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Sunday, 26 January 2020

नन्ही कोशिश (कघुकथा) - डा. नीना छिब्बर



नन्ही कोशिश
(कघुकथा)
26 जनवरी दोपहर को विधालय से आ कर सीमा गहरी सोच मे थी। सुबह जिस तिरंगे झंडे को अपने घर, आफिस, कार, गणवेष व हाथों में ले सभी गौरान्वित हो रहे थे ,उसी को कार्यक्रम के बाद लावारिस सा कहीं भी फैंक देते हैं यूँहीं। तभी उसके मा बाबा कचरा बीनने के बाद अपनी छोटी कुटिया मे कमर सीधी कर रहे थे ताकि शाम के फेरे मे थैला भर जाए तो शाम का चूल्हा जले।
शाम को जैसे ही बाहर निकले सीमा दौड कर आई और बोली ,मुझे भी थैला दो मै भी चलूँगी।
माँ बाबा के चेहरे पर प्रश्नात्मक आश्चर्य था पर कुछ कहा नही।रास्ते भर सीमा गल़ी ,मौहल्ले, सडक, गड्ढों व पेड़ों के नीचे जहाँ कहीं भी टूटे ,मुडे झंडे देखती थैले मे डालती जाती।रास्ते में उसके कुछ विधालयी मित्र मिले पर वह हँसतें हुए अपना काम करती रही।घर लौट कर जब बाबा ने थैला देखा तो सर पकड लिया। टिन, प्लास्टिक, काँच, कागज कुछ नहीं सिर्फ झंडे, वो भी मुड़े तुड़े ।मूर्ख कहीं की।
सीमा ने अपने थैले को सीने से लगा कर कहा, बाबा इस में हमारे देश का झंडा है। इसकी जगह बहुत ऊँची है। गुरू जी ने बताया था कि इस के लिए बहुत सारे लोगो ने अपनी जाने दे दी। सुबह तो मान और कार्यक्रम के बाद लावारिस सा सड़कों को पर अपमान झेलता मैं नहीं देख सकती।तभी मैनें सोच लिया कि इन्हें पैरों तले नहीं आने दूँगी।बस उठा सभी लिए।सीमा ने कहा ,मै इन्हें बेचने नहीं दूँगी।दूसरे दिन कक्षा मे कुछ बच्चों ने मजाक उडाया पर अध्यापक जी ने जब पूरी बात जानी तो उन्होने सीमा के लिए कक्षा मेंतालियाँ बजवाई और शाबाशी दी।
यह मौलिक एवं स्व लिखित है।
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डा. नीना छिब्बर
जोधपुर(राजस्थान)

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