दीपोत्सव
(कविता)
दीप से दीप जलाकर दीपोत्सव का
मन में आशा एक ज्योति जगाओ।
गुम हुए जो अंधियारी गलियों के बंधन में
चीर उसे उजाले की नव-किरण फैलाओ।।
भूल हुई आवेश में तुमसे मन था किंचित चंचल
बुझते दीपक- सा आतुर था फिर दुखी अंतर्मन।
हृदय से त्यागो भय, स्वार्थ और लालच के अवगुण
नवप्रभात किरणों से छू लो सब का हृदय तन- मन।।
छंट जाएंगे दुख के मेघ तुम्हारे द्रवित ह्रदय -पटल से
बैर का बंधन तोड़ो अपने स्नेह पल्लवित पुष्पों से।
स्वागत करो नई सुबह की चंचल ,पुलकित रश्मियों का
जगमग दीप हरेंगे शंका द्रवित हृदय धरातल से।।
जलते दीपक मिलकर धरा से हैं अंधकार मिटाते
काली घनी धुंध को अपने तीव्र ज्योति से दूर भगाते।
बीत गई वह सारी बातें व्यथित किया था जिसने
संघर्षों का दीप क्यों नहीं तुम अपने मन में जलाते।।
जन-जन के सहयोग से फिर अपनी धरती मां
झूमेगी अपने उन्नति, प्रगति व विकास से।
दीप से दीप सजाकर पुष्प पंखुड़ी-सा जगमग
प्रकाशमान हो वर्तमान सीखे इस दमकते दीपक से।।
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