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Thursday, 31 December 2020

यादों के कैनवास ! (कविता) - अशोक 'आनन'

 

 यादों के कैनवास ! 
(कविता)
आप  क्यों इतने उदास हैं ।
दूर होकर भी हम पास हैं ।

खोलके देखिए खिड़कियां ;
फैला हर तरफ उजास है ।

हिचकियों की हैं कुंचियां ;
यादों के अब कैनवास हैं ।

पतझड़ों के घरों में अब ;
खुशियों के मधुमास  हैं ।

अंखियों के गांवों में अब ;
सपनों के अमलतास हैं ।

शब्दों  के  हैं रोज़  रोज़े ;
चिट्ठियों के  उपवास हैं ।

सुखों का है राज तिलक ;
दु: ख़ों  को  वनवास  है ।

खराब वक़्त गुज़र गया -
घरों में हास - परिहास है ।

सूखे को भी अब ' आनन ' ;
सावन - भादौ की आस है ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (मध्यप्रदेश)




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पिरामिड: गीता सार (कविता) - डा. नीना छिब्बर

 

पिरामिड: गीता सार
(कविता)
      1. रे
           मन
           चिंतन
           लाए सुख
            चिंता दे दुख
           समझ अंतर
            गीता देती ये ज्ञान।।
         2.है
             यही
              रीत की
             जीव मात्र
        भोगे है भोग
       कर्म अनुरूप
      सदा परिवर्तन।।
        3. जो
            जग
           जान ले
            गूढ़ बात
         जीना मरना
          ध्रुर्व सत्य मान
          छोड़ दे अभिमान।।
         4. ये
             तन
           निश्चित
          बदलेगा
        समय देख
       अपना ये चोला
      गर्व क्यों नादान?
     5. दे
         प्रभू
       सुबुद्धि
       देख सके
       अपनी भूलें
        आत्मपरीक्षण
          मिलती सदा मुक्ति।।
      6. तू
          कर
         अर्पण
         देह मोह
      .  लोभ लिप्सा भी
          प्रभू चरणों में   ।।
       7. ये
            धरा
           घूमती
          कर्म -धर्म
           मंत्र को मान
           कर्त्तव्य निभाना
         कृष्ण  की गीता सार ।।
         8. जो
            रहे
            निर्मल
   .        सदा करे
           पुण्य के काम
            ईश्वर साथ दे
          .पूर्ण हो सब काज ।।
       9. है
           .सीख
           कृष्ण की
          मोहमाया
            मात्र बंधन
          तोड़ दे नादान
          हो श्री चरण  ध्यान ।।
       
      10. है
            टिकी
            जिंदगी
          पाप-पुण्य
          दो कर्मों पर
           जीवन पर्यंत
           इसी युद्ध का भान ।।
       11. है
            यज्ञ
            कर्तव्य
            मानवीय
           हो संरक्षित
          प्राकृतिक धन
          पाँचों तत्व हर्षित।।
       12. ना
             करे
            इंसान
          दान मात्र
          फल इच्छा से
        शुद्ध भाव धर्म
          सदा होता स्वीकार ।।
       13. जो
             पूजे
            हरि को
            ना भर्माए
             धन दौलत
            मृगमरीचिका
            कृष्ण नाम तू जाप।
        14. ऐ
              प्राणी
            पुनीत
             कर्मफल
            पाए ये प्राण
           मानव योनि का
           दान धर्म उद्धार।।
         15. मैं
                माँगूं
           प्रभू से
           वरदान
          सयंम देना
          अर्पित सर्वस्व
           मोक्ष का अरमान ।।
       16. जो
            देता
          भोजन
        . तृप्त करे
   .       जीव मात्र को
           प्रभू प्रसन्न हों
           मिले बैंकुंठ धाम ।।
        17.दे
            यही
          संदेश
         गीता ज्ञान
          पढ़ समझ
          आत्मा हो शुद्ध
          भीतरी युद्ध शांत।।
        18. हे
               कान्हा
            स्वीकारों
           ये प्रार्थना
           लेना छाया में
           मोह जाएं भाग
            सारथी बन हांक।।
-०-
डा. नीना छिब्बर
जोधपुर(राजस्थान)

-०-

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सुख के नगमे ही गए हैं (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

  

सुख के नगमे ही गए हैं
(कविता)
जीवन लक्ष्य रखा आंखों में हमने बस, 
इसीलिए सुख  के  नगमे  ही  गाए  हैं। 
*****
वक्त चाल से अपनी  ही चलता हरपल, 
हमको तो बस अपने  फर्ज  निभाने थे। 
जैसा आया  मौसम  भोग  लिया हमने, 
आलस   ने   पर   ढूंढे  कई  बहाने  थे।। 
अपने मन का होतो सुख नाहो तो दुख, 
मन पर अंकुश  ने ही  सुख  बरसाए हैं। 
जीवन लक्ष्य रखा आंखों  में हमने बस, 
इसीलिए  सुख  के   नग्में   ही  गए  हैं।। 
*****
अलविदा बीस, इक्कीस  विदाई देता है,
नहीं शिकायत तुमसे तुम  इतिहास बने। 
याद   करेंगे    लोग   तुम्हें   ना  भूलेंगे, 
वे सारे  तुम जिनके  खातिर खास बने।। 
कुछ व्यक्ति भगवान बने  जीवन देकर, 
कुछ  ने  सेवा कर  जीवन  उजलाए हैं। 
जीवन लक्ष्य रखा आंखों में हमने बस, 
इसीलिए  सुख  के  नगमे  ही  गए  हैं।। 
*****
घर में  रहकर  जीने  का आनंद लिया, 
छोड़ी भागम भाग  तो  राहत  पाई  है। 
काम "अनंत" दूसरों के आए  तब  ही, 
दूर    गई   दुखदर्दो   की   परछाई  है।। 
जनहित सेजो भटकगए रहबर अपने, 
सदमें ,ऐसो  ने   ही   बहुत   उठाएं हैं। 
जीवन लक्ष्य रखा आंखोंमें हमने बस, 
इसलिए सुख  के  नग्में   ही  गाए  हैं।।
-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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जिंदगी में.... यह साल (कविता) - प्रीति शर्मा 'असीम'

   

जिंदगी में.... यह साल
(कविता)
यह साल ,
बहुत ख़ास रहा |
जिंदगी की कड़वी  यादों में |
मीठी बातों का भी  स्वाद  रहा |

यह साल बहुत ख़ास  रहा |
किन भरमों में जी रहे थे।
आज तक .........?

उनसे  जब  ,
आमना -सामना  हुआ|

क्या  कहूं ..........!
जिंदगी में, इस  साल |
तुज़र्बों का एक काफ़िला  -सा  रहा |

कुछ  के चेहरे से नकली नकाब उतरे,
कुछ को छोड़कर,
हर चेहरा दागदार रहा।।
 कुदरत ने हर चेहरे पर मास्क लगाकर,
 चेहरे की अहमियत का वो  सबक दिया।

यह  साल बहुत ख़ास रहा |

जहां कुछ जिंदगी की हकीकतें समझ गए।
 किस दौड़ में जी रहे थे.....
 बंद घरों में करके कैद में रख दिए।
 
वहीं कुछ चेहरे दिल में सिमट गए।
 जिंदगी बंद करती है एक दरवाजा,
तो कहीं कई  दरवाजे खुल गए।
हर उस प्रेरणा  का
शुक्रिया ........
जिस ने जिंदा होने का,
अहसास दिला दिया।

 जिंदगी की अहमियत का,
इस साल ने वो  सबक दिया।
 जो समझेंगे..... सालों को जी जाएंगे।
वरना हर साल में...  बस
सालों के कैलेंडर ही बदलते रह जाएंगे।

 यह साल बहुत खास रहा।
मैं  हारता हुआ भी हर बाज़ी मार गया |

जिंदगी  का हर  दिन अच्छा या  बुरा,
हर अनुभव  बहुत ही ख़ास रहा |

नये साल  को सींचूगा 
इन अहसासों से |

जिंदगी  को  जीने के, वे-मिसाल उमदा,
इन  तरीको से | 
यह  साल बहुत ही ख़ास रहा |
 जिंदगी की हकीकतों  को दिखाता बेमिसाल आईना रहा।
-०-
पता:
प्रीति शर्मा 'असीम'
नालागढ़ (हिमाचल प्रदेश)

-०-


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जाने वाले साल (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी

 

जाने वाले साल
(कविता)
धन्यवाद देता हूँ तुझको जाने वाले साल।
एक वर्ष में दिखलायें है तुने कई कमाल।
किसी के मूंह से रोटी छिनी किसी से छिना प्राण।
उथल-पुथल करके रख्खा और मचा दिया धमाल।

गोदे सुनी हो गई माँ की बाप के कन्धे टूटे।
ना जाने कितने ही घर सोये रातों में भूखे।
कैद हुए हम कई महीने अपने घर के भीतर। 
बीबी बच्चों संघ बैठे हम अक्सर रूठे-रूठे। 

बिलख-बिलख कर रोयें बच्चे मांये अश्रु बहायें।
पिता की चिंता सोचे दिनभर कैसे समय बितायें।
पैसे नहीं है इक भी घर में खाने को न दाना है। 
नौकरी भी तो छूट गई अब रोटी कहाँ से लायें।

बहनें विधवा हुईं कई और बच्चे कई अनाथ हुए।
कोरोना के चलतें जाने कितने घर बर्बाद हुए।
आने वाला है इक्कीस उम्मीद हृदय में जागी है।
ऐसा हुआ प्रतित की मानों कैद से हम आजाद हुए।

फिर भी तुझको दोष न दूंगा तुने ज्ञान सिखाया है।
बड़ी-बड़ी मुश्किल से कैसे बचना हमें बताया है।
कोरोना से लड़ते-लड़ते जीना हम सब सीख गये।
तुने ही हर मुश्किल से लड़ना हमें सिखाया है।

नववर्ष में कोरोना का प्रभु हो जाये समाधान।
हर कोई बढ़ चढ़ कर पाये इस दुनियां में मान।
कोई भी भूखा न सोये ये दुनियां हो खुशहाल।
हाथ जोड़कर विनय यही है ईश्वर दो वरदान।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
-०-


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Tuesday, 29 December 2020

पुस्तक की ताकत का कमाल (व्यंग्य संस्मरण) - कृष्णकुमार ‘आशु’

पुस्तक की ताकत का कमाल
(व्यंग्य संस्मरण)
ये कुदरत का अनूठा खेल नहीं तो और क्या है कि जिस व्यक्ति ने सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए पांचवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ दी थी। परिवार वालों के लाख कोशिश करने के बावजूद पूरे साल स्कूल नहीं गया। घर वालों ने दूसरे साल फिर पांचवीं कक्षा में प्रवेश दिलवाया लेकिन एक दिन आधी छुट्टी को रोटी खाने घर आया तो फिर कभी स्कूल नहीं गया। यहां तक कि आधी छुट्टी में जो बस्ता स्कूल में छोडक़र आया थाउसे लाना भी जरूरी नहीं समझा। पता नहीं ऐसा क्या था कि स्कूल जाने से उसका मन उचट गया थावही व्यक्ति स्कूल जाने के दिनों में चौधरियों के घर उनके बर्तन-भांडे मांजकरउनके घर के दूसरे काम करके खुश रहता था। यह सब काम करते हुए भी उस घर में आने वाली पत्रिकाओं को पढऩे का उसे बहुत शौक था और उसी शौक ने उसे न सिर्फ साहित्य से जोड़ दियाबल्कि उसका जीवन ही बदल दिया! यहां तक कि वर्षों बाद अधूरी छोड़ी पढ़ाई की तरफ मोड़ा और अकादमिक शिक्षा भी पूरी करवाकर ‘डॉक्टे्रट’ की उपाधि दिलवा दी! शैलेंद्र ने बिल्कुल सही लिखा है-किस्मत के खेल निराले मेरे भैयाकिस्मत का लिखा कौन टाले मेरे भैया...!

आज का यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार सोचता है तो पाता है कि पुस्तकों से आरंभ में ही वह एक चुम्बकीय आकर्षण महसूस करता रहा है। जहां कहीं भी पुस्तक दिखतीवह उसे पढऩे लगता था। वह बेशक चौथी क्लास पास था लेकिन हिंदी पढऩे की उसकी न सिर्फ गति अच्छी थीबल्कि बहुत ध्यान से पढ़ा हुआ अक्सर उसे याद भी रह जाया करता था।
जिस जगह पर उनका किराए का मकान थाउसके मालिक चौधरी श्योजीराम सहारण के घर वह शुरू में तो अपनी मां के साथ काम करने जाता था। उनके घर का चौका-बर्तन उसकी मां ही करती थी। फिर वह वहीं रहकर उनके घर के काम करने लगा और वहीं रोटी खा लिया करता। उनके घर सरिता पत्रिका आया करती थी। अखबार भी आता था। वहीं से उसे कुछ पढऩे का शौक लगा था। उसे याद है पहली बार उसने बच्चन की ‘मधुशाला’ भी वहीं उनके घर में ही पढ़ी थी। यह जुदा बात है कि तब उसे ‘मधुशाला’ का महत्व ही पता नहीं था। असल में बारह-तेरह साल का बच्चा होने के कारण न तो साहित्यिक समझ थी और न ही जानता था कि साहित्य क्या होता है। उसे अच्छी तरह याद हैआगे-पीछे से फटी हुई ‘मधुशाला’ के बीच के कुछ पन्ने ही चौधरी साहब के घर में उपेक्षित पड़े मिले थे। उन्हें पढक़र वह बहुत खुश हुआ था। उसने चौधरी साहब के सबसे छोटे बेटेजिन्हें वह मामा जी कहता थासे कहा था, ‘ मामा जीआ पोथी देखोईं में शराब सारू कीं लिख्योड़ो है!’ (मामा जीयह पुस्तक देखेंइसमें शराब के बारे में कुछ लिखा हुआ है।)
तब मामा जी ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, ‘पड़ी बळण दे। म्हैं अजे कोनी छोडां शराब!’ (पड़ी रहने दे। मैं अभी शराब छोडऩे वाला नहीं हूं!)
तब उस बच्चे का जवाब था,  ‘ईं में शराब नै कोजी कोनीआछी चीज बताई है।’ (इसमें शराब को गंदी नहींअच्छी चीज बताया है।)
तब मामा जी ने हंसते हुए कहा था, ‘तो ठीक है। बठै मेल दे। आराम सूं भणस्यां!’ (तब ठीक है। वहां रख दे। आराम से पढ़ेंगे।)
तब अपनी नासमझी के चलते बच्चन की ‘मधुशाला’ का इतना-सा ही महत्व समझा था उस बच्चे ने और उसके मामा जी ने!  
जब कुछ समय तक दमकल विभाग के अधिकारी गोपाल सैनी के पुत्र को खिलाने के लिए आया के रूप में काम करना शुरू किया तो उनके यहां धर्मयुग आती थी। उसमें डब्बू जी उस बच्चे का पसंदीदा कालम था।
लेकिन साहित्य की समझ तब भी नहीं थी। इसके बाद उसके दोस्त ओमी (ओम ग्रोवर) ने उसे जासूसी उपन्यास पढऩे को दिया। वह पढऩे के बाद उसका ऐसा नशा चढ़ा कि वह रात-दिन जासूसी उपन्यास ही पढऩे लगा। विशेष रूप से वेदप्रकाश शर्मा के सौ से ज्यादा उपन्यास उसने पढ़ लिये थे। वेदप्रकाश कम्बोजसुरेंद्र मोहन पाठक और मेजर बलवंतकर्नल रंजीत आदि के जासूसी उपन्यास वह पढ़ता। पुरानी आबादी में ही एक नॉवेल स्टोर खुला था जो किराए पर पुस्तकें देता था। पच्चीस पैसे प्रतिदिन एक नॉवेल का किराया होता था। उस जमाने में उसे पच्चीस पैसे रोज जेब खर्ची मिला करती थीवह रोज एक नॉवेल पढ़ जाता। बीच-बीच में कॉमिक्स की किताबें भी पढ़ता रहता था।
इन्हीं किताबों और पत्रिकाओं को पढऩे के दौरान वह चौधरी साहब के घर सेवा-चाकरी करता रहता था। एक दिन उसके पास पढऩे को कुछ भी नहीं था तो उसने चौधरी साहब के घर में पड़ी उनकी पोतियों की किताबों में रखी नवीं कक्षा की पुस्तक पढऩी शुरू की। उसमें एक कहानी थी-ईदगाह! लेखक प्रेमचंद!
बस यहीं से शुरू हुआ कुदरत का खेल। ‘ईदगाह’ ने उसे इतना प्रभावित किया कि जासूसी उपन्यास एकदम ही छूट गए और साहित्यिक कहानियोंबाल कहानियों की तरफ उसका रुझान बढ़ गया। पहली बार उसे पता चला कि साहित्यिक पुस्तकें भी कोई चीज होती हैं! साहित्यिक कहानियां और उपन्यास के साथ कविताएंलघुकथाएं और बालकथाएं वह पढऩे लगा। अब उस नॉवेल स्टोर से जासूसी उपन्यास के बजाय परागनंदनचम्पकलोटपोट और चंदा माता आदि पत्रिकाएं किराए पर आने लगी। लोटपोट तो उसे इतनी भाई कि जब वह किशोरावस्था में कपड़े की दुकान पर काम करने लगा तो वह हर हफ्ते लोटपोट खरीदने ही लगा। उस जमाने में लोटपोट का मूल्य था एक रुपया! पढऩे के बाद वह लोटपोट को संभाल कर रखता और अगले कुछ वर्षों में उसके पास लोटपोट का ढेर लग गया।
कई बार लाला जी नाराज हो जाते और कहते, ‘क्या करैंसै इन्हां किताबां दा! स्कूल तां तू गिया कानी। हौ’ण पड’दै केहड़ा अफसर बणसैं!’ (क्या करेगा इन पुस्तकों का! स्कूल तो तू गया नहीं। अब पढक़र कौनसा अफसर बनेगा!)
परंतु उस पर लालाजी की इस डांट का कोई असर नहीं था। कच्चे घर में लोटपोट के ढेर को संभालकर रखने की जगह ही नहीं थी। आखिर उस ढेर को धीरे-धीरे दीमक लग गई और एक दिन लाला जी ने वह तौल के भाव कबाड़ी को बेच दी।
वर्षों बाद जब लोटपोट में उसकी अपनी स्वरचित बाल कहानी छपी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उस एक कहानी का पारिश्रमिक सत्तर रुपए मनिऑर्डर से आया था और इस खुशी में उसने अपने दोस्तों को अलग-अलग पार्टी देने के नाम पर सौ रुपए से ज्यादा खर्च कर दिए थे!
बेशकआज स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए दो-दो दैनिक अखबारों को अस्थायी सेवाएं देते हुए अपनी आजीविका चलाने और घर फूंक तमाशा देखने के जुनून में त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन कुंज’ का नियमित प्रकाशन-सम्पादन करते-करते उम्र के इस छठे दशक में पढऩे की गति पहले वाली नहीं रही है। वट्सअेप और फेसबुक ने भी पढऩे की रुचि और गति दोनों को बुरी तरह प्रभावित किया है लेकिन फिर भी यह सौ फीसदी सच है कि जो आनंद आज भी इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार को छपी हुई पुस्तक को पढऩे में आता हैवह आनंद किसी भी सोशल मीडिया पर नहीं आता। यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार आज भी अपने मित्रों से बातचीत के दौरान ‘सृजन कुंज’ अथवा अखबारों में छापने के लिए भले ही रचना की सॉफ्ट कॉपी ही मांगता हैलेकिन पढऩे के लिए ‘हार्डकॉपी’ की ही मांग रहती है! भले ही पुस्तक खरीदकर पढऩी पड़े और पीडीएफ मुफ्त में उपलब्ध होतब भी उसकी प्राथमिकता छपी हुई पुस्तक ही होती है!
यह छपी हुई पुस्तक की ताकत का ही परिणाम है कि बचपन से ही राह भटक रहा एक आवारा लडक़ा न सिर्फ पत्रकार बनाम व्यंग्यकार के रूप में पहचाना गयाबल्कि अपना जीवन स्तर भी सम्मानजनक रूप से सुधार चुका है!
पुस्तक की ताकत इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार ने बचपन में ही महसूस की होऐसा नहीं है। हाल के वर्षों तक उसने पुस्तक के कारण सौ फिसदी कट्टर कहे जाने वाले एक शख्स का नजरिया बदलते भी देखा है। दस-बारह साल पुरानी बात है। तब यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार राजस्थान पत्रिका में काम करता था। उन दिनों राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर कार्यालय में जयपुर से स्थानांतरित होकर एक शख्स आए थे। वे मूलत: बिहार के थे और हिंदीअंग्रेजी के साथ संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्हें पुस्तकें पढऩे का बहुत शौक था। वे ढूंढ-ढूंढकर नई-नई पुस्तकें पढ़ा करते थे। उनकी ज्योतिष के साथ धार्मिक कर्मकांड में विशेष रुचि थी। वे प्रतिदिन दो घंटे अपने कमरे में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। यहां तक तो ठीक था लेकिन उनकी विचारधारा कट्टर हिंदुवादी होने के कारण उन्हें मुसलमानों से बहुत दिक्कत थी। इतनी कि साहित्य की चर्चा करते समय वे हिंदीअंग्रेजी और संस्कृत ही नहींअन्य कई विदेशी भाषाओं के साहित्य पर भी अधिकार के साथपूरे आत्मविश्वास से खुलकर बोलते थे लेकिन जैसे ही उर्दू शायरी की बात आतीवे चिल्लाने लगते! उन्हें उर्दू शायरों का नाम तक सुनना पसंद नहीं था।
इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार का यह स्वभाव ही रहा है कि उसे विद्वानों की संगत अच्छी लगती है। यही कारण है कि कई बार वह ‘अच्छे ज्ञाता लेकिन बुरे व्यक्ति’ के साथ उसका घटियापन  बर्दाश्त करते हुए भी काफी समय गुजार लेता है। वे शख्स तो व्यक्ति के रूप में भी बहुत अच्छे थे। भोले और निर्मल मन के एकदम निर्दोष व्यक्ति! उनके अवगुणों पर नजर डालने की कोशिश भी करें तो शायद इस कट्टरपन से अधिक कुछ नजर नहीं आता था। इसी के चलते इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार की उनके साथ बहुत अच्छी दोस्ती रही। खूब हंसी-ठठा और खाना-पीना हुआ।
अपनी रुचि और सामाजिक दायित्व के चलते शहर में साहित्यिक आयोजन की जिम्मेदारी यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार नौकरी में रहकर भी समय निकालकर निभाता रहता था। इन्हीं में एक काम था-लघु स्तर पर पुस्तक मेले का आयोजन! रूप बिल्कुल वैसा ही जैसा बड़े स्तर पर पुस्तक मेलों का रहता है। मसलन पुस्तकों के स्टॉल लगतेलोग पुस्तकें खरीदते और दिन में एक छोटा-मोटा साहित्यिक कार्यक्रम कवि गोष्ठीकहानी पाठपुस्तक चर्चा आदि करवाते थे।
ऐसे ही एक पुस्तक मेला लगा तो एक दिन वे देखने आए। इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार के दिमाग में जानें क्या बात आई कि उन्होंने मात्र पचास रुपए मूल्य की एक पुस्तक पर रैपर चढ़वा लिया और उन शख्स को भेंट करते हुए वादा ले लिया कि आप इस पुस्तक को पढ़ेंगे जरूर! उन्होंने भी बहुत खुश होकर वादा किया और पुस्तक लेकर चले गए।
शाम को जब ऑफिस आए तो उन्होंने आते ही इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार को गले लगा लिया। बोले, ‘यारतुमने तो कमाल कर दिया! मुझे पता ही नहीं था कि गालिब सचमुच में इतना बड़ा शायर है! मैं तो समझता था कि उर्दू वालों ने उन्हें यूं ही चढ़ा रखा है। आज पहली बार गालिब को पढ़ा तो मेरी आंख खुली!
यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार भी हैरान था! ‘दीवान-ए-गालिब’ की छोटी सी प्रति भेंट करते समय इस तरह के चमत्कार की तो उसने भी कल्पना नहीं की थी। उसके बाद तो उन्होंने अनेक उर्दू शायरों को पढ़ा और अपनी बातों में उनके शे’र भी कोट करने लगे।
यह पुस्तक की ताकत नहीं तो और क्या है कि मुसलमानों के नाम से नफरत करने वाला शख्स गालिब की एक किताब पढक़र कट्टर हिंदुत्व के जाल से निकल आया। तब वह पूरी तरह भले ही न बदला होलेकिन उर्दू शायरों के प्रति उसके मन में आदर का भाव उस एक पुस्तक के कारण ही उत्पन्न हो गया था!

-०-
पता:
कृष्णकुमार  ‘आशु’
श्रीगंगानगर (राजस्थान) 

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भारत भाग्य विधाता' (कविता) - श्रीमती सरिता सुराणा

 

भारत भाग्य विधाता
(कविता)
वह असमंजस में था
चारों ओर छाए थे उसके 
निराशा के घनघोर काले बादल
दुविधा में पड़ गया था वह
उसके एक ओर कुंआ था
तो दूसरी ओर खाई
एक ओर कोरोना से मरने का डर
तो दूसरी ओर भूख का भय
वह करे तो क्या करे?
जाए तो कहां जाए?
अपने पैतृक गांव
जिसे वह छोड़ आया था
बरसों पहले
चला आया था शहर
रोजी-रोटी की तलाश में
बनाए थे उसने यहां लाखों आशियाने
अपने इन्हीं खुरदरे हाथों से
मगर उसे ही नसीब नहीं
एक टूटी-फूटी छत सिर छिपाने को
आज जब उसे सबसे ज्यादा जरूरत थी
इस शहर में एक सहारे की
तब दुत्कार रहा था वही
जिसे उसने ही सजाया-संवारा था
अपने खून-पसीने से
आज़ वही चक्की के दो पाटों के बीच 
पिस रहा था और सोच रहा था
वह आज भी असमंजस में था
जाए तो जाए कहां?
करे तो करे क्या?
इसी असमंजस में निकल पड़ा वह
पैदल ही अपने परिवार के साथ
अपना घर सिर पर उठाए
एक हाथ की अंगुली पकड़े बच्चा
दूसरे हाथ में टूटी-फूटी साइकिल
दो-चार एल्यूमीनियम के बर्तन और
कुछ फटे-पुराने चीथड़ेनुमा कपड़ों की 
पोटली उठाए उसकी पत्नी
बस यही तो थी उसकी जमा पूंजी
जिसे साथ लिए जा रहा था वह
वहीं, जहां से आया था
जैसे आया था, उससे भी बदतर हालत में
सहसा प्रश्न उठा कि
कौन था वह?
वह था भारत का भाग्य विधाता
सबके लिए रोटी, कपड़ा और मकान का निर्माता
बना नहीं पाया तो बस अपने लिए ही कुछ
दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर
नाम है उसका मजदूर!
-०-
श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
-०-

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जीवन में (कविता) - अतुल पाठक 'धैर्य'

 

जीवन में
(कविता)
घृणा बढ़ रही है चहुँओर 
प्रेम घट रहा है जीवन में

घृणा में घृणा के ही योग से
घृणा का गुणनफल हो रहा है जीवन में

प्रेम शान्ति का बिगड़ रहा समीकरण
द्वेष का आकृमण बढ़ रहा है जीवन में

क्रूर हिंसा का बढ़ रहा संक्रमण 
मानवता का गणित मानव नहीं सीख रहा है जीवन में
-०-
पता: 
अतुल पाठक  'धैर्य'
जनपद हाथरस (उत्तरप्रदेश)

-०-

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किसान पर दोहे (दोहे ) -शिव कुमार 'दीपक'

 

किसान पर दोहे
(दोहे)          
जिसके श्रम बल से मिले, सबको रोटी-दाल ।
उसकी खाली थालियाँ , काटें  रोज  बबाल ।।-1

जिसके श्रम से भूख का, मिट जाता संत्रास ।
भूख, गरीबी, बेबसी,  हरदम  उसके  पास ।।-2

जिसके श्रम से खा रहा , खाना  हिन्दुस्तान ।
होगा उसकी भूख का, संसद को कब ज्ञान ।।-3

स्वेद, रक्त  से  सींचकर , खेती  करे  किसान ।
मिला नही श्रम का कभी,उसे उचित सम्मान ।।-4

गर्मी, पावस, शरद में , पाये  कष्ट  तमाम ।
दे न  सकीं ये नीतियां,हलधर को आराम ।।-5

कह आराम हराम है ,श्रम को पूजा मान ।
करे किसानी खेत में , आधा  हिंदुस्तान ।। -6

जब सोता सुख - चैन से, पूरा  हिंदुस्तान ।
तब सरहद पर घूमता , सारी रात जवान ।।-7

खा - पी  सोता  चैन  से , पूरा  हिन्दुस्तान ।
पेट देश का भर रहा,निर्धन आज किसान ।।-8

सजीं मेज पर थालियाँ, महक रहे पकवान ।
लगे अन्नदाता  बिना, घर-घर  में  रमजान ।।-9
-०-
शिव कुमार 'दीपक'
हाथरस (उत्तर प्रदेश)
-०-




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Saturday, 26 December 2020

इस जिंदगी का कितना गुमान है (कविता) - लखनलाल माहेश्वरी


इस जिंदगी का कितना गुमान है

(कविता)
तेरी जिन्दगी का तुझे कितना गुमान है 
चार दिन की है जिन्दगी क्या शान है 
इस शान में कितना तेरा सममान है 
खत्म हो जायेगी यह जिन्दगी क्या गुमान है। ।तेरी जिन्दगी,,,,,,
इस माटी के पुतले पर इतना गुमान न कर 
तेरी क्या ओकात है कितनी क्या शान है 
खत्म हो जायेगी यह जिन्दगी 
चार दिन का मेहमान है। ।तेरी जिन्दगी,,,,,,,,,
यहाँ सब पराये है अपना कोई नहीं है 
मौत से आज तक बच न पाया कोई है 
तू समझता नहीं कैसा तू इन्सान है 
माटी के पुतले तेरी क्या शान है। । तेरी जिन्दगी,,,,,,,,,
जो दुनियां हंसीन नज़र आ रही है 
तेरी औकात को न समझ पा रही है 
यह जवानी तेरी रहने वाली नहीं है 
सब खाक हो जायेगी तेरी जिन्दगानी है ।।तेरी जिनदगी,,
जो कमाया जिन्दगी में सब भूल जायेगा 
चार दिन तेरी याद आयेगी फिर भूल जायेंगे 
प्रेम लखन कहे अब तो सम्भल जा 
अब तो हरि मिलन को तैयार हो जा। । तेरी जिन्दगी,,,,,,
-०-
पता:
लखनलाल माहेशवरी
अजमेर (राजस्थान)

-०-


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पलभर की दुल्हन (कहानी) - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

  

पलभर की दुल्हन
(कहानी)

छुटकी को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था । उसे उधार खरीदकर लाई गई सस्ती लाल साड़ी पहना दी गई थी, जो लोग, मिहिलाल के लिए कफन लेकर आये थे वे ही साथ में लाल साड़ी भी ले आये थे और लाल चूड़ियां भीं । हाथों में चूड़ियां और माथे पर बड़ी बिन्दी लगा दी गई थी । छुटकी की आज शादी होने वाली थी एक लाश के साथ । छुटकी समझ नहीं पा रही थी कि वह हॅसे या रोये । उसे दोनों काम करने थे । पहले उसे खुष होना था कि उसकी लंबी प्रतीक्षा के बाद उसकी शादी हो रही है वो भी उससे जिससे वह प्रेम करती है फिर उसे रोना भी था, क्योंकि वह जिससे प्रेम करती है उसका निर्जीव शरीर उसकी आंखों के सामने पड़ा था ।
              एक छोटी सी झोपड़ी के अंदर छुटकी को दुल्हन बनाने का कार्य चल रहा था । झोपड़ी के बाहर एक लाष पड़ी थी जिसके अंतिम संस्कार की तैयारियां की जा रही थीं । पहले शादी होगी फिर अंतिम संस्कार ।  गांव की औरतों ने जोड़-तंगोड़ कर उसे दुल्हन बना दिया था । छुटकी लाष से ज्यादा निःश्चेत नजर आ रही थी । उसकी आंखों के सामने अपने जीवन के पल-पल चित्र की भांति घूम रहे थे ।
             छुटकी एक आदिवासीे गांव की अल्हड़ युवती । मां बाप की प्यारी संतान । दिन भर जंगल में हिरनी जैसी कुलांचे भरना जंगल से उसे प्यार था वह उसके एक-एक रास्ते से वाकिफ थी । रात में मां-बाप के सीने से लग कर सो जाना । उसकी दिनचर्या थी । इस दिनचर्या में बदलाव तब आया जब उसकी दोस्ती मिहि से हो गई । मिहि भी उसके जैसे सामान्य परिवार का इकलौता पुत्र था । बलिष्ठ शरीर और गोरा रंग, छुटकी उस पर लट्टू हो गई । भगोरिया मेला में जब उसे मिहि ने पान खिलाया तो उसका तन-मन लालिमा से रंगा गया था । इस पान खिलाने का मतलब वह अच्छी तरह से जानती थी । अब उसकी दुनिया बदल चुकी थी । धने जंगल के किसी घने पेड़ की छांव में दोनों दिन भर भविष्य की कल्पनाओं में डूबे रहते । यकायक मिहि के परिवार  पर गाज गिरी और उसके मां-बाप दोनों असमय कालकवलित हो गये । मिहि दुःख में पागल हुआ जा रहा था । छुटकी उसको ढाढ़स तो बंधाती पर यह जानती थी कि जिन परिस्थितयां में मिहि रह रहा है, उसमें उसका उसके साथ रहना जरूरी है पर शादी हुए बिना या पचायत की इजाजत के बिना यह संभव नहीं था ।
                    पंचायत ने साफ कह दिया था कि जब तक सारे समाज को भोज नहीं दिया जाता तब तक वे शादी-षुदा नहीं माने जा सकते । पंचायत की यह घोषणा मिहिलाल के लिये किसी वज्रपात से कम नहीं थी । आज उसकी उतनी माली हालत थी भी नहीं कि वह सारे सामाज को भोज दे सके । उसने समाज के लोगों से बहुत अनुनय-विनय किया पर समाज के लोग मानने तैयार ही नहीं हुए, इतना अवष्य हुआ कि पंचायत ने उन्हें बगैर शादी किये साथ-साथ रहने की इजाजत दे दी इस चेतावनी के साथ कि वो जल्दी ही पंचायत को भोज देगा ।
             छुटकी और मिहिलाल साथ-साथ रहने लगे थे । पर उनके आर्थिक हालात नहीं सुधर पा रहे थे । दोनों दिन भर की कड़ी मेहनत करते पर पेट भूखा और तन कम कपड़ों का बना रहता छुटकी ने भोज के लिए कुछ पैसे जोड़े अवष्य थे पर जैसे ही पहली संतान हुई उसमें वे पैसे खर्च हो गए । घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि छुटकी जचकी के बाद आराम कर पाती । दो-तीन दिन में ही उसने फिर काम पर जाना शुरू कर दिया । मिहिलाल उसे रोकता भी पर वह मानती कैसे, वह जानती थी कि पेट में दो दानें तब ही आयेगें जब वह भी मजदूरी करने जाएगी । पहली संतान हो जाने के बाद पंचायत ने उन्हें चेताया था ‘‘ जल्दी से भोज दे दो वरना जाति से बाहर कर दिये जाओगे’’ । दोनो महिनों तक चिंतित बने भी रहे पर उनकी चिंता से कोई हल नहीं निकल पाया । पहली संतान के बाद उनकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती जा रही थी। कई बार तो उन्हें एक टाइम खा कर सो जाना पड़ता था  । छुटकी जंगल से लकड़ी बीन कर लाती और जंगल वाले साहब उसे छुड़ा लेते वह रोती रहती पर किसी को उन पर दया नहीं आती । उस दिन छुटकी और मिहिलाल को भूखा ही सोना पड़ता । इस बीच छुटकी ने एक और संतान को जन्म दे दिया था । अबकी पंचायत ने उन्हें साफ चेता दिया था कि यदि उन्होने समाज को भोज नहीं दिया तो तो वे जाति से बाहर कर ही देगें ।
                  छुटकी और मिहिलाल के सामने भरपेट भोजन की समस्या तो थी ही पंचायत को भोजन कराने की चिंता भी उसे खाये जा रही थी । वह जानती थी जब तक पंचायत को भोज नहीं कराया जाएगा तब तक वे पति-पत्नी नहीं माने जाएंगे ऐसे में उनकी संतानों को क्या नाम दिया जाएगा ।
                   जंगल में काम मिलना मुश्किल होता जा रहा  था ।  छुटकी और मिहिलाल के उपर दो-दो संतानों की जिम्मेदारी आ पड़ी थी फिर भी वे पंचायत की धमकी को भुला नहीं पा रहे थे । हताषा और निराषा के दौर में मिहिलाल ने जंगल में एक कोयला खदान में काम करना शुरू कर दिया था । छुटकी कोयला खदानो में रोज  होने वाली  घटनाओं को  जानती थी  इसलिए  वह नहीं चाहती थी कि मिहिलाल खदान में काम करे  । जगंल में काम मिल नहीं रहा था जंगल के अफसर सारा काम मषीनों से करा लेते थे । काम नहीं मिलेगा तो बच्चों का पेट कैसे भरेगा । उनका पेट तो फिर भी जैसे-तैसे भरा जाये पर पंचायत को भोज तो देना ही था । अब जब उसके सामने कोई विकल्प नहीं रहा तब उसे यह स्वीकार करना ही पड़ा । जब तक मिहिलाल खदान से लौट कर नहीं आ जाता तब तक वह बैचेन बनी रहती । खदान का काम अधिक श्रम वाला था । उसे दिन भर कात करते रहना पड़ता था । लगातार की भुखमरी और पारिवारिक हालातों ने उसकी षारीरिक क्षमताओं को कम कर दिया था । वह थकाहारा लौटता और रात भर दर्द और बैचेनी के चलते करवटें बदलता रहता । छुटकी इस हालत को देख रो पड़ती । उसने कई बार उसे खदान का काम छोड़ देने को बोला था पर वह मानने को तैयार नहीं था । मिहिलाल के सामने पंचायत को भोज देने का मुखिया का फरमान सामने आ जाता और वह अपनी सारी पीड़ा भूलकर काम पर चला जाता ।
मिहिलाल का शरीर कब तक ज्यादती सहता । एक दिन मिहिलाल खदान में ही चक्कर खाकर गिर गया । खदान के लोग उसे घर में पटक कर चले गए । छुटकी को काटो तो खून नहंीं । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे । गांव में उसकी मदद करने वाला सिवाय उसके बाप के और कोई नहीं था । अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ वह कहां जाए, वह पूरी तरह टूट चुकी थी । उसके पिता ने मिहिलाल को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया था । पर उसका इलाज दवा के अ्रभाव में  नहीं हो पा रहा था । असहाय छुटकी अस्पताल के सामने बैठी रो रही थी । उसे रोते हुए देख वहां से आने जाने वाले उसे पैसे दे रहे थे । छुटकी ने हिम्मत कर उन पैसों से मिहिलाल के लिए दवायें खरीदीं । वह जब तक वहां पहुंचती मिहिलाल के प्रान पखेरू उड़ चुके थे ।
            अस्पताल के कर्मचारियों ने पूरी बेर्ददी के साथ उसकी लाश को अस्पातल के सामने रख दिया था । उस लाश से लिपट कर छुटकी रो रही थी । उसे रोता देख उसके दोनों बच्चे उससे लिपट कर रो रहे थे ‘‘ मां......म....त......रोओ.........मां  ।’’ नन्हीं आवाज उसकी रूलाई को बंद नहीं करा पा रही थी । उसका पिता अपने आपको जैसे तैसे सम्हाले हुए लाष को गांव ले जाने की जुगत भिड़ा रहा था । उनकी बदकिस्मती यह थी कि उनके पास पैसे नहीं थे, इस कारण न तो सरकारी एम्बुलेंस उसको ले जाने को तैयार थी और न ही कोई अन्य गाड़ी । छुटकी और उसके बच्चे रात भर मिहिलाल की लाश के गले लगकर रोते रहे । दिन निकलने के पहले उसके पिता ने लाश को अपने कंधे पर डाला और छुटकी ने अपने दोनों बच्चों की उंगलियां पकड़ी और चल दिये अपने गांव की ओर । गांव वैसे भी दूर था और उसके पिता के कंधे बुढ़ापे के कारण कमजोर । वे ज्यादा दूर नहीं चल पाते वे रूक जाते सुस्ताते और फिर चल पड़ते । दोनों को गांव तक पहुंचने में दोपहर हो गई थी । भूखे बच्चे, असहाय छुटकी और  बूढ़े बाप, लंबा सफर आंखों से न थमने वाले आंसू । मिहिलाल तो लाश बन चुका था उसका निर्जीव शरीर हर कदम के साथ डोलता चल रहा था । रास्ते भर उन्हें ऐसा कोई नहीं मिला जो उनकी मदद करता ।
  घर के सामने लाष को रख दिया गया था । गांव में मिहिलाल की मौत की खबर जैसे-जैसे फैलती जा रही थी वैसे-वैसे गांव के लोगों का आना प्रारंभ हो चुका था । पंचायत के लोग जमा हो चुके थे । सभी के सामने एक ही प्रश्न था कि उनके भोज का क्या होगा । जब तक भोज नहीं तब तक छुटकी, मिहिलाल की पत्नी नहीं मानी जा सकती और न ही वे बच्चे मिहिलाल की संतान माने जा सकते । फिर लाष को आग कौन लगायेगा । छुटकी का बाप हाथ जोड़े पंचायत के सामने खड़ा था । पंचायत को फिलहाल इस बात की
चिंता नहीं थी की मिहिलाल की मौत हो गई है और न ही इस बात की चिंता थी कि उसके बच्चे भूखे प्यासे हैं ।
‘‘ मेरी बेटी के पास क्रियाकर्म करने पैसे नहीं हैं, वो आप सब को भोज कैसे करायेगी आप हम पर रहम करें । ’’
           छुटकी का बाप गिड़गिड़ा रहा था । पंचायत के लोग बेषर्म हो चुके थे ।  ‘‘ नहीं उसे भोज कराना ही पड़ेगा, पंचायत को भोज कराये बगैर हम उसे मिहिलाल की पत्नी नहीं मान सकते ।’’
पंचायत के मुखिया ने साफ कह दिया था ।
‘‘ पर.....उसके पास पैसे नहीं ....हैं .......तो हमें कुछ तो मोहलत .....देनी चाहिए’’ पंचायत के सदस्य ने डरते हुए यह कहा । पंचायत खामोष हो गई । वे अपने सदस्य की बात को नहीं काट पा रहे थे । आपस में खुसर-पुसर प्रारंभ हो गई । सभी एक मत नहीं थे । कुछ लोगों का साफ कहना था कि पंचायत ने इन्हें पर्याप्त अवसर दे दिया । इसी के कारण दो-दो बच्चे पैदा हो गये अब फिर समय दे भी दिया गया तो क्या गारंटी है कि छुटकी भोज करा ही देगी । फिर मिहिलाल का श्राद्ध भी तो किया जाना है वह श्राद्ध करायेगी या भोज करायेगी । श्राद्ध का नाम आते ही पंचायत में फिर खुसर-पुसर होनी शुरू हो गई । अंत में यह तय किया गया कि छुटकी को श्राद्ध करने तक की मोहलत और दी जाए वह श्राद्ध कराये और उसी को भोज मान लिया जाए । सभी ने इसका समर्थन कर दिया । अब समस्या छुटकी के विधि विधान से ब्याह की थी । मिहिलाल तो जीवित नहीं था फिर उसकी मांग कैसे भरी जाए । जब तक मांग नहीं भरी जाएगी तब तक उसे ब्याहता कैसे माना जाएगा । पंचायत ने फैसला किया कि लाष से छुटकी की मांग भर दी जाए । मिहिलाल के अंतिम संस्कार के पहले छुटकी को दुल्हन बनाया जाए, उसकी मांग भरी जाए फिर उसकी मांग पौछ दी जाए और उसे मिहिलाल की विधवा बना दिया जाए । पंचायत के फैसले को सभी ने मौन रह कर सुना ।
                 छुटकी पंचायत के इसी फैसले के चलते महिलाल की लाश घर के सामने पड़ी होने के बाबजूद दुल्हन बन रही थी । उसे अपने बच्चों को बाप का नाम दिलाना था । छुटकी को गांव की औरतों ने मिलकर दुल्हन बना दिया था । दुल्हन बनी छुटकी को लगभग खींचकर बाहर लाया गया । दो लोगों ने मिहिलाल के निर्जीव पड़े शरीर से बांये हाथ को पकड़ा और सिंदूर की डिब्बी में उसकी उंगलियां डुबाकर छुटकी की मांग को भर दिया गया । लोगों ने तालियां बजाईं । छुटकी आज मिहिलाल की पत्नी बन गई थी । उसकी मांग को सजे पल भर भी नहीं हुआ था कि गांव की औरतों ने छुटकी की मांग से सिंदूर पौछ दिया और उसकी चूड़ियों को तोड़ दिया गया । छुटकी की आंखों का बांध टूट चुका था । छुटकी रो रही थी । रोते-रोते उसकी हिचकी बंध जाती थी पर कोई नहीं था जो उसको सान्तवना दे सके ।
                   मिहिलाल का क्रियाकर्म हो चुका था, अब उसकी श्राद्ध होना था । छुटकी अपने भूखे बच्चों को अपने जिगर से चिपका कर भीख मांग रही थी । उसे श्राद्ध करना था उसे पंचायत को भोज कराना था, ताकि उसके बच्चों को अपने पिता नाम मिल जाये ।
-०-
पता:
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)
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*ऑनलाइन शिक्षा का नवाचार* (कविता) - बच्चू लाल दीक्षित


*ऑनलाइन शिक्षा का नवाचार*

(कविता)
शिक्षा में नवाचार कोरोना लेकर आया है 
घर बैठे स्कूल लग रहे ऑनलाइन पढ़वाया है

क्या होगा नन्हे मुन्नों का प्राथमिकी के पाठ पढ़ रहे
  झाड़ू पोंछा वाली माई पर बोलो क्या उपकार कर रहे
 शालाएं तो बंद पड़ी हैं मोबाइल बिन ज्ञान दे रहे
बिन कक्षा और परीक्षा का छात्रों को उपहार दे रहे

अध्ययन अध्यापन की शर्तों को तुम  याद करो 
मध्यान्ह भोजन की बचत राशि का ध्यान धरो 
उसी राशि से घर घर में एंड्राइड का विस्तार करो
झुग्गी पथ गामी बच्चों की पढ़ने की योजना धरो

बिना पढ़ाई और परीक्षा  कक्षोन्नति निराली है 
बिन बोए बिन सींचे कैसे क्यारी में  हरियाली है

यदि आम हथेली पर उग जाए क्यों खेती अपनाएंगे
 पेट भरे बिन कौर निवाला क्यों पानी पेट हिलाएंगे
 सेटेलाइट से शिक्षा दीक्षा बटुक को पंगु बनाएंगे
जिनकी लाठी में बल है भैंस वही ले जाएंगे।।
-०-
पता:
बच्चू लाल दीक्षित
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)

-०-


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चलो कुछ अच्छा करते हैं.. (कविता) - गोविन्द सिंह चौहान

 

 चलो कुछ अच्छा करते हैं..
(कविता)
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरों की हटे उदासी  दिल में, वो हँसी भरते हैं।
सन्तुष्ट जीवन जीने का पाठ पढ़ लें वरना,
चेतना शून्य होते मानवता के रिश्ते,
खबर बनते हैं।

एक करोड़ो का मालिक बेचारा बाप,
पुत्र की चाह का मारा बेघर बेसहारा हो जाता है,
झरते आँसुओं में रिश्तों के दर्द बह जाते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरों की हटे उदासी दिल में, वोहँसी भरते हैं।

दूसरा किस्सा और भी शर्मसार कर जाता है।
एक अरबपति महिला का तन,       बनके कंकाल रह जाता है।
सभ्य समाज में एक फ्लेट ही, शवगृह बन जाता है।
माँ की मृत्यु के सालभर बाद सपूत घर आते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरे की हटे उदासी दिल में , वो हँसी भरते हैं।

 बात जो हर युवा को समझाती है,
सास-बहु के झगड़े में पति की बलि हो जाती है।
अधिकारी की मौत, बिखरते रिश्तों,
की कथा बन जाती है।
परिवार-बीवी के बीच तनाव मौत की रेखा बन जाती है 
रिश्ते  रेल की पटरी पर आकर आत्महंता हो जाते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।

पद,पैसा ,प्रतिष्ठा, शक्ति संकलन,
अहंकार जीवन को खुश नहीं रखते,
समझते है सब सच अपना- अपना
फिर मानव ,जीवन को शांत क्यूँ नही रखते?
चलो कुछ अच्छा करते हैं
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।
 विश्वविजेता शूमाकर
 जिन्दगी  की जंग लड़ता है,
पत्नी की सम्पति सारी बेचकर 
डॉक्टरी ईलाज का बिल भरता है।

जीवन के छोटे प्रवास में कैसे-कैसे सबक मिलते हैं
इंसा नफरत और धर्म में क्यूँ झुझते हैं
चलो कुछ अच्छा करते हैं
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।

रूपया जरूरत तो है,खुद हाथों, खर्च नहीं करता है।
घर-परिवार और दोस्तों से, जीवन बनता है।
भाग्य का एक हस्तक्षेप सब कुछ 
बदल देता है।
संग्रही संपत्ति, समस्याओं से निपटना पड़ता है
वस्तुओं सा मानव नगण्य,शक्तिहीन बनता है।
जी लो जी भर आज के पल, कल कभी नहीं बनते हैं।

चलो कुछ अच्छा करते हैं...
चेहरों की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं...  
-०-
गोविन्द सिंह चौहान
राजसमन्द (राजस्थान)


-०-

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Thursday, 24 December 2020

मैं वह हूँ (कविता) - निधि शर्मा

    

मैं वह हूँ
(कविता)
मैं वो लड़की नहीं,
जो ख्वाबों में
बुनती हैं राजकुमार,
जो आएगा और
रानी बनाकर रखेगा,
मैं तो खुद से
महारानी बनने का
हौसला रखती हूं।

मैं वो बेटी नहीं,
जो भाई से
बराबरी करती हैं,
जो पापा से भाई के समान
अधिकार चाहती हैं,
मैं तो, पापा से
बेटे के कर्तव्य निभाने
का हक मांगती हूं।

मैं वो हूं,
जो आंखो में सपने लिए
जिंदगी के सफर
को जीना चाहती हैं,
कुछ अपनों के लिए
तो कुछ अपनी खुशी
के लिए करना चाहती है ।
-०-
पता:
निधि शर्मा
जयपुर (राजस्थान)


-०-


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हिंदी साहित्य (कविता) - गजानन पाण्डेय

हिंदी साहित्य
(आलेख)

कहा जाता है ' साहित्य, समाज का दर्पण है।' वस्तुतः यह सच है , लेखक के सृजन में व्यक्ति, समाज व देश  तीनों होते हैं, इसलिए लेखक पर समाज को दिशा देने का गुरुतर भार होता है। 

 साहित्य- लेखन में, मानवीय संवेदना, स्मृतियाँ व समाज के विभिन्न वर्गों के नैतिक व सामाजिक मूल्यों का काफी प्रभाव पड़ता है। 

मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्य में ' व्यक्ति, समाज व देश, तीनों की समस्याओं का बडी गहराई  से अध्ययन किया है। '

  इनके अलावा उस समय के साहित्यकार रेणु,शरतचंद्र, टैगोर,निराला , महादेवी वर्मा, पंत , प्रसाद आदि ने ऐसा साहित्य रचा है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। 

  गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति ' श्रीरामचरितमानस ' आज भी घर - घर गाया व पढा जाता है।  वह तो ग्यान, भक्ति, वैराग्य व सदाचार की शिक्षा देनेवाला आदर्श ग्रंथ है। 

 तत्कालीन समाज में, बाल - विवाह, सती प्रथा,छुआछूत, जात - पांत  व धर्मान्धता जैसी  अनेक बुराइयाँ थीं। 

  भारतेन्दु युग के निबंधकार बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित  ' हिन्दी प्रदीप ' नामक मासिक पत्र  के प्रकाशन का उद्देश्य व्यक्ति में, राष्ट्र- प्रेम  व भारतीयता की भावना  को जागृत करना रहा है। 

    इसी प्रकार, राष्ट्र कवि  मैथिलीशरण गुप्त की रचना ' भारत- भारती '  तो  ' स्वतंत्रता  - संग्राम का घोषणा पत्र बन गया था ।

   इसमें कवि ने भारतीय संस्कृति की  गौरव- गाथा का जहां गुणगान किया है वहीं आज के समाज  के पतन के कारणों का  खुलकर वर्णन किया है।  जनता में  ' नव- जागरण ' के  पुनीत कर्तव्य का कवि ने भली - भांति निर्वाह किया है। 

 वे लिखते हैं  - ' हम कौन थे , क्या हो गये हैं  और 

                   क्या होंगे अभी, आओ विचारे , आज मिलकर, यह         समस्याएं  सभी ।'

   भारत ने विश्व को युद्ध नहीं, बुद्ध दिये हैं।  भारतीय संस्कृति व हिन्दी साहित्य में देश को जोड़ने वाली बातें हैं ।

      भारत में  विभिन्न धर्म, भाषा व जाति के लोगों को अपने ढंग से जीने का समान अधिकार है ।यही ' अनेकता में एकता  ' ही हमारी संस्कृति की विशेषता है। 

        अतः आज के समय में, सभी को देश - निर्माण के यज्ञ में खुले दिल से सहभागी बनना होगा।  इस कार्य में साहित्यकारों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी, इसमें दो मत नहीं है। 

    हमारी समृध्द व गौरवशाली संस्कृति से सारा विश्व जुडना चाहता है  , इस कार्य में हिन्दी सेतु का कार्य कर रही है। 

     आइये हम  सभी भारतीय अपने कर्तव्य- पथ पर चलते हुए विश्व  के सामने मिसाल पेश करें। 

-०- 
पता 
गजानन पाण्डेय
हैदराबाद (तेलंगाना)

-०-



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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ