कहा जाता है ' साहित्य, समाज का दर्पण है।' वस्तुतः यह सच है , लेखक के सृजन में व्यक्ति, समाज व देश तीनों होते हैं, इसलिए लेखक पर समाज को दिशा देने का गुरुतर भार होता है।
साहित्य- लेखन में, मानवीय संवेदना, स्मृतियाँ व समाज के विभिन्न वर्गों के नैतिक व सामाजिक मूल्यों का काफी प्रभाव पड़ता है।
मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्य में ' व्यक्ति, समाज व देश, तीनों की समस्याओं का बडी गहराई से अध्ययन किया है। '
इनके अलावा उस समय के साहित्यकार रेणु,शरतचंद्र, टैगोर,निराला , महादेवी वर्मा, पंत , प्रसाद आदि ने ऐसा साहित्य रचा है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति ' श्रीरामचरितमानस ' आज भी घर - घर गाया व पढा जाता है। वह तो ग्यान, भक्ति, वैराग्य व सदाचार की शिक्षा देनेवाला आदर्श ग्रंथ है।
तत्कालीन समाज में, बाल - विवाह, सती प्रथा,छुआछूत, जात - पांत व धर्मान्धता जैसी अनेक बुराइयाँ थीं।
भारतेन्दु युग के निबंधकार बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित ' हिन्दी प्रदीप ' नामक मासिक पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य व्यक्ति में, राष्ट्र- प्रेम व भारतीयता की भावना को जागृत करना रहा है।
इसी प्रकार, राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की रचना ' भारत- भारती ' तो ' स्वतंत्रता - संग्राम का घोषणा पत्र बन गया था ।
इसमें कवि ने भारतीय संस्कृति की गौरव- गाथा का जहां गुणगान किया है वहीं आज के समाज के पतन के कारणों का खुलकर वर्णन किया है। जनता में ' नव- जागरण ' के पुनीत कर्तव्य का कवि ने भली - भांति निर्वाह किया है।
वे लिखते हैं - ' हम कौन थे , क्या हो गये हैं और
क्या होंगे अभी, आओ विचारे , आज मिलकर, यह समस्याएं सभी ।'
भारत ने विश्व को युद्ध नहीं, बुद्ध दिये हैं। भारतीय संस्कृति व हिन्दी साहित्य में देश को जोड़ने वाली बातें हैं ।
भारत में विभिन्न धर्म, भाषा व जाति के लोगों को अपने ढंग से जीने का समान अधिकार है ।यही ' अनेकता में एकता ' ही हमारी संस्कृति की विशेषता है।
अतः आज के समय में, सभी को देश - निर्माण के यज्ञ में खुले दिल से सहभागी बनना होगा। इस कार्य में साहित्यकारों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी, इसमें दो मत नहीं है।
हमारी समृध्द व गौरवशाली संस्कृति से सारा विश्व जुडना चाहता है , इस कार्य में हिन्दी सेतु का कार्य कर रही है।
आइये हम सभी भारतीय अपने कर्तव्य- पथ पर चलते हुए विश्व के सामने मिसाल पेश करें।
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