(आलेख)
शिक्षक और छात्र का संबंध कुम्हार और माटी जैसा संबंध है। हमेशा से शिष्य के प्रति गुरु का दायित्व प्रमुख रहता आया है। चाहे वह अतीत में रहा हो या वर्तमान में रहे और यह आवश्यक भी है। महर्षि अरविन्द जी ने कहा था कि 'किसी देश का वास्तविक निर्माता उस देश का शिक्षक होता है।' इसी से पता चलता है कि शिक्षक का कितना आदर और महत्त्व है। शिक्षा मात्र ज्ञान को सूचित कराना या बताना या डिग्री भर नहीं होता है, उसका उद्देश्य उतरदायी नागरिक का निर्माण करना होता है। विद्यालय इसीलिए विद्या का मंदिर कहलाता है।यह ज्ञान सोच का केन्द्र, संस्कृति का तीर्थ एवं बौद्धिक स्वतंत्रता का संवाहक कहा और माना जाता है।
स्वामी विवेकानंद जी का कहना था कि भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं होनी चाहिए जहांँ मन की शक्ति में वृद्धि, बुद्धि का विस्तार, मानसिक जागृति का विकास हो, साथ ही शारीरिक सौष्ठव, पवित्र चरित्र का निर्माण हो जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। जिसके पात्र हमारे विद्यार्थी हैं जो भावी देश के नागरिक हैं। वर्तमान समय में आज भारतीय समाज में शिक्षक और छात्र का संबंध अत्यंत जटिल हो चुका है। शिक्षक आज सिर्फ पैसों के लिये पढ़ाता है, कक्षा में विषय व्याख्यान से शुरु होता है और वहीं व्याख्यान पर खत्म होता है। छात्र भी सिर्फ डिग्री के लिये पढ़ता है,ऊंँचा पैसा देता है,ऊँची डिग्री लेता है। छात्र जीवन को पूरा करना, सिर्फ पैसे कमाने के योग्य बनने का ध्येय रह गया है फिर ज्ञान कैसा ? वहां सिर्फ जानकारी प्राप्त करने के लिये ही वे शिक्षक के सम्पर्क में रहते हैं।
गुरु और शिष्य की परंपरा तो प्राय: समाप्त ही हो गई है।
विद्यार्थियों में शालीनता नहीं रही।
उनमें क्षिति जल पावक गगन समीरा का तत्वबोध नहीं है, देशभक्त बलिदानियों की अनुभूति नहीं है, अध्यात्म का पवित्र आभास नहीं है, माता पिता के देवत्त्व भूति की अनुभूति नहीं है, अपनी मातृभूमि से प्रेम नहीं है, परिशुद्ध प्रेम का आदर नहीं है तो फिर हम उन्नत राष्ट्र की कामना और कल्पना प्रेम, एकता और भाईचारे के साथ कैसे कर सकते हैं।
आज पश्चिमी सभ्यता के आचरण की होड़ में युवा उसी पद्धति में ढलते जा रहे हैं, अपने सुदृढ़ संस्कार और संस्कृति की वास्तविकता को तो हम खोते ही जा रहे हैं। आधुनिक होना अच्छी बात है, उच्च तकनीकी उद्योग का उन्वान होना भी अच्छी बात है लेकिन आदर्श विहीन शिक्षा पद्धति यानि कि सिर्फ मैकाले की पद्धति अपना कर नहीं ....।
वर्तमान की शिक्षा पद्धति सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिये है न कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये, इस सबके लिए उतरदायी कौन है ? यह शिक्षकों का ही दायित्व एवं कर्तव्य है की वे मन, कर्म और वचन से विद्यार्थियों को सम्पूर्ण सजग नागरिक बनायें ।
कर्मठ, निष्ठावान, बौद्धिक, मानसिक, चरित्रवान भावी पीढ़ी अगर हमें तैयार करनी है तो शिक्षक पात्र को मूल्यवान उदारवादी, बुद्धिमान ,चरित्रवान के साथ सदभावी होना आवश्यक है। क्योंकि शिक्षक ही राष्ट्र निर्माता होता है।
शिक्षक के गुणों में आत्मीयता, सहृदयता, मानवतावाद, संघर्षशीलता, परोपकारिता वृति, दायित्वों के प्रति
सजगता, प्रवीणता, परिवर्तनवादिता, दक्षता, मार्गदर्शकता, संवेदनशीलता, विषय ज्ञान पर असाधारण प्रभुत्वता ये विशेषाताऐं शामिल होती है। शिक्षक होने का अधिकार उन्हीं को होता है जो सामान्य जन से अधिक बुद्धिमान और विनम्र हो।
हम प्राचीन शिक्षा पद्धति की तरफ देखते हैं तो गुरुकुल शिक्षा पद्धति पर हमें गर्व होता है। जहाँ गुरु और शिष्य परंपरा का आदर्श था। वहाँ शिक्षक शिष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कराते थे। कभी विश्वविख्यात नालन्दा विश्वविद्यालय , तक्षशिला में कर्म-धर्म एवं श्रम की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। आज भी भारत में कुछेक जगह गुरुकुल पद्धति की शिक्षा दी जाती है । विद्यार्थियों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिये हमें आधुनिकता के साथ प्राचीन ज्ञान शक्ति का अवलोकन कर उसे आत्मसात करना होगा ।
वर्तमान में बदल रहे शिक्षकीय मूल्यों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें शिक्षक के साथ विद्यार्थियों की भी सक्रिय सहभागिता हो।अत: नवीन शिक्षण पद्धतियों, सूचना प्रोद्योगिकी एवं सदी के बदल रहे शिक्षाशास्त्र से समायोजन बिठाना होगा। यह कार्य समाज, शिक्षक एवं सरकार के संयुक्त प्रयासों से ही संभव हो सकेगा। शिक्षा मन, शरीर, बुद्धि और आत्मा के विकास का साधन है। विद्यार्थियों को प्रकाश पुंज बनाना है तो माता-पिता एवं शिक्षक का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है।
"तमसो माँ ज्योतिर्गमय" यानि अंधेरे से उजाले की ओर ले जाना, यह भूमिका शिक्षक की होती है। विद्यालय की संस्कृति एक साझा सकारात्मक संस्कृति का विकास पथ है, जहांँ पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों का समूह शामिल होता है।जिसके पथप्रदर्शक शिक्षक होते हैं। जहाँ ज्ञान साध्य है वहीं शिक्षा उस ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। यह कार्य कराने के लिए शिक्षक अहम भूमिका निभाते हैं। विद्यार्थी एक दीप स्तम्भ कैसे बने यह सोचना शिक्षक का काम है......।
आज शिक्षा के बदलते परिवेश में बहुत कुछ नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। आज विद्यालयों में निम्न राजनीतिक दांव-पेंच के कारण आंतक का परिवेश बन गया है। विद्यार्थी पथ से भटके हुए लगते हैं। हम बाबर, ख़िलज़ी, अकबर पढ़ते हैं। हम वेदांत, रामायण, गीता, चाणक्यनीति प्रताप, आजाद, सुभाष कहाँ पढ़ते हैं ?
विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का मार्ग अध्यात्म पवित्रता के पथ से आता है। जो कल के शिक्षक भी बनेंगे तो वो पथ आज के शिक्षक को ही प्रशस्त करना है। आज शिक्षा के बदलते स्वरुप और शिक्षा प्रणाली पर गंभीर विचार विमर्श करने की जरूरत है। शिक्षक का एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व होता है । शिक्षा देने वाला, ज्ञान देने वाला आदरणीय गुरु, जिनका एक सम्मानित स्थान एवं प्रतिष्ठित पद होता है।
कहते हैं न...
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांव...।
बलिहारी गुरु आपने, जो गोविंद दियो बताय।।"
ईश्वर से भी ऊँचा स्थान गुरु का है तो गुरु को शिक्षक को कैसा होना चाहिए? वर्तमान में भी आज शिक्षक एवं विद्यार्थियों को समझना और सोचना होगा कि भारत विश्वगुरु था तो क्यों था और अब क्यों नहीं है ?
स्वामी विवेकानंद जी का कहना था कि भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं होनी चाहिए जहांँ मन की शक्ति में वृद्धि, बुद्धि का विस्तार, मानसिक जागृति का विकास हो, साथ ही शारीरिक सौष्ठव, पवित्र चरित्र का निर्माण हो जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। जिसके पात्र हमारे विद्यार्थी हैं जो भावी देश के नागरिक हैं। वर्तमान समय में आज भारतीय समाज में शिक्षक और छात्र का संबंध अत्यंत जटिल हो चुका है। शिक्षक आज सिर्फ पैसों के लिये पढ़ाता है, कक्षा में विषय व्याख्यान से शुरु होता है और वहीं व्याख्यान पर खत्म होता है। छात्र भी सिर्फ डिग्री के लिये पढ़ता है,ऊंँचा पैसा देता है,ऊँची डिग्री लेता है। छात्र जीवन को पूरा करना, सिर्फ पैसे कमाने के योग्य बनने का ध्येय रह गया है फिर ज्ञान कैसा ? वहां सिर्फ जानकारी प्राप्त करने के लिये ही वे शिक्षक के सम्पर्क में रहते हैं।
गुरु और शिष्य की परंपरा तो प्राय: समाप्त ही हो गई है।
विद्यार्थियों में शालीनता नहीं रही।
उनमें क्षिति जल पावक गगन समीरा का तत्वबोध नहीं है, देशभक्त बलिदानियों की अनुभूति नहीं है, अध्यात्म का पवित्र आभास नहीं है, माता पिता के देवत्त्व भूति की अनुभूति नहीं है, अपनी मातृभूमि से प्रेम नहीं है, परिशुद्ध प्रेम का आदर नहीं है तो फिर हम उन्नत राष्ट्र की कामना और कल्पना प्रेम, एकता और भाईचारे के साथ कैसे कर सकते हैं।
आज पश्चिमी सभ्यता के आचरण की होड़ में युवा उसी पद्धति में ढलते जा रहे हैं, अपने सुदृढ़ संस्कार और संस्कृति की वास्तविकता को तो हम खोते ही जा रहे हैं। आधुनिक होना अच्छी बात है, उच्च तकनीकी उद्योग का उन्वान होना भी अच्छी बात है लेकिन आदर्श विहीन शिक्षा पद्धति यानि कि सिर्फ मैकाले की पद्धति अपना कर नहीं ....।
वर्तमान की शिक्षा पद्धति सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिये है न कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये, इस सबके लिए उतरदायी कौन है ? यह शिक्षकों का ही दायित्व एवं कर्तव्य है की वे मन, कर्म और वचन से विद्यार्थियों को सम्पूर्ण सजग नागरिक बनायें ।
कर्मठ, निष्ठावान, बौद्धिक, मानसिक, चरित्रवान भावी पीढ़ी अगर हमें तैयार करनी है तो शिक्षक पात्र को मूल्यवान उदारवादी, बुद्धिमान ,चरित्रवान के साथ सदभावी होना आवश्यक है। क्योंकि शिक्षक ही राष्ट्र निर्माता होता है।
शिक्षक के गुणों में आत्मीयता, सहृदयता, मानवतावाद, संघर्षशीलता, परोपकारिता वृति, दायित्वों के प्रति
सजगता, प्रवीणता, परिवर्तनवादिता, दक्षता, मार्गदर्शकता, संवेदनशीलता, विषय ज्ञान पर असाधारण प्रभुत्वता ये विशेषाताऐं शामिल होती है। शिक्षक होने का अधिकार उन्हीं को होता है जो सामान्य जन से अधिक बुद्धिमान और विनम्र हो।
हम प्राचीन शिक्षा पद्धति की तरफ देखते हैं तो गुरुकुल शिक्षा पद्धति पर हमें गर्व होता है। जहाँ गुरु और शिष्य परंपरा का आदर्श था। वहाँ शिक्षक शिष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कराते थे। कभी विश्वविख्यात नालन्दा विश्वविद्यालय , तक्षशिला में कर्म-धर्म एवं श्रम की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। आज भी भारत में कुछेक जगह गुरुकुल पद्धति की शिक्षा दी जाती है । विद्यार्थियों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिये हमें आधुनिकता के साथ प्राचीन ज्ञान शक्ति का अवलोकन कर उसे आत्मसात करना होगा ।
वर्तमान में बदल रहे शिक्षकीय मूल्यों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें शिक्षक के साथ विद्यार्थियों की भी सक्रिय सहभागिता हो।अत: नवीन शिक्षण पद्धतियों, सूचना प्रोद्योगिकी एवं सदी के बदल रहे शिक्षाशास्त्र से समायोजन बिठाना होगा। यह कार्य समाज, शिक्षक एवं सरकार के संयुक्त प्रयासों से ही संभव हो सकेगा। शिक्षा मन, शरीर, बुद्धि और आत्मा के विकास का साधन है। विद्यार्थियों को प्रकाश पुंज बनाना है तो माता-पिता एवं शिक्षक का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है।
"तमसो माँ ज्योतिर्गमय" यानि अंधेरे से उजाले की ओर ले जाना, यह भूमिका शिक्षक की होती है। विद्यालय की संस्कृति एक साझा सकारात्मक संस्कृति का विकास पथ है, जहांँ पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों का समूह शामिल होता है।जिसके पथप्रदर्शक शिक्षक होते हैं। जहाँ ज्ञान साध्य है वहीं शिक्षा उस ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। यह कार्य कराने के लिए शिक्षक अहम भूमिका निभाते हैं। विद्यार्थी एक दीप स्तम्भ कैसे बने यह सोचना शिक्षक का काम है......।
आज शिक्षा के बदलते परिवेश में बहुत कुछ नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। आज विद्यालयों में निम्न राजनीतिक दांव-पेंच के कारण आंतक का परिवेश बन गया है। विद्यार्थी पथ से भटके हुए लगते हैं। हम बाबर, ख़िलज़ी, अकबर पढ़ते हैं। हम वेदांत, रामायण, गीता, चाणक्यनीति प्रताप, आजाद, सुभाष कहाँ पढ़ते हैं ?
विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का मार्ग अध्यात्म पवित्रता के पथ से आता है। जो कल के शिक्षक भी बनेंगे तो वो पथ आज के शिक्षक को ही प्रशस्त करना है। आज शिक्षा के बदलते स्वरुप और शिक्षा प्रणाली पर गंभीर विचार विमर्श करने की जरूरत है। शिक्षक का एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व होता है । शिक्षा देने वाला, ज्ञान देने वाला आदरणीय गुरु, जिनका एक सम्मानित स्थान एवं प्रतिष्ठित पद होता है।
कहते हैं न...
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांव...।
बलिहारी गुरु आपने, जो गोविंद दियो बताय।।"
ईश्वर से भी ऊँचा स्थान गुरु का है तो गुरु को शिक्षक को कैसा होना चाहिए? वर्तमान में भी आज शिक्षक एवं विद्यार्थियों को समझना और सोचना होगा कि भारत विश्वगुरु था तो क्यों था और अब क्यों नहीं है ?
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