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Tuesday, 10 March 2020

हमारी होली (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला




हमारी होली 
(कविता)
♥️
करती हूं याद आज भी मै बचपन की वो हंसी ठिठोली
जब घर चौबारा रंग दिनभर खेला करते थे हम होली

सुबह सबेरे तन पे अपने सरसों तेल मलवाते थे
चाचा पापा और बुआ फिर रंगों के हौज भरवाते थे

खाने पीने की सुध बिसरा क्या मस्त मलंग विचरते थे
राह में चलते राहगीरों को सतरंगी रंगों में रंगा करते थे

रंगीन पानी के वो छोटे फुग्गे आज भी पीठ पे पड़ते हैं 
 बच्चों के ये फुगगे खा हम अपने समय में पहुंचते हैं

वो भी क्या होली होती थी बिंदास मगन मन होती थी
पूरे परिवार के लोगों को जो स्नेह प्रेम मे रंग लेती थी

खोवे की गुजिया की सौंधी खुशबू मद मस्त हमें कर जाती थी
ठंडी ठंडाई और भंग की गोली क्या अपने जलवे दिखाती थी

होली आज भी वही है लोगो जो हमने भी खेली थी
पर आज की होली से वो पवित्र शुद्घ और अलबेली थी

बेईमानी और मिलावट के चलते आज कुछ भी स्वस्थ रह नहीं गया
मक्कारो से भरी दुनिया में कोई भी स्वच्छ रह नहीं गया

खैर धूल डालें इन बातो पर क्योंकि ऐसे लोग सुधर नहीं सकते
झूठ फरेब के गहरे दलदल में फंसे ये मानव कभी निकल नहीं सकते

ऐसे लोगों से विनती मेरी त्यौहार को त्यौहार ही रहने दें
इंसानियत को आगे रखकर त्यौहार हर्ष से मनने दें

आप सभी के शुभ आगमन से मन सुमन यूं खिल गया
होली का तो मिजाज ही रंगी, रंगीन चेहरे देख और भी निखर गया

-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

***
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