अबकी बार होली ऐसे
(कविता)
वर्षों से जलती आई है होली
सच भी है ,और सचाई भी है
लकड़ियां जल राख हो जाती है
कब तक लकड़ियां जलाएंगे
जंगल भी उदास हो जाएंगे
संकल्प लें,वृक्ष अबकी नहीं काटेंगे
अब तो प्रतीकात्मक होली मनाएंगे
हमारे मन का कल्मष जलाएं
अबकी बार होली ऐसे मनाएं
वर्षों से खेल रहे हैं
पानी से हम होली
न जाने कितना पानी
व्यर्थ ही कर देते हैं
पानी की एक -एक बूंद से
किसी की जान बच सकती है
इस बार हम होली ऐसे खेलें
एक - एक बूंद पानी बचाएं
पानी की हम कीमत जाने
अबकी बार होली ऐसे मनाएं
भौतिकता की दौड़ में
पीछे छूट रहे हैं रिश्ते
रिश्तों में आई कड़वाहट को
आपसी सद्भाव से बचाएं
स्नेह की गुलाल लगा कर
आपसी बैर भाव को भुलाएं
समाज में बढ़ते तमस को
आपसी प्रेम की ज्योत से हटाएं
अपनों के इत्र की खुशबू लगा
अबकी बार होली ऐसे मनाएं
सत्य का बोलबाला हो
बेईमानों की अब छंटनी करें
जन-जन के प्रयास से हम
स्वच्छ समाज स्वच्छ देश बनाएं
विषमता की अब दीवारें तोड़ें
जाति - धर्म से ऊपर उठ कर
होली के मधुर गीतों के संग
हंसी - खुशी से होली मनाएं
आओ रंगों की रंगोली सजाएं
अबकी बार होली ऐसे मनाएं
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