बचपन
(कविता)
कभी किसी शहर के चौराहे पर,रंग बिरंगे ग़ुब्बारे हाथ में लिए,
लाल बत्ती पर,
तन के चीथड़े ,
पसीने से लथपथ,
चमचमाती गाड़ियों के पीछे,
चार पैसे कमाने की आस लिए,
दौड़ लगाता बचपन.....।
उसी चौराहे पर,
चमचमाती ए.सी गाड़ी में बैठा,
इतवार की छुट्टी में,
मोज मस्तीके लिए,
सिनमा देखने के बाद,
बड़े बड़े होटलों में,
लज़ीज़ खाने का लुत्फ़ उठाता बचपन...।
उसी होटल के बाहर,
कटोरा हाथ में लिए ,
बचपन में बचपन को गोद में लिए,
पेट की भूख से लड़ता,
रोटी के एक टुकड़े को तरसता
आने जाने वालों के आगे ,
हाथ फैलाता बचपन...।
कहीं किसी शादी के पंडाल में,
चमचमाते सूट में,अहंकार भरे,
अपनी अमीरी का अभिमान लिए,
छप्पन भोज से भरी प्लेट में,
आधी जूठन छोड़ता ,
हाथ फैलाते बचपन को
दुतकारता बचपन...।
पंडाल के बाहर ,
ग़ुब्बारे हाथ में लिए,
पेट भरने की आस में,
कुछ कमाई की उम्मीद लगाता बचपन...।
कहीं पीठ पर बोरा लादे,
गली गली रद्दी बीनता,
पूरे परिवार का भार लिए,
अभावों में जीता,
माटी से अठखेलियाँ करता,
दीपावली जैसे त्योहारों पर,
माटी के दिए बना, बाज़ार सज़ाता
अगले दिन दूसरों के दीयों से ,
बचा तेल इकट्ठा कर,
अपने घर को रोशन कर,
त्योहार मना ,
खिलखिलाता बचपन...।
बचपन तो बचपन है,
फिर क्यों कहीं सुबह
किसी का शाम सा बचपन ?
कोई साहूकार ,
तो कोई ग़ुलाम सा बचपन।
जादू की झप्पी दें तो,
मुस्कुराने लगेगा,
मासूम सा बचपन ,
खिलखिलाने लगेगा।-०-
पता
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