तहखाने में मैंने देखा, इक लोहे का बक्सा
रखा हुआ था उसमें मेरी, किस्मत का लेखा-जोखा
झाड़ पौछ कर खींचा आगे, लगा हुआ था ताला
चाबी लाकर खोला तो, निकली यादों की माला ।
एक कोने में रखे खिलौने , छोटे चकला बेलन
एक कढ़ाई, करछी, थाली, चूल्हा और एक झाड़न
एक तरफ था मेरे प्यारे, गुड्डे - गुड़िया का जोड़ा
बैठ के गुड्डा जिसमें आया, वो भी था एक घोड़ा ।
धूमधाम से हमने मिलकर, उनका ब्याह रचाया
घर के पिछवाड़े में मंडप, फूलों का सजाया
फेरे लेकर गुड़िया रानी, मेरे घर आई थी
मित्र मंडली नाच नाच कर, उसे संग लाई थी ।
पास में कुछ छोटे कपड़े ,जो मुझको चिड़ा रहे थे
जिनकी खातिर लड़ती थी मैं, सब कुछ बता रहे थे
दीदी वाली पुस्तक भी , जो मैनें भी पढ़ डाली थी
ड्रेस भी दीदी वाली थी, जो पहन के स्कूल जाती थी ।
एक छड़ी भी रखी थी इसमें, माँ हमको हड़काती थी
हल्ला ,गुल्ला करने पर वो, इससे हमें डराती थी
कुछ दद्दू की चिट्ठी भी थीं, जिससे हमें बुलाते थे
गर्मी की छुट्टी में हम सब, गाँव घूम कर आते थे ।
गेहूँ, गन्ना, चने, मटर की, फसलें वहाँ लहराती थीं
दूध, दही, घी लस्सी, मक्खन, दादी हमें खिलाती थी
हृष्ट-पुष्ट हो कर आते थे, स्वस्थ सभी रहते थे
लेकिन पढ़ने की खातिर हम, शहर में ही रहते थे ।
बक्से में सब मिला पिटारा, यादें हो गईं ताजा
भूल गए वो सादा जीवन, किससे करेंगे साझा
अब हम दादा-दादी हैं पर, कुछ भी ना कर पाते
क्योंकि बच्चे अब छुट्टी में ,परदेस घूमने जाते ।
अब तहखाना होता है पर, बक्सा ना होता है
ना वैसे गुड्डे -गुड़िया का, ब्याह कोई करता है
ना दादी की चिट्ठी होती, ना पीपल की छाँव
कृत्रिम जीवन हुआ आज है, ना मिलता विश्राम ।
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पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा
जयपुर (राजस्थान)