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Saturday, 29 February 2020

दांव सारे ही (ग़ज़ल) - अमित खरे

दांव सारे ही
(ग़ज़ल)
दांव सारे ही हार बैठा हूँ
ले के कितना उधार बैठा हूँ
वो सितारा गुमान करता है
जिसकी किस्मत सँवार बैठा हूँ
हक़ जरा तूँ जता कमाई पर
कब से लेकर पगार बैठा हूँ
कैसे कह दूँ रहनुमा उसको
जख्म खाकर हजार बैठा हूँ
शे'र कैसे 'अमित मुकम्मल हों
बहरें सारी बिसार बैठा हूँ
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




***
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पहेलियाँ - भाग - १ (दोहा पहेली) - महावीर उत्तराँचली

पहेलियाँ - भाग - १
(दोहा पहेली)
मुझे न कोई पा सके, चीज़ बड़ी मैं ख़ास।
मुझे न कोई खो सके, रहती सबके पास //१. //

छोटी-सी है देह पर, मेरे वस्त्र पचास।
खाने की इक चीज़ हूँ, मैं हूँ सबसे ख़ास // २. //

लम्बा-चौड़ा ज़िक्र क्या, दो आखर का नाम।
दुनिया भर में घूमता, शीश ढ़कूँ यह काम // ३. //

विश्व के किसी छोर में, चाहे हम आबाद।
रख सकते हैं हम उसे, देने के भी बाद // ४. //

वो ऐसी क्या चीज़ है, जिसका है आकार।
चाहे जितना ढ़ेर हो, तनिक न उसका भार // ५. //

देखा होगा आपने, हर जगह डगर-डगर।
हरदम ही वो दौड़ता, कभी न चलता मगर // ६. //

घेरा है अद्भुत हरा, पीले भवन-दुकान।
उनमें यारों पल रहे, सब काले हैवान // ७. //

पानी जम के बर्फ़ है, काँप रहा नाचीज़।
पिघले लेकिन ठण्ड में, अजब-ग़ज़ब क्या चीज़ // ८. //

मैं हूँ खूब हरा-भरा, मुँह मेरा है लाल।
नकल करूँ मैं आपकी, मिले ताल से ताल // ९. //

सोने की वह चीज़ है, आती सबके काम।
महंगाई कितनी बढ़े, उसके बढ़े न दाम // १०. //

नाटी-सी वह बालिका, वस्त्र हरे, कुछ लाल ।
खा जाए कोई उसे, मच जाए बवाल // ११. //
भाग - २ - १५ मार्च २०२० 
-०-
पता: 
महावीर उत्तराँचली
दिल्ली
-०-

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पहेली जवाब 
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आहटें सुनी सुनी (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

आहटें सुनी सुनी
(कविता)
सर्द रात के बाद,
अल सुबह ,
दरवाज़े पर,
दस्तक देता अख़बार।
ख़बरें ,सुर्ख़ियाँ बटोरती,
कुछ आहटें सुनी सुनी,
मन को कचोटती।
पर क्या ये सिर्फ़ सुर्ख़ियाँ हैं ?
घटनाएँ है...? जो घट गई।
आज आइ,कल गई ?
कुछ पल की चर्चा,
कुछ पल की बातें,
ख़बरें ही तो हैं,
आती हैं,जाती है,
अगले दिन भूल जाती हैं।
कुछ सपनों को ,
उम्मीदों को,आकांक्षाओं को,
रौंदते हादसे,
ज़िम्मेदार ,ज़िम्मेवारी से भागते।
सोच ओर सिस्टम के प्रहार,
जन जन पर पड़ रही,इनकी मार,
नक़ाबों में छिपे,
कुछ असामाजिक तत्व,
नज़ारे विभत्स ।
मूक बन देख रहा समाज।
दे रहे ख़तरनाक संकेत,
ग़ुस्से,तनाव,अराजकता का माहोल,
कौन बना रहा ,नहीं मालूम।
सरकारी अस्पतालों में,
क़ब्रगाह बनते मासूम।
कैसे मिले सकूँ ?
हिचकोले खाता स्वास्थ् शिक्षा विभाग,
मंदी का मकड़जाल।
संकट में पड़ी महत्वकांक्षा
,बाज़ार बर्बाद, घोर निराशा।
हर दिन,हर पल,
इन ख़बरों का का जीवन पर,
धीमें विष सा असर।
निपटने का खोजते रास्ता,
कोशिशें विफल।
हुडदंगियो से पटी गालियाँ,
मरता इंसान,कीड़े मकोड़ों सा,
इंसान ही इंसान की बर्बादी के तत्व बोता ।
कहाँ गई,नए साल की उम्मीद..?
अच्छे दिनों की ताक़ीद..?
बदलनी होगी,
मानव विकास की परिभाषा,
टूट रही आशा,पसरती निराशा।
उठ रहे सवाल..?
खोजने होंगे जवाब।
कैसे सम्भाले,कैसे रोकें ?
कुछ तो करें,कुछ तो सोचें।
प्रश्न करता अख़बार,
है ...कोई...जवाब...?-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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इंसानियत हुई लहुलुहान है (कविता) - राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'

इंसानियत हुई लहुलुहान है
(कविता)
मन्दिर मस्जिद का झगड़ा है
राम रहीम तो एक समान है
खून से खून जुदा हुआ
इंसानियत हुई लहूलुहान है

हर कोई राजनीति की बिसात पर
खेल रहा उठापटक की गोलियाँ
नैतिकता की धज्जियां उड़ी
बिखर गई हैवानियत को चोलियाँ ।

कहीं फूँक दी बसें तो
कहीं रेल के डिब्बे जले
तो कहीं हो जाती फिर फिर
पत्थरों की बरसात
तो कहीं मस्जिद धूं धूं दिखी,
तो कहीं मंदिर ने खो दी अपनी बात
इस्लाम को इससे क्या मिलेगा
और हिन्दू धर्म क्या पाएगा 
खाई में पड़े पड़े कब तक करते रहोगे ,
एवरेस्ट पर चढ़ जाने का
उदघोष ।

अब आदमी को अपनी ही छाया से लगता है डर
कि होश को भी न जाने कब आएगा होश ।।
क्या कहूं ,क्या सोचू
सोच भी देती जवाब नही
ऐसी असमंजस में ,मैं हो गया परेशान हूं ।
गीता में मेरी जान बसी है
नहीं छोड़ सकता मैं कुरान हूं
देखो ये कैसी अंधो की बस्ती है
खुल गई जहाँ चश्मों की दुकान है।
-०-
पता: 
राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'
बहादुरगढ़(हरियाणा)


-०-

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हे देश के नवजवानो ! (कविता) - सुरेश शर्मा


हे देश के नवजवानो !
(कविता)
हे देशवासियों ! हे देश के रखवालों !
कहां खो गये हो ? 
आज सारा देश धू-धू कर जल रहा है
ना जाने किसने हमपर नजर लगाई 
सुख गया ,शान्ति गया ,
हमने रातों की नींद भी गवायी ।

इसी आड़ मे कुछ लोगो ने राजनीतिक की
मशाल जलाई 
हे नवजवानो !
सुनो ओ नादानो !
तुम्हे आन्दोलनकारी बनाकर ,
उपद्रवी के नाम से आगजनी करवायी ।
और !
खेत खेलने वालो ने अपनी अंक बैठाकर ,
सतरंज की गहरी चाल चलाई ।
चाभी अपने हाथो मे रखकर ,
आपलोगों को जलती भट्टी मे झोंककर ; 
खुद तंदूर मे घी की रोटी सेंककर खायी ।

देश हमारा हम सब का है, 
ये देश की संपत्ति भी हमारी है ;
यह किसी एक की जागीर नही, 
नष्ट करने का भी किसी को हक नही ।

हंसी-खुशी हरियाली देश ,
दुश्मनो को रास ना आयी ।
आज हमारी देश की खुशहाली ,
कालनुमा ग्रहण से ग्रसित है हो आयी ।

इस तरह की उपद्रवी कृया-कलाप से ,
नही होनी है किसी की भी भलाई ।
विनाशकारी गतिविधियों से ,
निकालो अपने आपको ;
क्योंकि, 
आज देश की बागडोर है तुम्हारे उपर आयी ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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Friday, 28 February 2020

परीक्षा आई (बाल कविता) - राजीव डोगरा


परीक्षा आई
(बाल कविता)
परीक्षा आई परीक्षा आई
मन हमारा बड़ा घबराए।
कहीं हम फेल न हो जाए
पर एक थी चीकू रानी
पढ़ती थी कक्षा में हमारी।
थी भी वो बड़ी सयानी
परीक्षा आने पर भी
वो हंसती मुस्काती,
कक्षा में हमेशा प्रथम आती।
हमने भी अब मन में ठानी
और जाकर उस से
पूछी सारी कहानी।
बताओ हमें भी चीकू रानी
कैसी कक्षा में तुम प्रथम आती?
परीक्षा वाले दिन भी मुसकाती?
हंसती मुस्कुराती बोली चीकू रानी
स्कूल का काम मैं रोज करती
सुबह-शाम दोहराई भी करती।
इसीलिए मैं नहीं घबराती
और कक्षा भी में प्रथम आती हैं।
हमने भी अब मन में ठानी
रोज पढ़ेगे दिल लगा कर।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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"छुटकारा हो बस्ते का " (कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'



"छुटकारा हो बस्ते का "
(कविता)
भविष्य के जिन कंधों पर ,
भार सुरक्षित रहेगा देश का ।
उन्हीं नन्हें कंधों पर है क्यों,
भारी बोझ लदा बस्ते का ।।

अब इन नन्हें-नन्हें बच्चों के,
बचपन पर तरस कौन करे।
बाल मनोवैज्ञानिक भी सोचें।
कैसा हाल हो शिक्षा नीति का।।

किताबों के बोझ तले फिर,
दब जाता बच्चों का बचपन ।
बच्चों की दुनियाँ को भी,
मौका दो स्वच्छंद होने का।।

खेल-खेल में भी बच्चे सीखेंगे,
जीवन की सारी उपयोगी बातें।
स्कूल-ट्यूशन तक भारी बस्ता,
मौका दें प्रकृति संग विचरण का।।

बच्चे स्वयं करके कुछ सीखें,
ऐसी आशा रखें इन बच्चों से ।
बाल मन फन-फूड-फाईट से,
सपने संजोएं अपने जीवन का।।

अब बस्ता कैसे छोटा हो,
शिक्षाविद, मिल मंथन करें।
नन्हैं बच्चों का उपकार करें,
छुटकारा मिल जाए बस्ते का!!
-०-

मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

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मनुष्य में भी ईश्वर (कविता) - एस के कपूर 'श्रीहंस'

मनुष्य में भी ईश्वर
(कविता)
जिस दिन इंसान को इंसान में
इंसान नज़र आयेगा।

दूसरे के मान में ही अपना
सम्मान नज़र आयेगा।।

जब समझ लेगा मनुष्य कि सब
हैं एक ईश्वर की संतानें।

आदमी को आदमी में ही तब
भगवान नज़र आयेगा।।
-०-
पता:
एस के कपूर 'श्रीहंस'
बरेली (उत्तरप्रदेश) 

-०-

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सप्त भार्या (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


सप्त भार्या
(कविता)
दुनिया में बीवियों सात हैं
साथियों के नियति की बात हैं
शादी में हाथ से हाथ लेते ,
वे सदा पतियों के साथ ही हैं ।

वृक्षों और लताएं बन कर
वर्षा के द्वारा इसे पानी दे कर
खुशी से रहने का आसमान सा
मातृ, भगिनी, दासी, सखी,
बीवियाँ हैं चाँद की तरह ।।

पाप में जलती रहती हैं
रेगिस्तान की तरह ही हैं
चोर, वधक, स्वामी हैं नाम
नरक में मालिक होने की
शैतानें सी इन पत्नियों के ।।।
-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
कलुतर, श्रीलंका

-०-

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गुरु दक्षिणा (लघुकथा) - अपर्णा गुप्ता

गुरु दक्षिणा
(लघुकथा)
तालियों की गड़गड़ाहट और आँसुओ ने हमेशा ही मजबूत किया है मुझे आज मेरी पुस्तक का विमोचन जो हो रहा था ।
कबसे सजाया ख्वाब आज हकीकत हो रहा था ।
मुख्य अतिथि जी ने पुस्तक के बारे मे बताना शुरू किया तो मै अतीत में खो गई ।जिन्दगी के मीठे घूंट तो जूस की तरह पी लियें जाते हैं , कड़वी दवाई से पल पीने में भले ही मुश्किल आती हैं पर सीख वही दे जाते हैं ऐसे ही किसी पल को मां से बांच बैठी तो
माँ ने याद दिलायी वो डायरी जिनमें बचपन से ही कुछ अनछुए पहलुओं को सँजोया करती थी बस शुरू हो गई मेरी अनवरत कलम यात्रा । "आज माँ तुम तो नही हो पर तुम्हें ही समर्पित हैं ये मेरी पहली पुस्तक
यादो के पुष्प समर्पित है तुम्हें मेरी पहली गुरु तो तुम ही हो ना ".........-०-
पता
अपर्णा गुप्ता
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

-०-

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Thursday, 27 February 2020

आशियाना नहीं होता (कविता) - शालिनी जैन




आशियाना नहीं होता
(कविता)
जिन दरख्तों पर
हरियाली का ठिकाना नहीं होता
जरुरी नहीं 
वो किसी का आशियाना नहीं होता
सजती नहीं महफिले
सिर्फ महलो में ही
आरजूओं को पाने का
कोई पैमाना नहीं होता
ख्वाइशे तोड़ती है
दम रोज वहाँ
जहाँ अभिव्यक्ति का 
ताना बाना नहीं होता
दम तोड़ते रिश्तो को
दे रहे नाम बदलते परिवेश का
अपनी शिकस्तो को ना मान
दे रहे उलहाना उलझे रिश्तो का
जिन दरख्तों पर 
हरियाली का ठिकाना नहीं होता
जरुरी नहीं 
वो किसी का आशियाना नहीं होता
-०-
शालिनी जैन 
गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)
-०-

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हम हो स्वतंत्र (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

हम हो स्वतंत्र
(कविता)
हम हो स्वतंत्र,
हम रहें समृद्ध, संपन्न ।
लिया था जिन्होंने,
अपने हृदय में प्रण।
सीख लेकर संस्कारों की,
त्याग एवं बलिदानों की,
माँ, के निर्देशों को,
गुरुओं के उपदेशों को,
लेकर ताना,बाजी और येसा जैसे मित्रों को ।
चल पड़ा था,
एक वीर ऐसा।
शेर दहाड़ा था,
शत्रुओं पर जैसा।
फूलों की माला और
गीतों की गुंज,
नहीं है यह सच्चा अभिवादन।
विचारों,तत्वों एवं सत्कर्मों का उनके,
गर करे नित , हम सब पालन।
आज ही नहीं,
कल भी रहेंगा।
स्वराज पर हमारा ,
नित ध्वज फहरेगा।
कृषि, जल एवं शिक्षा के क्षेत्र में ,
किया था जिन्होंने अतुलनीय-सा काम ।
जन्म लिया था आज के दिन जिन्होंने,
छत्रपति शिवाजी है,
जिनका नाम ।
करता हूँ, करता रहूँगा मैं उनके,
विचारों एवं तत्वों को,
नित,निरंतर प्रणाम।
नित,निरंतर प्रणाम।
नित,निरंतर प्रणाम।-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

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यही बसंत है (कविता) - डॉ दलजीत कौर


यही बसंत है
(कविता) 
मैं
एक ठूँठ -सी
जीवन -जंगल में
महसूसती हूँ
नितांत नकारात्मकता |
देखती हूँ
सूखे पेड़
सूखी टहनियाँ
बिखरे फूल
बिछड़े पत्ते
वीरान वन मन
पतझड़ ही पतझड़ |
उड़ता है एक दिन
कोई सुनहरा पंछी
रंग -बिरंगे
तोते ,तितलियाँ
कबूतर -जोड़ा
चिड़िया ,कोयल
बैठती है गिलहरी
मेरे पास आ कर
और उमड़ता है
मन में विश्वास
जीवंतता का |
अगली सुबह
पाती हूँ मैं
दिल की जड़ो में
फूट आई है
कोई कोंपल
यही बसंत है
जीवन बसंत |

-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर 
चंडीगढ़


-०-

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वो सितमगर (गजल) - विज्ञान व्रत

वो सितमगर
(गजल)
वो सितमगर है तो है 
अब मेरा सर है तो है 

आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है 

जो हमारे दिल में था 
अब ज़बाँ पर है तो है 

दुश्मनों की राह में
है मेरा घर है तो है 

एक सच है मौत भी 
वो सिकन्दर है तो है 

पूजता हूँ बस उसे 
अब वो पत्थर है तो है 
-०-
पता:
विज्ञान व्रत
नोएडा (उत्तर प्रदेश)


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मज़बूर पिताज़ी (ग़ज़ल) - डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


मज़बूर पिताज़ी
(ग़ज़ल)
अपनों से जब दूर पिताजी होते हैँ
बेबस और मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे साथ खड़े होते हैँ जब उनके
हिम्मत से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

दादाजी से मिलनें जब भी जाते हैँ
थक कर के तब चूर पिताज़ी होते हैँ

अम्मा जबभी कोई फरमाईश करतीं हैँ
तब कितने मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे बहुएँ मिलकर सेवा करते हैँ
ऐसे भी मशहूर पिताज़ी होते हैँ

बच्चों के संग मेंं बच्चे बन जाते हैँ
खुशियों से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

पूरा कुनबा एक जगह जब होता है
रौशन सा इक नूर पीताज़ी होते हैँ

हर ग़लती पर सबको टोका करते हैँ
आदत से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बहन बेटियों के लिऐ है प्यार बहुत
पर पाकिट से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बच्चे जब उनकी बात नहीँ सुनते
हिटलर से भी क्रूर पिता ज़ी होते हैँ

उदास देखते हैँ किसीको जब अपने घर मेंं
तब ग़म से रन्जूर पिता ज़ी होते हैँ

जब कोई अच्छी कविता लिख लेते हैँ
कबिरा और कभी सूर पिताज़ी होते हैँ

सारा दिन मेहनत करते हैँ दफ़्तर मेंं
कभी अफ़सर कभी मज़दूर पिताज़ी होते हैँ
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
-०-



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Wednesday, 26 February 2020

आँखें चार मुहब्बत (ग़ज़ल) - मृदुल कुमार सिंह

आँखें चार मुहब्बत
(ग़ज़ल)
दुनिया भर की रार मुहब्बत
करते फिर भी यार मुहब्बत।

लेला मजनू का किस्सा क्या
बिकती जब बाजार मुहब्बत।

सारी दुनिया एक तरफ है
ना माने पर हार मुहब्बत।

घर आँगन से खूब बगावत
करती हैं दिलदार मुहब्बत।

नींद उड़ गई चैन छिन गया
दिल में मारा मार मुहब्बत।

जाने कितने दिल टूटे हैं
करके पहली बार मुहब्बत ।

गाँव शहर हर चौराहे पर
करती आँखें चार मुहब्बत । -०-
पता:
मृदुल कुमार सिंह
अलीगढ़ (अलीगढ़) 

-०-


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मकसद (लघुकथा) - बजरंगी लाल यादव

मकसद
(लघुकथा)
"मम्मी! आज अगर स्कूल फ़ीस नहीं जमा हुई तो, मैडम फिर मुझे धूप में खड़ा करेंगी..." आठ वर्षीया श्वेता ने आशंकित हो कर कहा।
"कितनी बार तुझसे कहा है कि धंधे वाली जगह पर नहीं आने को....?" लक्ष्मी ने श्वेता को डांटते हुए कहा।
" मगर मम्मी....!"
" अगर-मगर कुछ नहीं... अब तुम स्कूल जाओ! आज तुम्हारी फ़ीस मैं जरूर भर दूंगी" लक्ष्मी ने श्वेता को निशब्द करते हुए कहा।श्वेता बेमन से स्कूल की तरफ चल पड़ी,आज उसके पैर स्कूल की तरफ बढ़ी नहीं रहे थे।
तभी किसी ग्राहक ने लक्ष्मी को टोका- " क्या.. रे सनी लियोनी? आज तो बड़ी चिकनी लग रही है,चल आ-जा भीतर....!"
" अबे! उजड़े चमन, पहले दो पत्ती हाथ पर रख... तब भीतर जा...? "
"सौ रुपए से ज्यादा नहीं दूंगा, वरना रूपा रानी के पास चला जाऊंगा!"
" जा... स्साले! अपनी मां रूपा रानी के पास" लक्ष्मी ने उस टकले को झिड़कते हुए कहा।
तत्पश्चात तीन लड़के लक्ष्मी से मुखातिब होते हुए बोले- "हम तीन हैं, सिर्फ तुम्हारे साथ जाना चाहते हैं?"लड़कों ने सकुचाते हुए कहा।
" शक्ल से तो पढ़ने वाले लड़के लगते हो, इस गली में नए आए हो क्या ? क्यों, अपने मां-बाप के पैसों को बर्बाद कर रहे हो...? जाओ घर और पढ़ाई में मन लगाओ! वरना डिग्रियां की जगह यहां एड्स का सर्टिफिकेट मिल जाएगा...!" लक्ष्मी की तीखी बातों से तीनों लड़के उस वेश्या-बाजार की गली से रफू-चक्कर हो गए। तभी एक व्यंग्यात्मक स्वर ने लक्ष्मी के कानों को स्पर्श किया- " क्यों.... बच्चे पसंद नहीं तुझे?"
" मुझे हिजड़े भी पसंद नहीं...! लक्ष्मी ने भी तीखा प्रहार किया।
" बहुत बोलती है स्साली... चल अंदर आ... तुझे दिखाता हूं मर्दानगी....?उस शोले फिल्म के गब्बर सिंह माफिक दिखने वाले आदमी ने कहा,जिसके साथ दो और लफंगे थे।
" देख मंगुआ! धंधे का टाइम है,पहले दो सौ हाथ पर रख, फिर साथ चलूंगी तेरे ?"
" हम तीनों चलेंगे तेरे साथ! खुश कर दे मेरी रानी हमें...?
" फिर तो छः सौ लूंगी..?" लक्ष्मी ने साफ तौर पर कहा।
"चल! पाँच पत्ती ले लेना..." मंगुआ ने लक्ष्मी का गाल पकड़ते हुए कहा।
लक्ष्मी ने सर उठाकर आसमान की ओर देखा तो, आग उगलते सूर्य ने कहा- 'श्वेता की फ़ीस..!'
लक्ष्मी हालातवश मासूम खरगोश की भाँति तीनों खूंखार भेड़ियों के सामने निर्वस्त्र हो गई। कुछ देर बाद लक्ष्मी अपने आंचल से माथे के पसीने को पोंछती हुई श्वेता के स्कूल की तरफ भागी। जहां क्लास-रूम में श्वेता बेंच पर बैठी किताब के पन्नों में खोई थी। लक्ष्मी ने राहत की सांस लेते हुए, तुरंत आँचल की गांठ से पैसे निकालकर काउंटर पर जमा किए। फिर क्लास-रूम में जाकर श्वेता के माथे को चूमते हुए बोली- " बेटी! तुम्हारे जीवन का सिर्फ एक ही मकसद होना चाहिए सिर्फ पढ़ना और पढ़ना। ताकि तुम बड़ी होकर शिक्षिका बनों और अपने जैसे गरीब बच्चों को पढ़ाना"। मां के आत्मविश्वास और पसीने से लथपथ शरीर को देखकर श्वेता ने कहा- "मम्मी ! तुम चिंता मत करो? मैं इतना पढूंगी कि तुम्हें धंधे वाली गली में नहीं जाना पड़ेगा....!" इतना सुनते ही लक्ष्मी की आंखें भर आई और वह श्वेता से लिपट कर रो पड़ी।
-०-
पता:
बजरंगी लाल यादव
बक्सर (बिहार)
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