(कविता)
कविता मुझे लिखती है...
मैं नहीं लिखती कविता।
ढूँढ लेती है....
अंदर मन के छिपे जज़्बात।
ज़बरदस्ती उगलवा लेती है,
मेरे मन की बात।
उत्तर दे कर मेरे मौन प्रश्नों का,
पकड़ा के क़लम हाथ में...
सबब बन जाती मेरे लिखने का।
भाँप कर मन में छिपे भावों को,
हर बात उगलवा लेती है,
काग़ज़ों के पन्नों पे,
हर बात मेरी दिखती है।
मैं नहीं लिखती कविता,
कविता मुझे लिखती है।
जकड़ रखा है उसने मुझे इस क़दर,
ज्यों पहरेदार खड़ा दरवाज़े पर।
काग़ज़ों पर उतर जाती..
जब ख़ामोशी मेरी।
बन के माध्यम ...
बन जाती अभिव्यक्ति मेरी।
राह जो भूल जाऊँ...
तो कविता में राह दिखती है,
मैं नहीं लिखती कविता,
कविता मुझे लिखती है।
मुझमे मुझको खोज कर,
विश्वास दिला देती है,
इक ख़ुशनुमा माहोल का,
अहसास करा देती है।
कह ना पाऊँ जो रूबरू होकर,
तो पन्नों से मिल सिसकती कविता।
कविता मुझे लिखती है,
मैं नहीं लिखती कविता।
-०-
पता
मैं नहीं लिखती कविता।
ढूँढ लेती है....
अंदर मन के छिपे जज़्बात।
ज़बरदस्ती उगलवा लेती है,
मेरे मन की बात।
उत्तर दे कर मेरे मौन प्रश्नों का,
पकड़ा के क़लम हाथ में...
सबब बन जाती मेरे लिखने का।
भाँप कर मन में छिपे भावों को,
हर बात उगलवा लेती है,
काग़ज़ों के पन्नों पे,
हर बात मेरी दिखती है।
मैं नहीं लिखती कविता,
कविता मुझे लिखती है।
जकड़ रखा है उसने मुझे इस क़दर,
ज्यों पहरेदार खड़ा दरवाज़े पर।
काग़ज़ों पर उतर जाती..
जब ख़ामोशी मेरी।
बन के माध्यम ...
बन जाती अभिव्यक्ति मेरी।
राह जो भूल जाऊँ...
तो कविता में राह दिखती है,
मैं नहीं लिखती कविता,
कविता मुझे लिखती है।
मुझमे मुझको खोज कर,
विश्वास दिला देती है,
इक ख़ुशनुमा माहोल का,
अहसास करा देती है।
कह ना पाऊँ जो रूबरू होकर,
तो पन्नों से मिल सिसकती कविता।
कविता मुझे लिखती है,
मैं नहीं लिखती कविता।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
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