देवदूत
(लघुकथा)
" सर ! सर !आइए सर ! " - आवाज सुन उसने इधर-उधर देखा। लगा कि कोई उसे बुला रहा है। फिर भीड़ भरी ट्रेन की उस बोगी में बैठने के लिए सीट ढूँँढ़ने लगा। कितनी मुश्किल से तो इस बोगी में चढ़ पाया था वह।
" सर ! ठाकुर सर ! " - फिर वही आवाज सुनाई पड़ी, तो उसने खिड़की से बाहर देखा।बाहर प्लेटफार्म पर खड़े एक युवक ने उसे देखकर कहा - " आइए सर। आगे की बोगी में चलते हैं। इधर बहुत भीड़ है। "
वह युवक अंदर आ गया और उन्हें ट्रेन से उतारने लगा।
" अरे भाई, ट्रेन खुल जाएगी। रहने दो। " - उसने कहा, तो युवक ने उसका सामान उठाते हुए कहा - " नहीं सर।ट्रेन यहाँ आधे घंटे रूकती है। इस बोगी में बहुत भीड़ है। आगे वाली बोगी में चलिए। वहाँ सीट है। "
वह उन्हें लेकर आगे इंजन के पास वाली बोगी में चढ़ गया। वहाँ उसने अपने लिए जो सीट ले रखी थी, उस पर उन्हें बिठाया और उनके चरण स्पर्श कर कहा - " मैंने आपको ट्रेन में चढ़ते हुए देख लिया था, सर। उस बोगी में भीड़ बहुत ज्यादा थी। इसीलिए आपको यहाँ ले आया। "
" तुम विवेक ही हो न ? "- उन्होंने अपने पुराने छात्र को पहचानने की कोशिश की।
" जी.. जी सर। " विवेक खुश हो गया था कि सर ने उसे पहचान लिया था। बगल वाली सीट पर सहयात्री से एडजस्ट कर विवेक भी बैठ गया था।
गुरू-शिष्य बातें करने लगे... स्कूल की पुरानी यादें...घर-परिवार के समाचार....पढ़ाई कैसी चल रही है.....अभी क्या कर रहे हो...आदि-इत्यादि।
ट्रेन ने अपनी स्पीड पकड़ ली थी। रास्ते में आने वाले स्टेशनों को पार करते हुए चली जा रही थी। विवेक अपने जीवन में आये पड़ावों के बारे में सर को बता रहा था। अचानक अँधेरा-सा छाने लगा। हवा भी बहने लगी थी।
" बाहर अजीब - सा मौसम हो रहा है सर। " - विवेक ने तेज भागती ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।
" हाँ। बारिश का मौसम है। कब मौसम बदल जाए, कहना मुश्किल है। " - उन्होंने भी खिड़की से बाहर देखा।
ट्रेन धीरे-धीरे नदी का एक पुल पार कर रही थी।
तभी, धूल-भरी आँधी आई और पूरी बोगी धूल से भर गयी।
" खट्-खट्-खटाक्। " धूल से बचने के लिए यात्री जल्दी - जल्दी बोगी की खिड़कियाँँ बंद करने लगे। धीरे-धीरे पूरी ट्रेन की हर बोगी की खिड़कियाँँ बंद हो गयीं।
बाहर आँधी तेज....और तेज होती जा रही थी।
" साँय-साँय " की आवाज डराने लगी थी।
ट्रेन का इंजन और तीन बोगियाँ पुल को पार कर अगले स्टेशन पर पहुँच चुकी थीं, कि अचानक बड़े जोरों की " धड़-धड़ाम " की आवाज़ हुई और ट्रेन रूक गयी।
नीचे बारिश में उफनाई हुई नदी !
तेज आँधी, और पुल पर खड़ी ट्रेन की बाकी की आठ-दस बोगियाँ ! चारों ओर धूल का गुबार !
अचानक अंदर बैठे लोगों को जोर का झटका लगा और लोग एक - दूसरे पर गिरने लगे। चारों ओर चीख - पुकार मच गयी !
अप्रत्याशित घटित हो गया था !
सामने था भयावह दृश्य...!
इंजन के बाद इस तीसरी बोगी के बाद दो बोगियाँ पुल से लटकी हुई थीं और बाकी की बोगियाँ उफनाई हुई नदी में उलट गयी थीं !
ट्रेन की बोगियाँ पानी की तेज धारा के साथ बही जा रही थीं.....नदी में समाती जा रही थीं !
" बचाओ ! बचाओ ! " की चीखों से आसमान गुंजायमान हो गया था।
मगर इंसान विवश था। कोई भी कुछ नहीं कर पा रहा था....सिवाय इस विनाशलीला को देखते रहने के।
खिड़कियों से यह सब देख, लोगों की साँसें टँग गयीं।
विवेक जोर से चिल्लाया - " सर जी ! "
वे सीट से नीचे गिरे हुए थे। हाथ पकड़कर विवेक ने उन्हें उठाया और तेजी से भीड़ के साथ प्लेटफार्म पर उतरने लगा।
विवेक ने मुँह पर पानी के छींटे मारे, तो उन्होंने आँखें खोलींं.....यह भयावह और हृदयविदारक दृश्य देखा और कलेजे पर हाथ रख लिया।
सोचने लगे...विवेक अगर आज उन्हें पीछे वाली बोगी से जबरदस्ती बुलाकर आगे की इस बोगी में नहीं लाता तो.....!
उन्होंने विवेक का हाथ जोर से पकड़ लिया - " तू तो देवदूत बन गया रे ! " उनके आँसू थम नहीं रहे थे।
नीचे हजारों लोगों की जलसमाधि लेकर नदी अपने रौद्र और विकराल रूप में बही जा रही थी...!
-0-विजयानंद विजय
बक्सर ( बिहार )
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