आगाज़ होली का
(कविता)
होली का आगाज़ चलो न चलते हैं
रंगों ने दी आवाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।।
कटे हुए पंखों संग जो ये बैठे हैं
बन उसके परवाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।।
कभी खफ़ा होकर रूठा जो हो हमसे
मना उसे लो आज चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।।
तपती धूप में छांव अंधेरे में दीपक
लेकर यह अंदाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।।
झिड़क रही जिन्हें दुनिया हमें कहने है
उनसे मधुर अल्फाज़ चलो न चलते हैं
बैर शत्रुता भेदभाव सबको दें भुला
हर चेहरे पर प्रेम का रंग हम मलते हैं।।
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