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Tuesday, 31 December 2019

देवदूत (लघुकथा) - विजयानंद विजय

देवदूत
(लघुकथा)
" सर ! सर !आइए सर ! " - आवाज सुन उसने इधर-उधर देखा। लगा कि कोई उसे बुला रहा है। फिर भीड़ भरी ट्रेन की उस बोगी में बैठने के लिए सीट ढूँँढ़ने लगा। कितनी मुश्किल से तो इस बोगी में चढ़ पाया था वह।
" सर ! ठाकुर सर ! " - फिर वही आवाज सुनाई पड़ी, तो उसने खिड़की से बाहर देखा।बाहर प्लेटफार्म पर खड़े एक युवक ने उसे देखकर कहा - " आइए सर। आगे की बोगी में चलते हैं। इधर बहुत भीड़ है। " 
वह युवक अंदर आ गया और उन्हें ट्रेन से उतारने लगा।
" अरे भाई, ट्रेन खुल जाएगी। रहने दो। " - उसने कहा, तो युवक ने उसका सामान उठाते हुए कहा - " नहीं सर।ट्रेन यहाँ आधे घंटे रूकती है। इस बोगी में बहुत भीड़ है। आगे वाली बोगी में चलिए। वहाँ सीट है। "
वह उन्हें लेकर आगे इंजन के पास वाली बोगी में चढ़ गया। वहाँ उसने अपने लिए जो सीट ले रखी थी, उस पर उन्हें बिठाया और उनके चरण स्पर्श कर कहा - " मैंने आपको ट्रेन में चढ़ते हुए देख लिया था, सर। उस बोगी में भीड़ बहुत ज्यादा थी। इसीलिए आपको यहाँ ले आया। " 
" तुम विवेक ही हो न ? "- उन्होंने अपने पुराने छात्र को पहचानने की कोशिश की।
" जी.. जी सर। " विवेक खुश हो गया था कि सर ने उसे पहचान लिया था। बगल वाली सीट पर सहयात्री से एडजस्ट कर विवेक भी बैठ गया था।
गुरू-शिष्य बातें करने लगे... स्कूल की पुरानी यादें...घर-परिवार के समाचार....पढ़ाई कैसी चल रही है.....अभी क्या कर रहे हो...आदि-इत्यादि।
ट्रेन ने अपनी स्पीड पकड़ ली थी। रास्ते में आने वाले स्टेशनों को पार करते हुए चली जा रही थी। विवेक अपने जीवन में आये पड़ावों के बारे में सर को बता रहा था। अचानक अँधेरा-सा छाने लगा। हवा भी बहने लगी थी।
" बाहर अजीब - सा मौसम हो रहा है सर। " - विवेक ने तेज भागती ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।
" हाँ। बारिश का मौसम है। कब मौसम बदल जाए, कहना मुश्किल है। " - उन्होंने भी खिड़की से बाहर देखा।
ट्रेन धीरे-धीरे नदी का एक पुल पार कर रही थी।
तभी, धूल-भरी आँधी आई और पूरी बोगी धूल से भर गयी।
" खट्-खट्-खटाक्। " धूल से बचने के लिए यात्री जल्दी - जल्दी बोगी की खिड़कियाँँ बंद करने लगे। धीरे-धीरे पूरी ट्रेन की हर बोगी की खिड़कियाँँ बंद हो गयीं।
बाहर आँधी तेज....और तेज होती जा रही थी।
" साँय-साँय " की आवाज डराने लगी थी।
ट्रेन का इंजन और तीन बोगियाँ पुल को पार कर अगले स्टेशन पर पहुँच चुकी थीं, कि अचानक बड़े जोरों की " धड़-धड़ाम " की आवाज़ हुई और ट्रेन रूक गयी।
नीचे बारिश में उफनाई हुई नदी !
तेज आँधी, और पुल पर खड़ी ट्रेन की बाकी की आठ-दस बोगियाँ ! चारों ओर धूल का गुबार !
अचानक अंदर बैठे लोगों को जोर का झटका लगा और लोग एक - दूसरे पर गिरने लगे। चारों ओर चीख - पुकार मच गयी !
अप्रत्याशित घटित हो गया था !
सामने था भयावह दृश्य...!
इंजन के बाद इस तीसरी बोगी के बाद दो बोगियाँ पुल से लटकी हुई थीं और बाकी की बोगियाँ उफनाई हुई नदी में उलट गयी थीं !
ट्रेन की बोगियाँ पानी की तेज धारा के साथ बही जा रही थीं.....नदी में समाती जा रही थीं !
" बचाओ ! बचाओ ! " की चीखों से आसमान गुंजायमान हो गया था। 
मगर इंसान विवश था। कोई भी कुछ नहीं कर पा रहा था....सिवाय इस विनाशलीला को देखते रहने के।
खिड़कियों से यह सब देख, लोगों की साँसें टँग गयीं।
विवेक जोर से चिल्लाया - " सर जी ! "
वे सीट से नीचे गिरे हुए थे। हाथ पकड़कर विवेक ने उन्हें उठाया और तेजी से भीड़ के साथ प्लेटफार्म पर उतरने लगा।
विवेक ने मुँह पर पानी के छींटे मारे, तो उन्होंने आँखें खोलींं.....यह भयावह और हृदयविदारक दृश्य देखा और कलेजे पर हाथ रख लिया। 
सोचने लगे...विवेक अगर आज उन्हें पीछे वाली बोगी से जबरदस्ती बुलाकर आगे की इस बोगी में नहीं लाता तो.....!
उन्होंने विवेक का हाथ जोर से पकड़ लिया - " तू तो देवदूत बन गया रे ! " उनके आँसू थम नहीं रहे थे।
नीचे हजारों लोगों की जलसमाधि लेकर नदी अपने रौद्र और विकराल रूप में बही जा रही थी...!
-0-
विजयानंद विजय
बक्सर ( बिहार )

-०-
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रक्तदान (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

रक्तदान
(लघुकथा)

"सर, प्रमोद जी आए हैं रक्तदान करने।" कंपाउंडर ने कहा।
"कौन प्रमोद जी ?" डॉक्टर साहब ने पूछा।
"सर, ये हर साल यहाँ दो बार रक्तदान करने आते हैं।" कंपाउंडर ने बताया।
"ठीक है। भेजो उन्हें।" डॉक्टर ने कहा।
"नमस्ते सर। मैं प्रमोद हूँ। इसी गाँव में रहता हूँ। स्वस्थ आदमी हूँ। लगातार रक्तदान करता रहता हूँ। आज भी इसीलिए आया हूँ।" प्रमोद ने हाथ जोड़कर कहा।
"नमस्कार प्रमोद जी। कंपाउंडर ने मुझे आपके बारे में बता दिया है। अच्छी बात प्रमोद जी। मैंने सुना है कि आप हर साल दो बार रक्तदान करते हैं। कोई खास वजह ? डॉक्टर साहब ने यूँ ही पूछ लिया।
"डॉक्टर साहब, सामान्यतः लोग अपने पसंदीदा बड़े-बड़े नेताओं, अभिनेताओं के जन्मदिन पर रक्तदान करते हैं, पर मैं अपने पिताजी और माताजी, जिनकी बदौलत मैं इस दुनिया में आया हूँ, उनके जन्मदिन पर साल में दो बार रक्तदान करता हूँ। संयोगवश दोनों के जन्मदिन में छह माह का अंतराल है। इससे मेरे रक्तदान में कोई अड़चन नहीं है।" प्रमोद ने कहा।
"वाह ! क्या नेक विचार हैं। काश ! सभी आपकी तरह सोचते।" प्रमोद जी के हाथ में सूई चुभाते हुए डॉक्टर साहब ने कहा।
-०-
पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-

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नि:शब्द (कविता) - संजय कुमार सुमन


नि:शब्द
(कविता)
नि:शब्द हूं
स्तब्ध हूं,
तेरी मानवता और हैवानियत देखकर।
मैंने ही तुम्हें जन्म दिया है,
नौ माह अपने गर्भ में पालकर,
दर्द सहकर,
अपनी दूध पिलाकर,
तुझे किया है बड़ा।
इसलिए कि,
तुम मुझे नोच सको,
मेरा मर्दन कर सको,
अपनी मर्दानगी दिखा सको,
अपनी दरिंदगी दिखा सको,
सरेआम मुझे नीलाम कर सको,
तेरी मानवता और हैवानियत देखकर,
नि:शब्द हूँ,
स्तब्ध हूँ।
-०-
संजय कुमार सुमन
मधेपुरा (बिहार)
-०-

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नारी के नाम... (कविता) - भानु श्री सोनी

नारी के नाम... 
(कविता)

युगों से सुनी जा रही,
मेरे अस्तित्व की कहानी।
आँचल मेरा ममतामय,
आँखों में मेरे पानी,
मैं जीत की कहानी,
कभी अश्कों की हुँ रवानी
कुल-लाज का हुँ, गागर,
मैं ओस का हुँ, पानी।
मर्यादाओं में बंधी,
मैं कुलदर्शिनी.....तेजस्विनी।।

अपनों के खातिर मैंने,
अपने को भी है गवाया,
पल-पल हुई न्यौछावर,
प्रेम जहाँ भी मैंने पाया।
सृष्टि हुई है, मुझसे,
यश तुम पर मैने लुटाया,
इतनी सरल हुँ फिर भी,
कोई मुझे समझ ना पाया।
स्नेह की हुँ सागर,
मैं स्नेहनंदिनी...... तेजस्विनी।

है कौनसा समय वो,
जो मेरे लिए सही हो,
कोई भावनाओं की कहानी,
कभी मेरे लिए कहीं हो,
उम्मीद का दामन थामें,
चल रही हूँ आज भी मैं,
कतरा भर इश्क़ का तो,
मेरे लिए कभी हो।
गुजर गया जो मंजर,
गम उसका बिलकुल भी नहीं है,
रखती हुँ, ख़्वाहिश इतनी,
मेंरा आज तो सही हो।
लिखती हुँ, ओज की कलम से,
मैं ओजस्विनी.... तेजस्विनी।

माना हर वक़्त दुनिया के,
मंजर बदलते जाएंगे,
किश्तियों की बात ही क्या,
किनारे तक भी डूब जायेंगे,
उस वक्त भी हौसलों की पतवार थामें ,
उभर जाऊंगी मायूसियो के तूफान से....
मैं युग बंदिनी..... तेजस्विनी।


बदलते परिवेश की नव-गुँज बनकर,
उभरी हुँ, नयी आशाओं की बूँद बनकर,
हौसले की उडान भर, दूर कही निकल जाऊंगी,
एक किरन उम्मीद की, कुछ कदमों के निशान, छोड जाऊंगी
यादों की किताब के लिए,
मैं मनस्विनी.... तेजस्विनी
-०-
पता:
भानु श्री सोनी
जयपुर ,राजस्थान
-०-

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सोच (कविता) - शिखा सिंह

सोच
(कविता) 
नैनों के कोरों को
वह रोज गीला करती
कभी खुशी की फुहार से
कभी गमों की हार से
चचंल बन कर चौकाती
घर के हर कोने को"
कहीं कोई रूठा तो नही
मेरी छोटी सी गलती पर
मन में झाँकती सभी के
तितली बन कर
होती छटपटाहट आवाज फूटने की
कोई कह दे कि मैं खुश हूँ
तेरे फैसले पर
जा जीत ले अपनी वो जंग
जो तेरी किस्मत को पलट कर
तेरी तरुणी इच्छाओं की
आवाज और पैर बन जायें
रच ले अपने हौसले की बुलन्दीयाँ
चमक जायें सूरज की
किरणों की भाँति
जो पिघला दे हर दिल को गर्म होकर
हर कोई कहे
तू आजाद है अपने फैसले के लिए
न बन गुलाम बुत बन कर
कि जहाँ सजाया जाये
तू सजी रहे उस कोने की शोभा में
जो बेजान है पर चलती फिरती
खेलती अवाक् बिना आवाज की छड़ी
थक सकती है वह भी
एक कोने में रह कर
जब महसूस नही करता कोई
तो बिगड़ जाती है खुशी
और फिर टूट जातीं है वह
फूलों की पंखुड़ियों की भाँति
-०-
पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-

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Monday, 30 December 2019

फैमिली (लघुकथा) - राजबाला धैर्य

फैमिली
(लघुकथा)
अजीत की काॅल देखते ही आयशा चहकते हुए बोली, "हैलों!इस नाचीज को दिन में पांचवीं बार क्यों याद किया जा रहा है?"अजीत चिर परिचित अंदाज मैं हंसता हुआा बोला,"मेरा है ही कौन ? तुम्हारे सिवा इस दुनिया में।"
हां," सुनो कल एक रिश्तेदारी में फंक्शन है,इधर आॅफिस से मैं पहुंचुंगा उधर से फैमिली पहुंच जायेगी।सोच रहा था रास्तें में तुम से भी मुलाकात करलूं।पार्टी तो वैसे भी रात में है,फैमिली भी रात तक ही पहुंचेगी।क्या मिलोगी
?.....बहुत याद आ रही है अपनी इस प्यारी फैमिली की?आयशा फोन पकड़े पकड़े जाने कब यादों में चली गयी?घर था,रिश्ते थे,खुशियां थीं ...।कुछ उनकी कमी थी,कुछ मेरी,वो रूंठे,मैं रूंठी,वो टूटे,मैं टूटी,न उन्होने मनाया न मैंने।सब बिखर गया..अकेलेपन ने मुझे अजीत से मिला दिया .. .. .गुमनाम मोबाइल फैमिली---.।यादों का तूफान आयशा को फैमिली से मिला लाया।नार्मल होते ही आयशा ने अजीत को मैसेज टाइप किया,कुछ जरूरी काम है नहीं मिल पाऊंगी और गीली आंखों से फोटो एल्बम के पन्ने पलटने लगी।
-०-
पता:
राजबाला धैर्य
बरेली (उत्तरप्रदेश)


-०-



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वसंत (कविता) - डॉ. कृष्णा सिंह 'किरण'


वसंत
(कविता)
सवेरे सवेरे बहती शीतल हवा
पहाडों के पीछे से निकलता
वह चमकता हुआ सूर्य
कितना सुंदर लगता
यह मनमोहक दृश्य
उसकी मध्यम सी रोशनी
फूलों को सहलाती
फूलों की महक
खेतों की हरियाली
जीवन को खुशनुमा बनाती
अचानक से काले बादलों का
नीले आसमान में छा जाना
फिर हल्की सी बारिश बरसा देना
ऐसा लगता है मानो वसंत,
जीवन की सभी उदासीनता को
दूर भगाता और अपनी
उस हल्की सी बारिश से
जीवन को जीवन्त करता
साथ ही साथ मन को
नई उमंगों से तरोताजा करता
वसंत ऋतु।
-०-
पता:
डॉ. कृष्णा सिंह 'किरण'
सिलचर काछाड (असम)

-०-


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*मां भारती का सम्मान* (कविता) - खेम सिंह चौहान 'स्वर्ण'

*मां भारती का सम्मान*
(कविता)
नया जोश है, है नई उमंग,
देश प्रेम का प्रेम के ढंग।
गा रही है कोयल विहंग,
नाचे मोर कबूतर संग।।
धरती अपनी भारती,
ऋषि मुनियों की आरती।
धर्म यहां का मानव जाति,
नारी गीत प्रेम के गाती।।
रहते हैं सब अनेक में एक,
चलते है नित प्रेम को देख।
ना कोई लिप्सा ना कोई खेद,
मां भारती है सबकी एक।।
आओ मिलकर सब हाथ बढ़ाएं,
भारती को भारतगुरू से मिलाएं।
मिलकर हम सब गाएं गान,
मां भारती को दिलाएं अपनी पहचान।।
वंदन है उस कवि वाणी को,
करती है जो पवित्र बानी को।
मां भारती का करे जो यशगान,
आओ सब करे उसका सम्मान।।-०-
पता- 
खेम सिंह चौहान 'स्वर्ण'

जोधपुर (राजस्थान)
-०-

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सूनापन रातों का (कविता) - डॉ० भावना कुँअर (ऑस्ट्रेलिया)

सूनापन रातों का
(कविता)
सूनापन रातों का,और वो कसक पुरानी देता है
टूटे सपने,बिखरे आँसू,कई निशानी देता है

दिल के पन्ने इक-इक करके खुद--खुद खुल जाते हैं
हर पन्ने पर लिखकर फिर वो,नई कहानी देता है

उसके आने से ही दिल में,मौसम कई बदलते हैं
सूखे बंज़र गलियारों में,रंग वो धानी देता है

आँखों में ऐसे ये डोरे,सुर्ख उतर कर आते हैं
जैसे मदिरा पैमाने में,दोस्त पुरानी देता है

उसकी यादों का जब मेला,साथ हमारे चलता है
टूटे-फूटे रस्तों पर भी,एक रवानी देता है

पास वो आके कुछ ही पल में,जाने की जब बात करे
झील सी गहरी आँखों में वो,बहता पानी देता है
-०-
डॉ० भावना कुँअर 
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

-०-

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तुलसी पौधा (बाल कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'


तुलसी पौधा
(बाल कविता)
घर - घर के कष्ट दूर भगाएं ।
आओ तुलसी का पौधा लगाएं।।

मम्मी-दादी इसको शीश झुकाएं ।
श्रद्धाभाव से पोधे को जल चढ़ाएं।

छोटी-मोटी बीमारियां हम भगाएं ।
पौधे का पता औषध बन जाए ।।

तुलसी जी का ये प्यारा सा पौधा ।
प्यारा सा ये पौधा सबके मनभाए।

मम्मी जी का ये प्यारा सा पौधा।
घर - आँगन की ये शान बढाए।।
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

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Sunday, 29 December 2019

आओ प्याज़ प्याज़ खेलें (व्यंग्य) - राज कुमार अरोड़ा 'गाइड'

आओ प्याज़ प्याज़ खेलें
(व्यंग्य)
        क्या कमाल है!प्याज़ कितना बाहुबली हो गया है?तख़्त पर बैठा भी देता है, तख़्त से हटा भी देता है। प्याज़ के ही चक्कर में दिल्ली में एक सरकार ओंधे मुँह गिर चुकी है।जो मोदी जी 2013 में प्याज़ की कीमत 80 रुपये होने पर लॉकर में रखने का उपदेश दे रहे थे,अब उनके राज में अब150 रुपये पार हो जाने पर चुप क्यों हैं?
     एक अजीब सी विडम्बना देखिये,दिल्ली में प्याज़ की माला पहन कर सत्ता धारीआम आदमी पार्टी वाले भी और भाजपा,कांग्रेस वाले भी प्रदर्शन कर रहें हैं।दिल्ली में सत्ता की द्रोपदी के दावेदार कई हैऔर प्रशासन भी कई सरकारों में बंटा है।हर किसी को अपनी राजनीति चमकानी है।जनता की परवाह किसी को नहीं महंगाई, प्रदूषण, अवैध कब्ज़े, आग लगने की दुर्घटना कुछ भी हो,ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ते है। अब प्याज़ महंगा होने पर
जब केंद्र सरकार सस्ते दामों पर उपलब्ध ही नहीं कराये,राज्य सरकारें क्या करें?कई दशकों से हर सरकार में मंत्री रहे पासवान जी भी पल्ला झाड़ कर खड़े हो गये तो पक्ष विपक्ष की सरकारें क्या करें?32000 टन प्याज़ गोदामो में सड़ गया। उसका जिम्मेदार कौन?
प्याज़ के रोज़ बढ़ते दामों ने आढ़तियों व जमाखोरों की चांदी कर दी,बेबस जनता बेचारी करे भी तो क्या? जो गृहिणी अपने अंदर के आंसुओं को प्याज़ काटने के बहाने छुपा लेती थी,अब तो प्याज़ के भाव सुन कर ही उसके आँसू निकल आते हैं। प्याज़ के दोहरे शतक ने तो रोहित,विराट को पीछे छोड़ दिया। प्याज़ के रॉकेट की तरह बढ़ते दामों पर जनता मीम्स, कार्टून के द्वारा मनोरंजन से अपने दुःख ,क्षोभ को भुला रही है, कुछ बानगी देखिये-
"कहो न प्याज़ है!"
"प्याज़ ही तो है"
"सोना नहीं,चांदी नहीं प्याज़ चाहिए"
"वक्त कब बदल जाये,पता नहीं लगता,आज प्याज़ का सेब,आम,अनार जैसों के साथ उठना बैठना है"
"बरसों से साथ निभा रहे आलू ने प्याज़ को प्रपोज़ किया,प्याज़ो तुनक कर बोली,तेरा मेरा अब क्या मुकाबला"
"ये प्याज़ मुझे दे दे ठाकुर"
"तुम्हें चारों और से पुलिस ने घेर लिया है, अपनी सारी प्याज़ कानून के हवाले कर दो"
जिनके घर प्याज़ के सलाद होते हैं, वो बत्ती बुझा कर खाना खाते हैं"
"मेरे कर्ण अर्जुन आयेंगे, दो किलो प्याज़ लायेंगे"
"लगता है, सब्ज़ीमंडी में नये नये आये हो,यहाँ सब
मुझे"प्याज़"के नाम से जानते हैं"
"मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, रुपया है, पैसा है, तुम्हारे पास क्या है? मेरे पास पचास किलो प्याज़ हैं"
"चिनॉय सेठ,प्याज़ बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं, कट जाये, तो आंसू निकल आते हैं"
"मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, प्याज़ हो तो अलग बात है"
"क्या करूँ,इज्ज़त दांव पर है, पड़ोसन प्याज मांगने आई है, और बीवी प्याज़ गिन कर रख गई है"
"क्या कहा,प्याज़ का परांठा चाहिए, बेलन पड़ जाएगा"
"कई होटलों में बोर्ड लग गये"प्याज़ मांग कर शर्मिंदा न करे"
एक घर में चोरी करने गयेचोर ने जैसे ही किचन में टोकरी प्याज़ से भरी देखी, उसके मुहँ से निकला "बड़ा मालदार आसामी लगता है, खूब माल हाथ लगेगा"
"मोदी राज है, खाना मुश्किल हुआ प्याज़ है"
"धारा 370 हटने पर जो कश्मीर में प्लॉट खरीदने की बात कर रहे थे,वो अब प्याज़ भी नहीं खरीद पा रहे"
मोदी जी आप तो बेरोज़गारों को पकौड़े तलने की सलाह दे रहे थे, अब तो ये काम भी दूभर हो गया।
प्याज़ इतना बाहुबली हो गया,सब तरफ खलबली मची है। बढ़ती चोरियों के कारण आढ़तियों,व्यापारियों को गार्ड रखने पड़ रहे हैं, किसानों को खेत में पहरे देने पड़ रहे हैं। गरीब का यह खाना अब गिने चुने अमीरों का ज़ायका हो गया। सरकार अब जागी है, पर विदेशों से आने में समय लगेगा।
तय सीमा से ज्यादा रखने वाले जमाखोरों पर सही से कार्यवाही हो तो भाव भी कम हों, माल भी बाज़ार में दिखेगा,पर राजनीति,आरोप प्रत्यारोप में लगे ये नेता जनता को यूँ ही पिसने पर मज़बूर करते रहेंगे।माल उगाने वाला किसान कभी शासन ,कभी प्रकृति के प्रकोप में उलझा रहता है, मौज़ तो बिचौलियों की ही हर बार
होती है।
क्या अजीब विडम्बना है, प्याज़,पेट्रोल, अन्य खाद्य पदार्थों की महंगाई से त्रस्त जनता की पुकार हर बार अनसुनी रह जाती है, प्रचंड बहुमत ने सरकार को इतना निरंकुश कर दिया है, घटती विकास दर, बढ़ती महंगाई, आर्थिक मोर्चे पर विफलता के बाद भी वह आश्वस्त हैं कि हमारा किसी भी तरह से बालबांका नहीं होगा,अलग अलग खेमों में बंटा विपक्ष अपनी धज्जियां खुद उड़ा रहा है, यही हाल रहा तो 2024 में भी 2019 का इतिहास दोहराने से कोई
रोक नहीं पायेगा।बस इसी तरह प्याज़ प्याज़ खेलती केंद्रीय व राज्य सरकारें मूलभूत मुद्दों से दूर, जनता को शतरंज की बिसात पर प्यादे की तरह छोड़ दिया जायेगा ।
-०-
पता: 
राज कुमार अरोड़ा 'गाइड'
बहादुरगढ़(हरियाणा)

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जल्लाद (लघुकथा) - पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'

जल्लाद
(लघुकथा)
यह शब्द सुनकर ही मन मे एक काला,मोटा ,चिकनी त्वचा वाले व्यक्ति की छबि ऑखों के सामने उतर आती है । वैसे हम जल्लाद शब्द का उपयोग हम किसी कठोर दिल वाले लोगो के लिए ही करते है । किंतु ऐसे व्यक्ति से मुलाकात कभी नही हुई । तो बस हम यही सोचते कि ऐसे लोग कैसा जीवन व्यतीत करते होगें । इनकी विचारधारा भी कैसी होगी ,ऐसे अनेकों विचारों का प्रवाह चला आता है ।
लेकिन हाल ही में मेरी मुलाकात टीवी के जरिए एक जल्लाद से हुई । तो सर्वप्रथम उनका पेहराव देख दंग रह गयी । और जब उनके सामने प्रश्नों की कडियाँ आरंभ हुई तो उनकी बातचीत सुन मेरे कान और ऑख बस उनकी ओर ठहर गयी ।हर प्रश्न का उत्तर वे जिस ढंग से दे रहे थे ऐसा लग रहा था मानो मै किसी साहित्यकार को सुन रही हूँ । उनके हर विचार से मै प्रभावित हुई ,उन्होने बताया कि उनका खानदानी पेशा यही है । और वें अब तक 19 लोगों को फांसी दे चुके है ।मुंबई ब्लास्ट के आरोपी याकूब मेनन को नागपुर जेल मे फांसी भी उन्होंने ही दी थी । उनकी बेबाक बातें समाज के प्रति जिम्मेदारीयों व नारी के प्रति सम्मान यह सब सुन मेरे मन मे बस एक ही ख्याल आया कि मनुष्य काम कैसा भी करे किंतु उसको जिम्मेदारी निभाना आनी चाहिए । कोई काम बडा या छोटा नही होता ।हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । यह तो हम इंसानों की फितरत है जो हर वर्ग का एक दायरा बना देता है । 
उनसे जब अगला प्रश्न पूछा गया कि क्या फांसी देते समय भी उनके मन मे तूफान उठते हैं तब उन्होंने बडी ही सरलता से इसका उत्तर देते हुए बताया कि जल्लाद को भी नियमों का पालन करना होता है । सर्वप्रथम मन को शांत रखना होता है , यहाँ तक की वे आपस मे किसी से बातचीत भी नही कर सकते और यदि करना हो तो इशारो मे ही बातें होती है । एक जल्लाद के मुख से इतनी जानकारी मिलने पर जो एक छबि मन मे थी वह तो सुधर गयी , लेकिन एक तूफान तो मन मे और था कि जहां देश-विदेश की निगाहें आरोपी को फांसी देने की ओर लगी रहती है तो क्या जल्लाद का हाथ और मन क्या सोचता होगा क्योकि जब जन्म देने का अधिकार उसका नही तो मौत का भी अधिकार नही होना चाहिए ऐसे भी विचार जल्लाद के मन मे आते होगे । लेकिन यह भी सही है कि अंत समय मे जल्लाद ही आरोपियों ऑखों मे ऑख डालकर उनके भावो को भली प्रकार से समझ पाता है ।लेकिन उस समय उनके मन मे एक ही विचार मंडराता है जब उसने गुनाह किया है तो सजा तो मिलनी है । वह सिर्फ माध्यम है।जल्लाद तो बस न्याय का पालन ही करता है और समाज को दुर्दांत गुनाहगारों से बचाता है।
-०-
पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
नागपुर (महाराष्ट्र)
-०-

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हम उम्र साथी चाहिए (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

हम उम्र साथी चाहिए
(कविता)
माँ मुझे गुड़िया जैसी
बहना चाहिए
मैं खेल सकूं जिसके साथ
ओ मेरे संग रहना चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए
माँ जब तुम चली जाती हो काम पर
मैं बोर हो जाता हूं
अकेले बैठे बैठे
ऐसे तो घर में कोई
अपना होना चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए
दाई माँ के भरोसे तुम
मुझे छोड़कर जाती हो
वह कितनी देर तक मुझे संभालेगी
वह तो बैठे-बैठे सो जाती है
उसे भी तो आराम चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए
कोई बच्चा बड़ों के संग
कितना देर खेले
उसके लिए तो उसे
उसका हमउम्र साथी चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए
दफ्तर से लौट कर
तुम भी थक जाती हो
फिर बीना मुझे लोरी सुनाए सो जाती हो
पापा को तो टीवी पेपर
और किताब चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए
किसके लिए आप दोनों
पैसे जमा कर रहे हो
माँ- बाप के रहते मैं
अनाथ सा हो गया हूं
मानसिक विकास हो मेरा
इसीलिए बच्चों की टोली चाहिए
माँ मुझे गुड़िया जैसी बहना चाहिए-०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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कोख से बेटी की गुहार (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

कोख से बेटी की गुहार
(कविता)
यदि मैं बोल पाती तो ,
तुम सुन पाती माँ।
मेरी पुकार...मेरी चीत्कार ...!
मत करो मुझे जन्म देने से इंकार।
रोक लो.....!
मेरे शरीर को चीरते हुए ओजारो को,
नकार दो.....!
तुम्हें मजबूर करने वाले हत्यारों को।
इस हत्या को ,मत दो अंजाम,
आना है मुझे इस दुनिया में,
करने है कुछ काम।
कब तक हम बेटियाँ ,
होती रहेंगी क़ुर्बान...?
गर यूँ ही चलता रहा तो,
अनुपात बिगड़ जाएगा।
किसी विलुप्त होते प्राणी की तरह,
बेटियों का संसार,
विलुप्ती की कगार पर पहुँच जाएगा।
मिल रही हमें,किस बात की सज़ा..?
क्या बेटी होना ही है गुनाह.....?
मैं तो तेरे अस्तित्व का प्रमाण हूँ।
सृष्टि का कथानक हूँ,
जननी हूँ, इंसान हूँ।
कन्या हूँ ,तो सपने देखने की इजाज़त नहीं है..?
अब मुझे बेड़ियाँ पहन कर,
चलने की आदत नहीं है।
मेरा जन्म लेना ज़रूरी है,
हमारे बिन सृष्टि अधूरी है।
सामंजस्य से ही परिवार है,
उसी से देश का आधार है।
जानती हूँ....,
जन्म लेते ही जंग लड़नी होगी,
मुझे जन्म देने की इच्छा तो पूरी करनी होगी।
तू डर मत माँ...,मैं भी नहीं डरूँगी,
इस दुनिया से अकेले लड़ूँगी।
मैं रोटियाँ बेलूँगी,तलवार भी लहराऊँगी,
विकास के सोपानों पर,
अपने बल पर चढ़ जाऊँगी।
मेरी कोमलता को कमज़ोरी मत आँको ,
मुझे गर्भ में ही कुचल कर मत मारो।
यूँ भी देश में...,
दरिंदगी पसर रही है,
दुष्कर्म ओर दरिंदगी की,
घटनाए घट रही हैं।
सरकार सो रही है,
बेटियाँ रो रही हैं।
इंसान जानवर से गिद्ध बनने को चला है,
हर कोई भेड़िया बन,
अबला को नोच रहा है।
मैं ऐसा नहीं होने दूँगी,
सामना करूँगी।
माँ मैं फूलन बनूँगी,
कोई आँख उठा देखे तो,
सर क़लम करूँगी।
क़ानून कमज़ोर है,
केस बनेगा,
सालों साल चलेगा।
प्रशासन चुनाव लड़ेगा,
जीतने वाला ,
अपनी सरकार गढ़ेगा
कोई जिए या मरे,
उसे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
तू डर मत माँ...।
माना कि ज़माना ख़राब है,
तेरी बेटी भी ,
काली बनने को बेताब है।
तुम सुन रही हो ना.....माँ..?
मुझे .....जन्म तो ....दोगी ना....?-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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हिंदी वर्णमाला गीत (बालगीत) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

हिंदी वर्णमाला गीत
(बालगीत)
अ से अनार ,आ से आम ,
पढ़ लिख कर करना है नाम।
इ से इमली , ई से ईख ,
ले लो ज्ञान की पहली सीख ।
उ से उल्लू ,ऊ से ऊन,
हम सबको पढ़ने की धुन ।
ऋ से ऋषि की आ गई बारी,
पढ़नी है किताबें सारी।

ए से एडी , ऐ से ऐनक ,
पढ़ने से जीवन में रौनक ।
ओ से ओखली , औ से औरत ,
पढ़ने से मिलती है शोहरत ।
अं से अंगूर , दो बिंदी का अः ,
स्वर हो गए पूरे हः हः ।

क से कबूतर , ख से खरगोश ,
पढ़ लिखकर जीवन में जोश ।
ग से गमला , घ से घड़ी ,
अभ्यास करें हम घड़ी घड़ी ।
ङ खाली आगे अब आए ,
आगे की यह राह दिखाए ।

च से चरखा , छ से छतरी ,
देश के है हम सच्चे प्रहरी ।
ज से जहाज , झ से झंडा ,
ऊँचा रहे सदा तिरंगा ।
ञ खाली आगे अब आता ,
अभी न रुकना हमें सिखाता ।

ट से टमाटर , ठ से ठठेरा ,
देखो समय कभी न ठहरा ।
ड से डमरू , ढ से ढक्कन ,
समय के साथ हम बढ़ाये कदम ।
ण खाली अब हमें सिखाए ,
जीवन खाली नहीँ है भाई।

त से तख्ती , थ से थन ,
शिक्षा ही है सच्चा धन ।
द से दवात , ध से धनुष ,
शिक्षा से हम बनें मनुष ।
न से नल , प से पतंग ,
भारत-जन सब रहें संग संग ।
फ से फल , ब से बतख ,
ज्ञान-मान से जग को परख ।
भ से भालू , म से मछली ,
शिक्षा है जीवन में भली ।

य से यज्ञ , र से रथ ,
पढ़ लिखकर सब बनों समर्थ ।
ल से लट्टू , व से वकील ,
ज्ञान से सबका जीतो दिल ।
श से शलजम , ष से षट्कोण,
खुलकर बोलो तोड़ो मौन ।
स से सपेरा , ह से हल ,
श्रम से ही मिलता मीठा फल ।
क्ष से क्षत्रिय हमें यही सिखाए ,
दुःख में कभी नहीँ घबराएँ ।
त्र से त्रिशूल , ज्ञ से ज्ञानी ,
बच्चों अब हुई खत्म कहानी ।
-०-
पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

-०-

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Saturday, 28 December 2019

सेवा कर ले (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

सेवा कर ले
(गीत )

सेवा करले सेवा करना ,
तो बेकार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है।।

तड़क भड़क में खर्च किया जो,
काम बहुत आया है सच है ।
और जरूरत मंदों ने भी ,
सुकूं बहुत पाया है सच है ।।
मगर दिखावे की बू उसमें ,
पगपग पर नुकसान करेगी ।
फल पाने की उम्मीदें भी ,
देखेगा बेमौत मारेगी ।।
रब के साथ दिखावे का तो ,
सुन व्यापार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है ।।

एक हाथ जब मदद करें तो ,
हाथ दूसरा जान न पाये ।
हमें सिखाया यही गया है ,
पास कभी ना शैतां आये।।
आत्म प्रशंसा दुर्गुण है हम ,
इसको जब तक नहीं छोड़ते ।
सिर्फ थकेंगे नहीं मिलेगा ,
कुछ भी चाहे रहें दौड़ते ।।
मनमानी अपनी करना क्या,
अत्याचार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है ।।

कथनी और करनी के अंतर ,
से पर्दा जब उठ जाएगा ।
वसन विहीन बदन होगा तो ,
कोई पास नहीं आएगा ।।
बुरा लगे अभिमान खुदा को,
मत खरीद उसकी नाराजी।
विपदाओं में फंस ना जाए ,
हार न जाए जीती बाजी ।।
धनुष रहे कमजोर दूर तक ,
उसका वार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है ।।

वो देता तब तू देता है ,
इसमें कहा बढ़ाई तेरी ।
उसकी ताकत पर्वत चढ़ती ,
इसमें कहाँ चढ़ाई तेरी ।।
शर्म तुझे क्या कभी न आई,
कोई जब दाता कहता है ।
तेरे एहसानों के बदले ,
कोई झुका झुका रहता है ।।
खुदा मानना खुद को रब से ,
सच्चा प्यार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है ।।

"अनंत" उसकी ताकत को तू,
समझ न कम नादानी है ये ।
नहीं जानता क्या तू रब की,
पगले नाफरमानी है ये ।।
नेकी करें कुए में डालें ,
संतों का फरमान यही है ।
गुणीजनों से चलाआ रहा ,
हमने सीखा ज्ञान यही है ।।
महाजनों के पथ पर चलना ,
तो निस्सार नहीं होता है ।
कभी दिखावा करने वाले ,
का उद्धार नहीं होता है ।।-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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सार्थक पहल (लघुकथा) - जगदीश 'गुप्त'

सार्थक पहल
(लघुकथा)
सार्थक अपने किसान पिता का इकलौता होनहार बेटा था । वह पढाई के साथ - साथ खेती - किसानी में अपने पिता का बराबर सहयोग करता था । हाई स्कूल पास करने के पश्चात् पिता ने आगे की पढाई के लिए उसे शहर भेजा । अनेक रिश्तेदारों , मित्रों ने उसे इंजीनियरिंग में प्रवेश लेने की सलाह दी किंतु , खेतों से लगाव के कारण उसने कृषि महाविद्यालय में प्रवेश लिया । पढाई ख़त्म होने पर खेती करने के आधुनिक गुर उसे अपने पुस्तैनी धंधा में सहायक सिद्ध हुए । साथ ही उसने गांव के अन्य किसानों को भी उन्नत , वैज्ञानिक खेती करने के गुण सिखाने की ठानी । 
वह देखता कि , फसल कटने के पश्चात उच्च कोटि का अनाज मंडी में हाथों - हाथ बिक जाता परन्तु , वहां फैले भ्रष्टाचार , मंडी तक अनाज को ले जाने की कवायद और बिचौलियों के कारण किसानों को सही दाम नहीं मिल पाता था । सार्थक ने सारे किसानों का संगठन तैयार कर फैसला लिया कि अपनी फसल गाँव में ही बेचेंगे , वह भी बाजार मूल्य पर । अच्छी क़्वालिटी का अनाज और सार्थक की पहल के कारण अब दूर - दूर के व्यापारी स्वयं गांव आने लगे और इस तरह किसानों का शोषण बंद हो गया । 

-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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