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Sunday, 26 January 2020

भारत माँ की जय (कविता) - विजयानंद विजय


भारत माँ की जय
(कविता)
हिमाच्छादित उत्तुंग शिखर
भारत माँ के प्रहरी हैं प्रखर।
देखी जब माँ की क्लांत दशा
पूछा, माँ क्या है तेरी व्यथा ?
क्यों हृदय तुम्हारा व्याकुल है
क्यों भरे नयन, कुछ बोलो तो !

क्या बोलूँ , मेरी आँखों से
ये अश्रु कहाँ अब थमते हैं।
ममता का समंदर सूख गया
जब देखी इनकी दानवता।

क्या सपने देखे थे मैंने
क्या आज हक़ीक़त पाती हूँँ।
बेटों को मैंने जन्म दिया
लगता है, मैं ही पापिन हूँ।

थे जिसकी माटी में खेले
बीता जिनका सारा बचपन।
उस माँ की ममता भूल गये
खो गया कहाँ, वो अपनापन ?

निज जाति-धर्म के झगड़ों में
दिन-रात ये लड़ते रहते हैं।
है मन में इनके ज़हर भरा
मानव, मानव का बना दुश्मन !

इनसे तो भले थे वे बेटे
जो मान हमारा रखते थे।
खाते थे सीने पर गोली
पर पीठ न खंजर करते थे।

घर - महल बना ऊँचे-ऊँचे
मेरी धरती को पाट दिया।
फैक्ट्रियाँ उगा लींं खेतों में
धुएँ ने हवा को लील लिया ?

है नीति कहाँ, है तंत्र कहाँ ?
पर कहते प्रजा का राज यहाँ।
सत्ता है उनका लक्ष्य यहाँ
जनता पूछे , जनतंत्र कहाँ ?

माँ - बेटी कहाँ सुरक्षित हैं
देखो, इंसानी - सड़कों पर ?
कुचली जातींं कोमल कलियाँ
है सृष्टि ही अब तो निशाने पर !

बोलो उनसे, वे मानव हैं
दानवता का वे त्याग करें।
रग - रग में भर लें मानवता
फिर बोलें भारत माँ की जय !-0-
विजयानंद विजय
बक्सर ( बिहार )

-०-
***
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