हमें कहने है
उनसे मधुर अल्फाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला 
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।। 
-०-
पता: 
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)


***
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