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Saturday, 30 November 2019

शब्द की माला (कविता) - रश्मि लता मिश्रा

शब्द की माला
(कविता)
श्रृंगार है शब्द की माला
कविता कामिनी का।
उपहार है वह भाव भरे ह्रदय का,
काव्य प्रेमियों का।
भाव के मोती ज्यों- ज्यों पिरोए जाते,
कविता का पथ त्यों-त्यों हैं बढ़ाते।
नदी, पर्वत ,झील पहुंचाते,
तो कभी समाज ,राजनीति ,धर्म निभाते।
प्रकार शब्दों का ,आकार शब्दों का
अनूठा होता है संसार शब्दों का।
कभी इस संसार से कविता गढ़ता है,
एकता की ताकत का चित्र उभरता है।
रवि न पहुंचे वहां कवि को पहुंचाती है,
शब्द की माला कमाल दिखाती है।
पता:
रश्मि लता मिश्रा
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 
-०-


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विधाता (छन्द गीत) - रीना गोयल

विधाता
(छन्द गीत)
सजी बारात दीपों की ,अनोखी रात आयी है ।
करे मन,प्राण को रौशन, मधुर सौगात लायी है।

सजाती घर रँगोली से ,धरे मुस्कान गालों में ।
खिली दहलीज फूलों से ,भरी लज्जत निवालों में।

सजी महफ़िल ठहाकों से ,हसीं बिन बात आई है ।
करे मन,प्राण को रौशन, मधुर सौगात लायी है।

बड़ी अनमोल घड़ियां हैं ,बड़े अद्भुत नजारें हैं ।
पगे है प्रीत में अँगना ,हुए जगमग चुबारे हैं ।
अमावस रात में लक्ष्मी,गणेशा साथ आयी हैं ।
करे मन,प्राण को रौशन, मधुर सौगात लायी है।

लताएं झूमती गाती,सितारों से भरी रातें।
छनकती पाँव में पायल,नयन से कर रही बातें ।
उजाले हर तरफ बिखरे, हुई टीम की बिदाई है ।
करे मन,प्राण को रौशन, मधुर सौगात लायी है।
-०-
पता:
रीना गोयल
सरस्वती नगर (हरियाणा)

-०-

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अब भरोसा क्या करना (कविता) - संजय कुमार सुमन


टूट गया उम्मीदों का दामन
(कविता)
प्यार झूठा,
मोहब्बत भी झूठी।
अब किसी पर,
भरोसा क्या करना।
प्यार मरता नहीं
प्यार कभी झुकता नहीं।
हम तो बस,
यही कहेंगे।
प्यार है,
प्यार था,
और प्यार रहेगा।
साथ क्यों नहीं देते,
प्यार में लोग।
यह सोचकर,
घबराता है दिल मेरा।
वफा में कब तक,
हम आंसू पिएंगे।
तेरे विरह में,
अब तक जिंदा हूं।
तुमसे दिल लगाने की
हमने क्या,
खूब सजा पाई हैं।
प्यार झूठा,
मोहब्बत भी झूठी।
अब किसी पर,
भरोसा क्या करना।
-०-
संजय कुमार सुमन
मधेपुरा (बिहार)

-०-

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गठरी (लघुकथा) - डा. नीना छिब्बर

गठरी
(लघुकथा)
नीरजा, अपनी मौसी मोहिनी को बस में बैठाकर अपने पति के साथ घर वापस लौट आई।घर पर मौसी की उपस्थिति हर जगह आभासित ह़ो रही थी ।मौसी के साथ बिताए कुछ दिन माँ की कमी को और जीवित कर गए।अनपढ़ बूढी मौसी किस तरह की गूढ बातें ,बातों बातों मे यूँही बोल जाती थी ।उम्र के अनुभवो की एक गठरी वह नीरजा के पास छोड़ गई थी।
उसने विज्ञान की कक्षा मे पढा था कि लाल लिटमस पेपर रसायन मे डालने पर उस का रंग नीला हो जाता है।आज ना जाने क्यों वह सब याद आ रहा था। यकिन हो गया कि यादों की अदृश्य पोटलियाँ खोलने पर भीतर कुछ और ही निकलेगा। 
पहली पोटली जिसपर कंजूस लिखा था ,उसके भीतर आत्म सुरक्षा के लिए धन संभालना लिखा था क्योंकि बुढापे मे पैसा होने पर ही कोई पूछता है। जिस पोटली पर बहू प्रशंसा लिखा था उसके भीतर अपनी ही बेटी को घर पर आने का प्रतिबंध लगने का भय था। जिस पोटली पर धार्मिक लिखा था उसके भीतर अकेलेपन की टीस थी।जिस पोटली पर सादा भोजन लिखा था उसके भीतर बच्चों की मनमानी व शासन लिखा था।जिस पोटली पर गहनों की लालची ,लोभी लिखा था उसके भीतर अपनी ही संचित कमाई से ,अपने मन मुताबिक बच्चों को उपहार एवं पुराने संस्कारो, यादों से जोडने का मन था।
नीरजा ने घबरा कर अदृश्य गठरी दूर फैक दी।। पर ऐसा महसूस हुआ विक्रम वेताल की कहानी की तरह वह फिर पीठ पर विराजमान हो गई है।
-०-
डा. नीना छिब्बर
जोधपुर(राजस्थान)

-०-

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सीधी रेखा (लघुकथा) - संतोष श्रीवास्तव

सीधी रेखा
(लघुकथा)
तमाम कोशिशों के बावजूद पद्मा सीधी रेखा नहीं बना पा रही थी।
" जब तक तुम्हारा रेखाओं में हाथ नहीं बैठेगा तुम्हारे लिए चित्रकारी सीखना नामुमकिन है।"
वह असहाय नजरों से कल्पना मैडम की ओर देखने लगी। तब तक कल्पना मैडम दूसरी छात्राओं के चित्रों की ओर मुड़ गई थीं। वह जल्दी-जल्दी ड्राइंग कॉपी पर चित्र बनाने की कोशिश करने लगी। चित्र बन रहे थे पर जहाँ सीधी रेखा की जरूरत थी वहाँ उसकी पेंसिल उसकी विद्रोह पर उतर आती। कल तक सभी रेखा चित्र बनाकर सबमिट करने हैं। प्रादेशिक डिप्लोमा कोर्स के इम्तहान के लिए ।मगर उसके सभी चित्र सीधी रेखा की वजह से अधूरे हैं।
छात्राओं में उसे लेकर खुसर पुसर चल रही थी ।
"पता नहीं क्या हो गया है पद्मा को इतनी अच्छी चित्रकार और सीधी रेखा पर अटक जाती है ।"
"मुझे तो सनकी नजर आती है।"
"सनकी नहीं अड़ियल ।नहीं खींचनी है मतलब नहीं खींचनी है सीधी रेखा।" कड़वी ,तीखी मुस्कुराहटें, दबी दबी हँसी उसकी ओर रेंगने लगी ।
पद्मा घबरा गई --"ममा, ममा बचाओ।" कल्पना मैडम तेजी से उसकी तरफ आईं।
" क्या हुआ पद्मा ,तुम ठीक तो हो ।"
वह पसीने पसीने हो रही थी। छात्राओं में से एक दौड़ कर पानी ले आई ।उसके चेहरे को छींटों से तरबतर किया। और जल्दी-जल्दी कॉपी से हवा करने लगी।
" तुम्हारी मामा को बुलाया है आती ही होंगी। घर जाकर आराम करो। अभी इम्तहान में पूरा महीना शेष है। सब ठीक हो जाएगा ।"
अचानक कल्पना मैडम को पद्मा के प्रति वात्सल्य और कोमलता से भरा देख छात्राएं विस्मित थीं। पदमा की ममा आधे घंटे में इंस्टीट्यूट आ गई। "आप लोगों को पदमा की वजह से जो परेशानी हुई उसके लिए माफी चाहती हूँ।अब नहीं होगा ऐसा। है न पद्मा?" कहती हुई ममा उसे घर ले गई। कल्पना मैडम छात्राओं की ओर मुड़ी "कल से कोई भी पद्मा को परेशान नहीं करेगा। "
छात्राएं उत्सुक थीं--" आखिर हुआ क्या है मैडम ?"
कल्पना मैडम ने बताया कि पदमा की माँ कह रही थी कि पद्मा के पापा जब आई सी यू में थे तो पदमा ने अपने पापा को जीवन के लिये जूझते हुए देखा। उसने स्क्रीन पर पापा के दिल की धड़कनों का उतार-चढ़ाव देखा जो धीरे-धीरे रुक कर एक सीधी रेखा में बदल गया था।
-०-
संपर्क
संतोष श्रीवास्तव
भोपाल (मध्य प्रदेश)


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ओहदा (लघुकथा) - डॉ० भावना कुँअर सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

ओहदा
(लघुकथा)
आज कॉलेज में फंक्शन था रोमी सुबह से ही तैयारी में लगी थी,खूब मेहनत की थी उसने पढाई में भी बहुत होशियार थी पढ़ लिखकर एक मुकाम हासिल करना था उसको और अपने माता-पिता का सपना साकार करना था।स्टेज पर उसका नाम बोला गया उसने एक शानदार नृत्य प्रस्तुत किया हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

सभी ने उसको बहुत बधाईयाँ दी रोमी की खुशी का ठिकाना न था,कॉलेज में उसका ये आखिरी साल था।प्रिसींपल ने भी पास आकर ढेरों बधाईयाँ दे डाली, फूली नहीं समाई थी रोमी इतने बड़े ओहदे वाले इतने प्रतिष्ठित व्यक्ति से प्रशंसा पाकर कोई भी खुश ही होता,परीक्षा भी दूर नहीं थी तो प्रिंसिपल साहब ने उसको कहा-" इतने सालों से तुम कॉलेज में हो पर पता नहीं था कि इतना अच्छा नृत्य भी करती हो,पढ़ने में भी होशियार हो,मैं चाहता हूँ कि तुम बी०एड० में भी टॉप करो, मैं तुम्हारी मदद करुँगा, तुम कल से मेरे पास पढ़ने आना"

"जी जरूर शुक्रिया"कहकर रोमी चली गई।

अगले दिन निर्धारित समय पर पहुँच गई रोमी, प्रिंसीपल ने काम दिया और खुद उठकर बाहर चले गये रोमी लिखने में मशगूल थी तभी किसी को बहुत करीब महसूस किया चौंक कर घबरा कर उठी-"सर आप यहाँ?"

इससे पहले कि कुछ कहती सुनती सर ने उसे बाँहों में कस लिया रोमी ने बहुत तेजी से उनको धक्का दिया और एक जोरदार तमाचा उनके मुँह पर रसीद कर दिया"

प्रिसींपल साहब अपना गाल सहलाते दरवाजे को घूरते रह गए।
-०-
डॉ० भावना कुँअर 
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

-०-

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Friday, 29 November 2019

मेरा भारत (हाइकु) - अब्दुल समद राही

मेरा भारत
(हाइकु)
जगत गुरू
प्राचीनकाल से है
मेरा भारत
***
सभी धर्म का
करे मान सम्मान
मेरा भारत
***
पूजा अजान
मेरे भारत मां की
आन व शान
***
मेरा भारत
स्वतंत्र देश बना
हमे है गर्व
***
नारी सम्मान
करता है करेगा
मेरा भारत
***
मान बढाते
तिरंगे का सदा ही
भारतवासी
***
सादू संतो की
कर्मस्थली रहा है
मेरा भारत
***
मेरा भारत
हंसता मुस्कुराता
गांवो में बसा
***
विकासशील
देशो में अग्रणीय
मेरा भारत
***
आंतकवाद
जड़ से मिटायेगा
मेरा भारत
***
अनेकता में
एकता की मिशाल
मेरा भारत
***
प्रार्थना करे
विश्व गुरू बनेगा
मेरा भारत
***
मेरा भारत
तिरंगे रंग सजा
प्यार बांटता
***
सुभाष जैसा
सपूत पैदा करे
मेरा भारत
***
ईद दीवाली
मिलकर मनाता
मेरा भारत
***
पता:
अब्दुल समद राही 
सोजत (राजस्थान) 
-०-

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मैं सोचती हूँ काश (कविता) - तनवीर मतीन खान

मैं सोचती हूँ काश
(कविता)
मैं नहीं सोचती कि
मेरे लिखे को कविता का नाम दो
मैं नहीं सोचूँगी कि
कवियों में मेरा नाम हो,
मेरे शब्द भले ही
महफिल की रौनक ना बने,
लेकिन मैं सोचती हूँ,
कि मेरे शब्दों की जमीन से उगे
एक ईमानदार सोच,
जो पहाड़ों का सीना चीर कर
हवाओं का रुख़ बदल दे,
मेरे शब्द निराशा के बादलों को
उम्मीद की बारिशों में बदल दें,
मैं सोचती हूँ
मेरा कोई वाक्य
किसी की सोई हुई आत्मा को फिर से जगा दे,
मैं सोचती हूँ
मेरे शब्दों में बस जाए
बाण की तासीर,
जो ढुलमुल व्यवस्था को
चीर कर निकल जाए
मैं सोचती हूँ,
नगाड़ों की तरह गूंज उठे मेरे शब्द,
ताकि अव्यवस्था की खुमारी में
सोई सियासत,
नींद से जाग जाए
मैं सोचती हूँ
काश
मेरे शब्द नगाड़ा होते।
-०-
पता: 
तनवीर मतीन खान
नागपुर (महराष्ट्र) 
-०-

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बेज़ुबान परिंदे (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

बेज़ुबान परिंदे
(कविता)

गिन रही हूँ,
आसमान में उड़ते परिंदों को,
क्यों कि गिन पा रही हूँ....।
नहीं गिन पाई ....
सांभर के तट पर,
क्षत विक्षत ,
बिखरी पड़ी,
टुकड़ों में बटी
बेज़ुबान परिंदों की लाशों को।
बिखरे पंखों को,
टुकड़ों में बँटीं हड्डियों को,
देख रही हूँ....
मर्घट बने तटों को,
ख़ामोश कलरव को,
उदास झील को,
जो कभी इन बेज़ुबान परिंदों की,
सकूँन का सबब थी,
आज इनकी मौत की गवाह है।
सुन रही हूँ.....
पुकारते बाशिंदों को,
कराहते परिंदों को,
अभी तांडव जारी है,
बेज़ुबानो की मौत का।
महसूस कर रही हूँ...
दम तोड़ते दर्द की पीड़ा को,
नमक की दलदल में फंसे परिंदे,
कराह रहे है,
उड़ने की आस में,
फड़फड़ा रहे हैं।
डर कर प्रलय के झरोखों से,
आशा के हलकोरों से,
धीरे धीरे,
टूट गई आशाएँ,
फड़फड़ाते पंख,
हो गए शान्त,
रह गए फँस कर,
नमक के दल दल में,
सो गए थक कर,
काल के बवंडर में।
मिल गए मिट्टी में,
मंज़िल तय करते करते,
छोड़ गए मरते मरते,
पंख ओर हड्डीयों के निशाँ,
कौन भर पाएगा,
इन बेज़ुबानों की जान का नुक़सान ?
तड़प तड़प कर,
शरीर को कीड़ों के हवाले कर,
मिट्टी में समा कर,
तट जो कभी इनके सकूँ का सबब थे,
गवाह बना कर ,
सो गए चिर निद्रा में।
कराह परिंदो की,
दर्द बेज़ुबानों का,
चुनावी शोर में दब जाएगा।
प्रशासन कारण ढूँढता रह जाएगा।
कुछ रेस्क्यू ऑपरेशन ,
पर गति सुस्त,
कुछ काग़ज़ी कार्यवाही,
हो गए मुक्त,
सरकारी आँकड़ो में
कुछेक पंछी मरे है,
मैंने आँखों से देखा है,
हक़ीक़त इससे परे है,
किससे करें आशा ?
घोर निराशा,
सब कह रहे,
कारण ढूँढ तो रहे है,पर
हक़ीक़त इससे परे है।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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अनजान डर (कविता) - राजीव डोगरा


अनजान डर
(कविता)
किसी के आने से पहले
किसी के जाने का
डर बना रहता है।
जीवन में एक अनजाना सा
निराशा का पल
बना रहता है।
कभी सोचता हूं,
सब कुछ समेट लू खुद में
फिर खुद को लोगो से
छुपाने का इलज़ाम बना रहता है।
रेत की तरह समय
हर पल हर जगह
हाथो से निकलता जा रहा है।
यूं लगता है,
सब कुछ पाकर भी
कुछ-कुछ खोता जा रहा हूं।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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जस खोजा तस पाईयां ... (कविता) - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'


जस खोजा तस पाईयां ... 
(कविता)
गुजर गये वो पाँच दिन
त्योहार के
अलग अलग अनुभूति
अलग अलग विचार के
पहला विचार
इकट्ठा हुआ परिवार
बच्चों की खिलखिलाहट संग
मिले बचपन के यार
रसोई में पल्टे के स्वर
साफ-सुथरा हुआ घर
दमकी नव-वसनों से नारी
सौन्दर्य से अमावस हारी
बहुत कुछ देकर गये
त्योहार अपने
लगा इसलिए
सकारात्मक थे विचार अपने
दूसरा विचार
जो सदैव ढूंढ़ता
जीत में भी हार
उसे त्योहार में
उदासी, थकान, खर्च जैसे
दूषण मिलें
वायु संग ध्वनि प्रदूषण मिलें
ये विषाद उनको
सताये जा रहा है
त्योहार तो गया
पर उनके मन का
अवसाद ना जा रहा है
कहा भी गया है -
जस खोजा, तस पाईयां
निज त्योहारां माय...
-०-
व्यग्र पाण्डे
सिटी (राजस्थान)

-०-

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सेवा (लघुकथा) - श्रीमती सरिता सुराणा

अनहोनी
(लघुकथा)
सेवा
रामलाल कुछ दिन पहले ही रोजगार की तलाश में अपनी मां के साथ शहर आया था ।वो पढ़ा - लिखा तो था नहीं इसलिए शहर में उसे चाय के
एक ठेले पर बर्तन धोने का काम ही मिल पाया। उसकी मां भी लोगों के घरों में साफ - सफाई एवं चौका - बर्तन आदि काम करने लगी । रामलाल जिस ठेले पर काम करता था उसके पास ही मिठाई और नमकीन की एक बङी दूकान थी ।उस दूकान पर पूरे दिन ग्राहकों की भीड़ लगी रहती । रामलाल देखता कि पहले लोग उसकी बंडी पर चाय पीते फिर उस दूकान पर जाकर कचौड़ी - समोसा आदि खाते । बहुत बार उसका भी मन करता कचौड़ी - समोसा खाने का परन्तु उसके पास पैसे नहीं होने के कारण वह मन मसोस कर रह जाता था।
एक दिन उसने अपनी मां को अपनी इच्छा के बारे में बताया ।तब उसकी मां ने उसे पांच रुपए दिए और कहा कि कल तूं भी एक समोसा खा लेना । रामलाल बहुत खुश हुआ और अगले दिन का इंतजार करने लगा । अगले दिन दोपहर का काम पूरा करके वह अपने मालिक से पूछकर उस दूकान पर गया ।डरते - डरते उसने दूकान के एक कर्मचारी से एक समोसा देने को कहा । पहले तो उसने सुना ही नहीं फिर जब उसने दोबारा कहा तो अखबार के कागज़ में लपेटकर एक समोसा उसे पकङा दिया और पैसे मांगे । रामलाल ने अपनी मुट्ठी में सहेजे हुए पांच रुपए उसे पकङा दिए और जाने लगा । इतने में ही उस कर्मचारी ने रामलाल को वापस बुलाया और एक रुपया और देने को कहा । रामलाल बोला - ' मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं और एक समोसे के तो पांच रुपए ही है ना ।'
'नहीं , आजकल छः रुपए हो गए हैं ।' इतना कहकर कर्मचारी ने उसके हाथ से समोसा छीन लिया और बिना पैसे लौटाए ही उसे वहां से भगा दिया । बेचारा रामलाल रोता ही रह गया , उसे ना तो समोसा मिला और ना ही पैसे ।उसकी यह दशा देखकर दूकान में लगा हुआ साइन बोर्ड हंस रहा था , जिस पर बङे - बङे अक्षरों में लिखा था - ' ग्राहक की सेवा ही हमारा प्रथम कर्तव्य ।' पता नहीं दूकानदार अपने इस ग्राहक की यह कैसी सेवा कर रहा था ?
-०-
श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
-०-

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Thursday, 28 November 2019

आँसू (लघुकथा) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

आँसू
(लघुकथा) 
परिणीता की माँ की बीमारी दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । जिस दिन डाक्टर ने उसे साफ साफ जवाब देते हुए कहा था कि यह बीमारी ठीक नहीं होगी , इलाज से तीन चार महीने मौत टल सकती हैर । सुनकर परिणीता के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी । पिता की मृत्यु के समय भी इतना दुख नहीं हुआ था उसे । माँ की हालत पर सम्वेदना देने बहुत आए, लेकिन हर किसी का मतलब छिपा था। परिणीता भी अब ना समझ नहीं रही । पड़ोस के दिवाकर चाचा पहले भी कई बार आए थे । पिताजी की मृत्यु के बाद माँ से कितने मीठे मीठे बोल रहे थे, तभी माँ ने परिणीता को बता दिया था कि ऐसे लोगों से सावधान रहना और वीर चाचा एवं कोमल चाची तो माँ की बीमारी की बात सुनते ही दौड़े आए और परिणीता से कहने लगे, "चिंता न करो बेटी, हम है न , तुम तो हमारी बेटी जैसी हो । इतने जमीन जायदाद हैं। मुसीबत में काम न आए तो किस काम की ! चाहो तो गिरवी रख सकती हो , तुम्हें देखने के लिए हम सभी है न ! वगैरह ....वगैरह ।" उसे पानी लाने के लिए भेजकर उसकी माँ से जो बात कही उसे सुनते ही उसका दिमाग गर्म हो गया और इतना लाड़ प्यार जताने के पीछे का दृश्य साफ हो गया । वो मर जाने के लिए तैयार है मगर वीर चाचा का पागल पियक्कड़ बेटे से शादी नहीं करेगी ।
परिणीता के न बताने से भी उसकी माँ जान गई थी कि वो चंद दिनों की मेहमान है । इसलिए उसे बोल रही थी ," मेरे चले जाने के बाद यह जालिम दुनिया तुझे अकेले पाकर खा जाएगी। मामा ने तेरे लिए जो लड़का देखा है, उससे शादी के लिए हाँ बोल दे ।" परिणीता मामा और माँ की बातों में सहमति दे दी । 
उस दिन सुबह सेे माँ बोल नहीं पा रही थी । डॉक्टर वक्त कम है बताकर चले गए । इष्ट कुटुम्ब सबको खबर दिया गया । शाम को माँ लम्बी लम्बी साँस ले रही थी और जोर से परिणीता के हाथ पकड़कर कुछ बताने की कोशिश कर रही थी लेकिन कुछ बोल नहीं पाई। केवल आँखों से आँसू टपक रहे थे । देखते देखते ही माँ की साँसें और आँसू दोनों ही बंद हो गए और परिणीता किसी नदी के तटबंध जैसे टूट गई ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

-०-

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पेड़ की दुर्दशा (मुक्तक गीत) - डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'


पेड़ की दुर्दशा
(मुक्तक गीत)
आज पेड़ भयभीत हुआ है।
फरसाधर से डरा हुआ है।
कब किसकी दुर्दशा हो जाए,
इसी बात से कंपा हुआ है।।

हाथ दराती रस्सी कंधे।
निर्दयता से बनकर अंधे।
काटें शाखाएं क्रूर बन,
बेच-बेचकर करते धंधे।।

विवश पेड़ अब कहां को जाएं।
कोई ना उसकी मदद को आएं।
अपनी पीड़ा खुद ही सहकर,
अश्रुधार नित बहती जाएं।।

भीषण गर्मी में शीतलता।
वायु, छांव व जल निर्मलता।
दावानल का कोप सहनकर,
फिर भी मधुर, सरस फल फलता।।

पादप जग के महाप्राण हैं।
वहीं महान ऋषि प्रचेतान हैं।
इनकी महिमा-आश्रय पाकर,
ऋषि, मुनि, कवि बन सब महान हैं।।
-०-
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'
अध्यापक एवं लेखक
उत्तराखंड, भारत।


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प्लास्टिक मुक्त हो भारत (कविता) - सुरेश शर्मा

प्लास्टिक मुक्त हो भारत
(कविता)

स्वच्छ भारत के स्वस्थ्य भारत का,
सपना साकार करने मे अब ;
कोई कसर नही छोडेंगे ।
अपने भारतवर्ष को हम ,
प्लास्टिक मुक्त करके ही छोडेंगे ।

सुन्दर और सुखद जीवन -यापन के लिए ,
प्लास्टिक के विरूद्ध जंग छेडेंगे ।
विनाशकारी प्लास्टिक को अब ,
नेस्तनाबूत करके ही हम दम लेंगे ।

उन्मुक्त गगन मे जीने की ,
सही राह अब दिखाएंगे ;
अपने स्वच्छ भारत की मिट्टी को ,
सभी को विचरण करने योग्य ;
बेखौफ हो शुद्ध हवा मे सांस ले सके,
ऐसा प्लास्टिक मुक्त भारत बनाएंगे ।

प्रण लें आज से ही हम यह,
कगज और कपड़े का थैली अपनाएंगे;
दुनिया की गंदगी से आजाद करवाकर ,
प्लास्टिक मुक्त शुद्ध देश बसाएंगे ।

नर्क से भी बदतर हो रहे जीवन को ,
स्वर्ग जैसा सुन्दर बनाएंगे ;
अपनी भावी युवा पीढ़ी को ,
प्लास्टिक रूपी लगी लत से छुटकारा दिलाकर,
पंगु होने से हम- सभी को बचाएंगे।

हाथ से हाथ कंधे से कंधा मिलाकर ,
नव भारत का निर्माण कर ;
प्लास्टिक को दूर कर हटाएंगे ।
प्रदूषण मुक्त हो भारत हमारा ,
ऐसा सुन्दर दुनिया बसाएंगे ।

स्वच्छ वातावरण से सुगंधित हो,
जन जीवन प्रफुल्लित हो ,
घर घर मे लोग आनंदित हो ;
प्लास्टिक की बदसूरत दुनिया से हटकर
सुन्दर सा बगिया खिलाएंगे ।

अपनी भारतमाता की धरती को ,
प्लास्टिक की बीमारी से बचाएंगे ।
अपने भारतवर्ष को हम सब ,
अब प्लास्टिक मुक्त करवाएंगे ।
-०-
सुरेश शर्मा
कामरूप (आसाम)
-०-


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साहित्य प्रेमी (लघुकथा) - अर्विना


साहित्य प्रेमी
(लघुकथा)
ओह हो ! मां आप यहां प्रेमचन्द कि किताबों में ही अटकी पड़ी है ।
"घर नहीं चलना है।" लाईब्रेरी बंद होने का समय हो गया ।
अरे बेटा ! पढ़ने में इतने मशगूल हो गई कि समय का कुछ पता ही नहीं चला ।
पल्लवी झट से उठ खड़ी हुई ।
चलो बेटा जरा बाजार से सब्जी भी खरिदवा देना ।
स्कूटी पर बैठो मां आगे तिराहे पर से ले लेना सब्जी , जल्दी से घर पहुंच कर एसाइनमेंट भी तैयार करना है ।
मां एक बात बताओ आपको आज के समय में
प्रेम चंद की कहानी के ये अजीबो-गरीब केरेक्टर कैसे पसंद आ जाते ?
ओ माई गाड ! प्रेमचंद जी ने कैसे कैसे कैरेक्टर लिखे हैं । गोबर .... हा हा हा और ..और झुनियां , और बेचारी निर्मला लाचारी भरा जीवन बिता देती ।
तुम नहीं समझोगी बेटा माटी की सुगन्ध आती है जब हम इन किताबों को पढ़ते हैं आंखों में एक चित्र सा खिंच जाता है । मां क्या हे ना आप भी ना थोड़ा प्रेक्टिकल होकर सोचो ?
अब पूस की रात के हीरो को ठिठुरने की क्या जरूरत थी, कहीं से लकड़ियां ले आता और घास फूस की एक झुपड़िया ही बना लेता ।
कुछ क्रियेटिव सोचता ही नहीं था उनका हीरो ।
और हां मां गबन में तो कमाल ही कर दिया हीरो ने बीवी से मना भी तो कर सकता चुड़ियों के लिए... लेकिन नहीं किया ... आखिर में फस गया बेचारा ।
माँ कभी टालस्टाय को भी पढ़ कर देखो ?
जिस देश की धरती पर पैदा नहीं हुई उस की पृष्ठभूमि से जुड़ाव महसूस नहीं होता पढ़ कर भी पराया पन सा लगता है ।
हमारे हिंदी साहित्य को पढ़ कर लगता हैं जैसे उसी युग को जी लिया हिंदी में मिठास है शब्दों का भंडार है। आज हिंदी दिवस के दिन सेल्यूट करती हूं सभी हिंदी साहित्य सेवियों को।
वाह मां ! आपके हिंदी साहित्य प्रेम को नमन है।
-०-
अर्विना
प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)
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Wednesday, 27 November 2019

दिवाली क्या गई जीना हराम कर गई (व्यंग्य) - संदीप सृजन

दिवाली क्या गई जीना हराम कर गई

(व्यंग्य)

दिवाली वैसे तो खुशी का त्योहार है, हर कोई चाहता है की उसके जीवन में दिवाली आए पर कुछ लोगो को लगता है कि भगवान करे इस बार दिवाली नहीं आए क्योंकि दिवाली आने के पहले ही उनको टेंशन शुरू हो जाती है और दिवाली के बाद तो उनका जीना हराम हो जाता है। उनने उधार किराना, राशन देने वाले को, दूध वाले को, काम वाले को, यहॉ तक की अपनी पत्नी को, बच्चों को और हर किसी को बस यही कहा है कि दिवाली बाद करेंगे। बेचारे दिवाली बाद के कामों की लिस्ट बनाने लगे तो होली आ जाए पर लिस्ट पूरी नही हो।

दिवाली के बाद क्या-क्या करना है,करने वाले कामो की श्रंखला इतनी लंबी है कि चार जन्म इस धरा पर वो ले तो भी पूरी नहीं होगी। दिवाली नहीं हुई तब तक तो एक आड़ थी की दिवाली हो जाने दो फिर करते है । न जाने कितने वायदे दिवाली की आड़ में धक रहे थे। जिनको पूरा करने का समय भगवान करे कभी न आए। पर अब तो ये दिवाली भी गई मतलब अब बहाना बनाने के लिए होली से पहले कोई त्योहार नहीं और कुछ बहाने ऐसे होते है जो केवल दिवाली से जुड़े होते है उनको होली के लिए टाल नहीं सकते। 

सालभर राशन किराना उधार देने वाला या वक्त जरुरत नगद मदद करने वाला दिवाली के बाद कुछ दिन और ज्यादा से ज्यादा देव दिवाली तक मन मार कर नही मांगेगा पर फिर तो मांगेगा ही और कोई बहाना भी उनके पास नहीं होगा। या तो करार हो गया चुकारा करो या मुंह छुपाओ और कोई इलाज नहीं। क्योंकि देने वाल जानता है कि दिवाली पर नहीं मिला तो अगली दिवाली तक इंतजार करना पड़ेगा। और इंताजार का एक पल भी दिनों के समान होता है,वे और हम सब जानते है।

उनकी सेहत की एक मात्र शुभ चिंतक याने उनकी धर्मपत्नी का सुबह घुमने जाने के लिए किया जाने वाला तगादा,जो उनके फेसबुक और व्हॉटसएप चलाते हुए दिनभर सोफे पर पड़े रहने के कारण बढ़ी तोंद को कम करने के लिए होता है,शुरु हो गया। शायद उनकी तोंद कम करने से ज्यादा घर के सुबह के काम शांति पूर्वक कर सके इसका आग्रह भी होता है सुबह घुमने के कठोर आग्रह में। ये काम बिना किसी ना नुकुर के दिवाली बाद शुरु हो गया। क्योकि दिवाली के पहले से ही रेड अलर्ट इस मामले में जारी कर दिया गया था और भाई दूज के एक दिन पहले से ही अपने पीहर वालो के सामने उनको बेइज्जत नहीं करने और उनके सम्मान के इरादे से सचेत कर दिया गया था। तथा धमकी के साथ सुबह 5 बजे का अलार्म लगा दिया जा रहा है। वे भी घरवाली की मनुहार और अपनी तोंद के सामने नत मस्तक होकर मन मार कर घुमने का संकल्प ले कर घर से निकल जाते है। कुछ घुमना, कुछ घुमाना हो जाता है सुबह-सुबह, पर नहीं मिलता है तन-मन को चैन कारण दिनभर याद आते है दिवाली बाद के इकरार और और उनके पुरे करने के लिए क्या जुगाड़ करना है। कई बार लगता है दिवाली क्या गई जीना हराम कर गई ।
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संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
उज्जैन (मध्य प्रदेश)

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