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Friday, 31 July 2020

हां मैं खुश हूं...... (आलेख) - डॉ. रेनू श्रीवास्तव

हाँ मैं खुश हूँ......
(आलेख)
               एक वायरस ने सारी दुनिया में लॉक डाउन   कर दिया है। बाजार बंद ,स्कूल-कॉलेज बंद ,ऑफिस बंद, मॉल बंद, घर से बाहर निकलने पर पाबंदी है। हर किसी की जुबां पर है कि इस वायरस  ने सब कुछ बदल दिया है। ज़िंदगी रुक सी गई है, थम सी गई है ।चारों तरफ दहशत का माहौल है। आज किसी की एक छींक  आसपास के लोगों के चेहरे का रंग बदल देती है । ये बात अलग है कि इंसान ने  रंग बदलने में गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया है। इंसान इंसान से दूरी बनाने के लिए मजबूर हो चुका है ।सामाजिक दूरियां बनाने  की बात की जा रही है ।वेसे तो इस भागती दौड़ती जिंदगी में इंसान के पास पहले भी कहाँ  एक दूसरे के लिए वक्त था। पहले भी इंसान सिर्फ अपने में खोया हुआ था। बस एक रेस में दौड़ रहा था, उसे पूरी करने के लिए। हां ये जरूर है इस वायरस ने इस रेस में ब्रेक लगा दिये हैं, दौड़ती - भागती ज़िंदगी को रोक दिया है- लॉक डाउन कर दिया है।पर मेरी जिंदगी तो आज भी वैसे ही चल रही है ।मेरी जिंदगी में आज भी कोई लॉक डाउन नहीं है ।कोरोना वायरस ने मेरी जिंदगी को नहीं बदला है । आज भी मेरी सुबह -"अरे सुनती हो,  एक कप चाय तो देना , मम्मी नाश्ता तैयार है और कितना समय लगेगा"  से शुरू होती है।  मेरे लिए अब भी घड़ी की सुईओं की रफ्तार वही है।  आज सबके लिए समय बिताना मुश्किल है पर मेरा समय तो नहीं थमा वो कब कैसे बीत जाता है ,पता ही नहीं चलता है। पतिदेव बच्चों की फरमाइश को पूरा करते हुये  मैं आज भी कोरोना वायरस की वजह से हुई लॉक डाउन का मतलब खोज रही हूं और सोच रही हूं कि सच में सब कुछ लॉक डाउन है। फिर मुझे याद आता है कि मेरी सेवाएं तो आपातकालीन सेवाओं की श्रेणी में आती हैं जो कि 24 घंटे बिना रुके हर परिस्थिति में जारी रहती है।मैं भी सब की तरह भगवान से प्रार्थना कर रही हूं कि यह वायरस जल्दी से दुनिया को छोड़ कर चला जाए ताकि मेरी कामवाली के दर्शन मुझे हो सके।  लॉक डाउन शुरू होते ही मेरे पतिदेव ने बड़े प्यार से मुझे कहा-" देखो तुमको हमेशा मुझसे शिकायत होती थी कि मैं तुम्हारे साथ समय नहीं बिताता हूं ,अब यह 21 दिन का पूरा समय तुम्हारा है।" यह सुनकर मैं खुश हो गई और भगवान को धन्यवाद दिया कि भगवान ने मेरी सुन ली। पर उसी समय कहीं से मेरे कानों में आवाज आई कि " पगली ,ये सब छलावा है इस छलावे में मत आना ,तुमको तो बस जैसे  अब तक काम करती आ रही हो, बस वैसे  ही काम करना है"। मैंने इधर उधर देखा पर कोई नहीं था ,यह मेरे अंदर की आवाज थी ,इसी के साथ मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई और अपने को धिक्कारते हुये मैंने कहा "मैं भी क्या सोचने लगती हूं सच ही तो कह रहे हैं कि जब पूरी तरह से लॉक डाउन है तो इनका सारा समय अब मेरा ही तो है।"पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा तो समझ आया कि मेरे अंदर की आवाज सही थी। लॉक डाउन का समय मेरा नहीं था, वह समय था मेरी सौतन का ,हां मेरी सौतन मोबाइल का । मेरे लिए तो  आज भी  वही स्थिति है जो लॉक डाउन से पहले थी।  मेरे लिए कुछ नहीं बदला है। पर फिर भी मैं खुश हूं , मैं खुश हूं चाय ,नाश्ता और परिवार के सदस्यों की फरमाइशों  को पूरा करके। मैं खुश हूं कि मेरा परिवार मेरे आंखों के सामने है।  मैं खुश हूं यह देखकर कि मेरे परिवार के हर सदस्य के चेहरे पर आज भी वो ही मुस्कुराहट है  जो पहले थी। मैं खुश हूं लॉक डाउन के  दौरान पति द्वारा कभी-कभी कहे गए इन शब्दों से "क्या दिन भर रसोई में काम करती रहती हो , दो घड़ी आराम भी कर लिया करो"।  मैं खुश हूं जब मेरे बच्चे मेरे गले में बाहें डालकर कहते हैं कि "मां तुम कितनी अच्छी हो "। उसी समय सारी थकान दूर हो जाती है,   जब वो अंगुली चाटते हुये कहते हैं कि " मां सब्ज़ी बहुत अच्छी बनी है ", मैं मुस्कुरा देती हूं और दुगुने उत्साह के साथ अपनी आपातकालीन सेवा में एक योद्धा की तरह लग जाती हूँ । हां मैं खुश हूं....
-०-
डॉ. रेनू श्रीवास्तव
कोटा (राजस्थान)

-०-



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आश्चर्य (लघुकथा) - सौरभ कुमार ठाकुर

आश्चर्य
(लघुकथा)
आज सुबह जितेश का फ़ोन आया; हिमांशु ने फ़ोन रिसीव किया बोला: हेल्लो, क्या हालचाल जितेश, कैसे हो ?
जितेश बोला; क्या भाई तबियत खराब है ?
"भाई जितेश तुम अब बार-बार बिमार कैसे हो जाते हो ?" हिमांशु ने पूछा !
"भाई याद है मुझे आज भी वह दिन जब मै बच्चा था,और गाँव में रहता था । कोई डर नही,कोई गम नही । जो मन में आया खाया,खेला ! कभी बिमार नही होता था । पर आज शहर में रहता हूँ,हर पंद्रह दिन पर बिमार हो जाता हूँ । आज भी वही खाना खाता हूँ,जो गाँव में खाता था । गाँव में कुएँ और चापाकल का पानी पीता था आज मिनिरल वॉटर पीता हूँ ।फिर भी मैं बिमार हो जाता हूँ ।"एक बात समझ नही आता गाँव के मुकाबले शहर में सेहत का ध्यान अच्छे से रखता हूँ, फिर भी यार हर पंद्रह-बीस दिन पर बिमार हो जाता हूँ ।जितेश बोला ।
"हिमांशु उसकी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ा रह गया...!"
और अंत में कुछ सोचकर बोला; "हाँ यार बात तो सही है ।"
-०-
सौरभ कुमार ठाकुर
(बालकवि एवं लेखक)
मुजफ्फरपुर (बिहार)
-०-


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शिक्षा, शिक्षक और शैक्षिक परिवेश (आलेख) - सूर्य प्रताप राठौर

शिक्षा, शिक्षक और शैक्षिक परिवेश
(आलेख)
            शिक्षा एक प्रगतिशील प्रक्रिया है और शिक्षा प्राप्ति के इस चक्रीय भ्रमण में प्रेरक तत्व शिक्षक ही होता है। क्योंकि ज्ञानार्जन हो या मूल्यांकन शिक्षक ही इस चक्रीय परिभ्रमण का केंद्र बिंदु होता है। जहां अधिगम में लगभग संपूर्ण क्रियाकलाप का केंद्र बिंदु स्वयं शिक्षक होता है जो ना सिर्फ आवश्यकता है बल्कि शिक्षा प्राप्ति की मूलभूत संरचना का मुख्य आधार भी है, वहीं शिक्षक ही बालक के कोमल हृदय पटल पर तमाम तरह की अपनी क्रियाकलापों के द्वारा वो धूमिल रेखाएं  भी खींचता है जिससे बालक आगे चलकर उन्हीं रेखाओं की सहायता से अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की आशाओं, इच्छाओं आकांक्षाओं के अनुरूप या यूं कहें कि अपने सर्वांगीण विकास रूपी पौधे का बीजारोपण भी करता है, जिसमें शिक्षक एक माली की भांति सदैव उसमें अपने अनुभव रूपी पोषण द्वारा उसे एक मजबूत, छायादार व फलदार वृक्ष बनाने में निरंतर अपना सार्थक योगदान भी देता है। शिक्षक द्वारा यही सार्थक प्रयास आगे चलकर बालक के ह्रदय में न सिर्फ परिवार बल्कि देश व समाज के प्रति प्रेम व त्याग का दीपक भी जलाता  है जिसे शिक्षक हमेशा प्रज्वलित रहने व उसे मोह,शोक मद व घृणा रूपी तूफानों से बचाता भी है ।शिक्षक आज भी अपने उसी कर्तव्य परायणता  का निर्वहन पूरी ईमानदारी वफादारी से करता आ रहा है और शायद आगे भी वह इसी प्रकार बिना किसी लोभ  व लालसा के करता रहेगा किंतु आज के इस दौर में शिक्षा व शिक्षक दोनों के चेहरों को आधुनिकता ने बदल कर रख दिया है आज न शिक्षा का ही रूप स्पष्ट है ना ही शिक्षक का । आज शिक्षा न  सिर्फ डिग्रियों के संग्रहण का एक मात्र साधन बन चुका है बल्कि समाज में अपने वर्चस्व व प्रतिष्ठा रूपी ध्वज को फहराने का उत्तम वह सहज संसाधन भी  बन चुका है । 
            शिक्षक अब न सिर्फ अपने कर्तव्य पथ बल्कि अपने व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खुद को साबित करने के लिए मजबूर  भी हो चुका है। उन्हें हमेशा अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा के भाव ने मजबूर होकर अपने इस प्रतिष्ठित पहचान को लगातार बनाए रखने के लिए तनाव ग्रस्त जीवन जीने पर मजबूर कर दिया  है क्योंकि जिस तरह से शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का स्थान अब इन कंप्यूटर ,मोबाइल और लैपटॉप  जैसे अत्याधुनिक उपकरणों ने ले लिया है उसे शायद ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में शायद विद्यालय जैसे परंपरागत संस्थानों के केंद्र बिंदु माने जाने वाले शिक्षक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और इसकी शुरुआत व इसकी गहरी पैठ की झलकियां अब कोरोना काल में शायद दिखने भी लगी हैं जहां शिक्षक तो ऑनलाइन अपनी सेवाएं देकर छात्र-छात्राओं के भविष्य को उज्जवल बनाने की भरसक कोशिश में लगे हैं किंतु अब बहुत सारे ऐसे संगठन भी अब ऑनलाइन पाठ्यक्रम जिसमें खासकर शिक्षकों के रिकॉर्डेड व्याख्यान को छात्र छात्राओं को उपलब्ध कराने के व्यवसाय में लग चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि निश्चय ही इस तरह के नए प्रयासों से सभी बच्चों को एक समान सीखने व आगे बढ़ने में आसानी होगी किंतु शिक्षकों के नजरिए से देखें तो यह एकतरफा निरर्थक प्रयास ही माना जाएगा क्योंकि अगर सिर्फ घर बैठे चलचित्रों के माध्यम से ही बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव होता तो शायद विद्यालय जैसे परंपरागत व प्रतिष्ठित संस्थान बहुत पहले ही विलुप्त हो चुका होता।  
            यहां यह बात समझना अति आवश्यक है कि विद्यालय न  सिर्फ शिक्षा प्रदान करने का भवन मात्र है बल्कि यह बच्चों के मानसिक पटल पर शिष्टाचार ,अनुशासन ,संयम विवेक ,धैर्य मानवता व सहनशीलता जैसे आवश्यक गुणों को अंकित करने का एक परंपरागत व अग्रणी संस्थान भी है ।शिक्षा के रूप में शिक्षक न सिर्फ उन्हें पाठ्यक्रमागत  विषयों का ज्ञान कराता है बल्कि उनमें बौद्धिक, शारीरिक व सामाजिक विकास हेतु विभिन्न प्रकार की गतिविधियों व और क्रियाकलापों से परिचित भी कराता है जो आगे चलकर उनमें सामाजिक प्रतिबद्धता, देश प्रेम व कर्तव्य परायणता की भावना को भी जागृत करता है।
            इस वैश्विक महामारी ने न सिर्फ हमें शारीरिक ,मानसिक व सामाजिक चोट पहुंचाई है बल्कि हमारे सदियों से चली आ रही कुछ संस्कृतियों व  परंपराओं का खात्मा भी करना शुरू कर दिया है। संभव है कि यह मेरी कल्पना मात्र हो किंतु अगर ऐसा ही रहा तो निश्चित तौर पर शिक्षा ,शिक्षक व शैक्षिक परिवेश के मायने भी बदल जाएंगे क्योंकि इस महामारी के दौर में न सिर्फ शिक्षा और शिक्षक बल्कि शैक्षिक परिवेश भी बदलता हुआ नजर आ रहा है बीते कुछ महीनों में जिस तरह के वातावरण में हम और हमारे भावी कर्णधार जी रहे हैं उसमें अब ना तो विद्यालय जाने का उत्साह ही है ना ही दोस्तों से मिलने की चाह। ना ही  अब अपने द्वारा किए गए घरेलू आविष्कारों को शिक्षकों के साथ साझा करने की चाह बची है, ना ही उनसे आत्मीयता के साथ विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करने की इच्छा। छात्र-छात्राओं की दैनिक क्रियाओं की शुरुआत से उनमें शिक्षा व शिक्षक के द्वारा ग्रहण किए गए संपूर्ण अधिगम की स्पष्ट झलक दिखती है ।किंतु अब यह सब स्वप्न मात्र ही प्रतीत होता है अधिगम की प्रक्रिया में जिस माहौल की आवश्यकता होती है अब अभिभावकों के लिए भी मुश्किल है उस परिवेश को नौनिहालों को उपलब्ध करा पाना। इस वैश्विक महामारी ने न सिर्फ  शिक्षक, शिक्षा व शैक्षिक परिवेश इन महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित किया है बल्कि उन को ध्वस्त करने की ओर कदम भी  बढ़ा दिया है ।
            अगर इसे मैं मात्र कल्पना समझूं  तो शायद वर्तमान  परिस्थितियों में सुधार के पश्चात  शिक्षा, शिक्षक व शैक्षिक परिवेश के बदलते मायने को हम न सिर्फ पूरी सजगता के साथ समझेंगे बल्कि उसमें सुधार हेतु कुछ आवश्यक व ठोस कदम की पहल भी कर पाएंगे जिससे कि इसमें सूक्ष्म बदलाव के बाद भी इनकी मौलिक संरचना में कोई परिवर्तन ना हो।
-०-
सूर्य प्रताप राठौर
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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संबंध (कविता) - मोहम्मद मुमताज़ हसन


संबंध
(कविता)

रिश्तों में-
आ जाता है जब
ख़ालीपन,

खड़ी होती हैं अकारण ही
सन्देह की दीवारें,

आदमी- उलझ जाता है
किसी भरमजाल में,

कमज़ोर होने लगती है
विश्वास की डोर-

ऐसे में अक्सर ही टूट जाते हैं
सम्बंध - आपस के
-0-
पता:
मोहम्मद मुमताज़ हसन
गया (बिहार)

-०-

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Thursday, 30 July 2020

तेरे मन में क्या है मौला (कविता) - ज्ञानवती सक्सेना

तेरे मन में क्या है मौला
(कविता)
नेत्र तीसरा तूने खोला
तेरे मन में क्या है मौला

तेरी इनायत समझ न पाया
औंधा रहा खुमार में मौला

तूफ़ान में फंसी कश्ती मेरी
नहीं किनारा दिखता मौला

खुद को खुदा समझ बैठा था
नादान समझ बक्क्ष दे मौला

मंदिर मस्जिद तुझको ढूंढा
झांक न पाया मन में मौला
ज्ञानवती सक्सेना

बेरहम हुआ था ज़ालिम जमाना
अब कैसे कहूँ रहम की मौला
-०-
पता : 
ज्ञानवती सक्सेना 
जयपुर (राजस्थान)
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सफलता की कुंजी (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

सफलता की कुंजी
(लघुकथा)
स्कूल में गणित की क्लास में मिश्रा सर पढा रहे हैं,सभी बच्चों बड़े ही ध्यान से उनकी बातों को सुन रहे हैं दरवाजे के पास बैठे हुए राज का ध्यान बार बार बाहर की और जा रहा है मिश्रा सर भी उसे ही देख रहे कि उसका ध्यान ब्लैकबोर्ड की और नही है।अचानक से सर राज से प्रशन पूछने लगते जिससे राज हड़बड़ा जाता है । राज आखिर बाहर ऐसा क्या है ?जो बार बार तुम बाहर देख रहे हो !!

सर जी जमीन पर बाहर एक इल्ली पड़ी है।वो किसी के भी पैरों के नीचे आ सकती है। क्यो ना हम उसे उठा ले ? मिश्रा जी के साथ साथ बाकी बच्चे भी उस इल्ली के पास जाकर देखने लगे जाते है । कुछ बच्चे उसेहाथ लगाने वाले ही होते की तभी मिश्रा सर उन्हें रोक देते है "अरे नही '" कोई भीइसे हाथ नही लगाएगा । यह तितली की इल्ली है । यह अपने खोल से आपही बाहर आएगी । क्यो सर ?? इसे तो बहुत ही तजलिफ़ हो रही होगी ,अगर हमने नही निकाला तो यह बाहर ही नही आ सकेगी। बाहर आनेमें तो इसे कितनी मुश्किल होगी। क्यो ना हम इसकी मदद कर दे राज बोला !! तुम्हारा कहना सही है ,लेकिन अगर इल्ली ने खुद बाहर आने में संघर्ष नही किया और बाहर आ गयी तो यह मर जाएगी और इसके विपरीत यदि यह बिना किसी की सहायता से बाहर आती है तो यह जी जाएगी।अपने खोल सेबाहर आने के लिए जो संघर्ष करती है उसकी वजह से तितली के पंखों को मजबूती मिलती है। इसके बाद मिश्रा सर बच्चो से बोलते है इसी तरह तुम सभी को भी जीवन मे स्वयं संघर्ष करना चाहिए,यह संघर्ष ही जीवन की सफलता की कुंजी है ।
-०-
पता:
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


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वो माँ हिन्दी भाषा है (कविता) -शिवलाल गोयल 'शिवा'

वो माँ हिन्दी भाषा है
(कविता)
बहुत कवियों ने गुणगान किया है,
इसका इतिहास और गाथाएँ बहुत पुरानी है।
जिसके शब्दों की मिठास और ताकत किनसे  अनजानी है।
जिसको सुनते ही हर इक मानुष का हृदय तृप्त हो जाता है।।
वो माँ हिन्दी भाषा है, वो माँ हिन्दी भाषा है।
सहज,सरल,सुन्दर अक्षरों का मेल है हिन्दी,
पढने, पढाने और लिखने में अनमोल है     हिन्दी,
सहानुभूति व्यवहार, नैतिक आचरण है हिन्दी,
साहित्य की मुस्कान है,... (2)

शीत है हिन्दी, ग्रीष्म है हिन्दी।
वर्षा है हिन्दी, हर इक ॠतु है हिन्दी।।
उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम
भारतवर्ष की हर इक दिशा है हिन्दी।
भारत की भाग्य रेखा है हिन्दी।
वो माँ हिन्दी भाषा है,.... (2)

नदियों की कल्ल-कल्ल सी आवाज है हिन्दी।  
समन्दर की गहराई है हिन्दी।
हिन्द हिमालय से निकलती हुई रस धार है हिन्दी।
खेतों के खलिहानों में,
केसर के फसलों में है हिन्दी।
बाग-बगीचों की हरियाली है हिन्दी।
वो माँ हिन्दी भाषा है,.....(2)

सुबह की लालिमा है हिन्दी,
रात्रि की सितारों की सिम-सिमाती चांदनी है हिन्दी,
दुपहरी की तेज धुप है हिन्दी,
शाम-संवेरा है हिन्दी।
दीपक की जग-मग जलती ज्योति है हिन्दी।
अलग-अलग वर्ग, पंथ और जाति की एकजुटता बनाए रखती है हिन्दी,
वीरों के पराक्रम, अदम्य साहस और शौर्य है हिन्दी।
हर इक भारतवासी की आन-बान-शान है हिन्दी,
वो माँ हिन्दी भाषा है,....... (2)

पुष्प की सुगंध है हिन्दी।
हिन्दुस्तान की अंगराज है हिन्दी,
ज्ञान के मुकुट की ताज है हिन्दी।
शब्दों और संस्कृति का सिगार है हिन्दी।
भारत माता के आत्म-गौरव है हिन्दी।
संस्कृत से उदय हुई ये हिन्दी,
देवनागरी लिपि में
भारत की मान-सम्मान है हिन्दी।
मेरी कलम है हिन्दी, मेरा साहित्य है हिन्दी।
मेरा गुमान है हिन्दी, मेरी पहचान है हिन्दी।।
वो माँ हिन्दी भाषा है,....... (2)

बढते तकनिकी युग के दौर में,
क्युं है ये दुर्दशा हिन्दी भाषा की,
लोग आ रहें हैं अंग्रेजी के लुभाने में।
भारतीयों की जुबां पर होतें हुए भी हिन्दी,
क्यों अपना रहें हैं अंग्रेजी को।
मुझे है शिकवा ये,.....
हिन्दी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा क्यों नहीं।
हम सब मिलकर के करेंगे हिन्दी का उत्थान...।।
-०-
शिवलाल गोयल 'शिवा'
बाड़मेर (राजस्थान)

-०-



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युग-वेदना का उपचार (कविता) - अशोक गोयल

अशोक गोयल
(कविता)
रोग -ग्रसित मानवता को है  आज जरुरत प्यार की, 
तन से  ज्यादा  आवश्यकता    है मन के उपचार की l
          तन -मन दोनों स्वच्छ -स्वस्थ हों
          तभी    बात   बन    सकती   है,
          अंतर   की   प्रफुल्ल्ता   ही   तो
          अधरों   पर  आ   खिलती     है,

मुख -मुद्रा   कैसे प्रसन्न   होगी, मन  के बीमार की l  
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की l

          ज्ञान  और  विज्ञान   साथ   चल
          समाधान        दे     सकते     हैं,
          तन -मन  दोनों  स्वस्थ रह सकें,
          वह     विधान    दे    सकते   हैं,

आवश्यकता आज मनुज को दोनों को आधार की l
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की l

          विकृत   चिंतन   के  तनाव  से
          आज   मनुजता      पीड़ित  है
          अंदर   से, बाहर     से    सारा
          वातावरण        प्रदूषित      है,

लानी होगी क्रांति आचरण की, व्यवहार -विचार की l
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की l

          आज   आस्थाहीन  मनुज  को
          रस       संजीवन         चाहिए,
          ज्ञान   और   विज्ञान    साधकों
          का           संवेदन       चाहिए,

दोनों मिलकर करें साधना मानव के उद्धार   की l
रोग -ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की l
          सदविचार  -सत्क्रम     विश्व   में
          स्वर्ग -सृष्टि     कर    सकते    हैं,
          सद्भावना    के बादल    जग में,
          स्नेह -वृष्टि     कर   सकते     हैं ,

बुद्धि-भावना मिलकर करते सृष्टि, सुखी संसार की l
रोग -ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की l
-०-
अशोक गोयल
हापुड़ (उत्तर प्रदेश)

-०-



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Wednesday, 29 July 2020

बेटियाँ (कविता) - लक्ष्मी बाकेलाल यादव

बेटियाँ
(कविता)
कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...

फर्क सिर्फ इतना है कि
वह अपनी खुशी की खातिर
दूसरों को गम देना नहीं जानती

बचपन से पराया धन होने की
सिख उन्हें है दी जाती
फिर भी अपनों को
उसी शिद्दत से हैं वह चाहती

कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...

पापा की दुलारी बिटिया
पल भर में कब हो जाती इतनी बड़ी
परिवार पर जो आए कोई मुसिबत
पाते हैं हम उन्हें सबसे आगे खड़ी

लाखों पाबंदियों से है उसकी जिंदगी घिरी
हर सपनों की कुर्बानी देकर
बनती है वह सबके लिए भली

त्याग- ममता की मूरत
पता नहीं कब वह बन जाती
अपने ख्वाबों की बली चढ़ाकर
रांझे की हीर वे कहलातीं

कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...

अपनी इक भूल के लिए
बरसों सहना पड़ता है
खुद को साबित करते-करते
सबकुछ गवाँना पड़ता है

फिर भी हर हाल में चेहरे से
मुस्कान अलग ना वो कर पाती
कौन कहता है बेटियाँ
जिंदगी जीना नहीं जानती...।

***
पता:
लक्ष्मी बाकेलाल यादव
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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करो हम सभी पर उपकार (कविता) - रोशन कुमार झा

करो हम सभी पर उपकार

(कविता)
हटा दो कोरोना की दीवार  ,
कौन , आप ही नन्द, वसुदेव के लाल !
कोरोना से दूर करके दिखा दो अपनी चमत्कार ,
करो कान्हा फिर से एक बार हम मानव पर उपकार !!

तुम हो प्रेमियों के प्यार ,
कहां छिपे हो, गंगा की यमुना धार !
भेज रहा हूं, मीडिया आपकी वर्णन करेंगे अख़बार ,
तो आओ कृष्ण हम इंतजार करते-करते देख
रहे हैं कदम की डाल !

नहीं आओगे तो गिर जायेगा सरकार ,
कैसे गिरने दोगे ,प्रभु ये तो तुम्हीं बनाये हो संसार !
पता है हम मानव प्रकृति से किये है खिलवाड़ ,
आओ कान्हा तुम न करोगे तो कौन करेगा देखभाल !

अभी घर-घर का है एक ही सवाल ,
कोरोना.. कोरोना.. तो कोरोना से प्रभु करो उद्धार !
सुन लो प्रभु हम रोशन का पुकार ,
कोरोना से बचाकर करो कान्हा हम सब पर उपकार !
-०-
रोशन कुमार झा
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)

-०-



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बाजारों की सांसे फूल रही है (व्यंग्य आलेख) - संदीप सृजन

बाजारों की सांसे फूल रही है
(व्यंग्य आलेख)
कोरोना के चलते भारत में लॉकडाउन के लगभग दो माह पूरे होने को है। देश संकट के दौर से गुज़र रहा है। दुनिया के विकासशील कहे जाने वाले देशों में सबसे आगे रहने वाले भारत की अर्थव्यवस्था लॉकडाउन से पूरी तरह से चरमरा गई है। अभी कोई उपाय भी नहीं दिखता कि जल्दी से ये व्यवस्था सुधर जाए। क्योंकि वर्तमान की परिस्थिति में इस महामारी का एकमात्र इलाज है, और वह है स्वयं को इसके प्रकोप से बचाना होगा। जब तक लॉक डाउन है तब तक तो हम घरों में सुरक्षित हैं। पर लॉकडाउन के बाद जीवन पिंजरे से छूटे पंछी की तरह उड़ान भरने लगेगा। जो कि जनजीवन के लिए घातक सिद्द होगा। लेकिन करे भी तो क्या, पहली प्राथमिकता जान बचाना है, तो जान तो बचा ली। लेकिन जान आगे तभी बची रहेगी जब खाना मिलेगा। और खाना तब मिलेगा जब व्यापार की गाड़ी पटरी पर आएगी।

इस महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को हिला कर रख दिया है। व्यापार जगत में चारों तरफ संकट दिखाई दे रहा है। देश में अनिवार्य चीजों का उत्पादन हो रहा है वह भी जान पर खेलकर। देश की रौनक माने जाने वाला खुदरा व्यवसाय पूरी तरह घुटने टेक चुका है। व्यापारियों के पास अपने नियमित कर्मचारियों और मजदूरों को देने के लिए पैसा नहीं है। छोटे दुकानदार जो गली-मोहल्लों में छोटी सी दुकान लगा कर अपने परिवार का भरणपोषण करते थे, उनके घरों में अब राशन खत्म होने को है। बड़े शोरुम और मॉल में लाखों की पूंजी लगाकर बैठे दुकानदारों को घर बैठे ये चिंता खाए जा रही है कि दुकान का किराया, कर्मचारियों का वेतन, और लोन का ब्याज किस तरह दिया जाएगा।

लॉकडाउन जिस समय शुरु हुआ वह भारत में शादी ब्याह और पारिवारिक उत्सवों का दौर था। आगे अच्छे व्यापार की संभावनाओं को लेकर देशभर के कपड़ा, बर्तन, इलेक्ट्रानिक, फर्नीचर, ज्वेलरी, कास्मेटीक व्यापारी बड़ा स्टॉक कर चुके थे। अब उस स्टॉक को देख कर कईयों की सांसे फूल रही है। क्योकि एक महिने बाद बरसात की शुरुआत हो जाएगी। बरसात के दिनों में इस तरह के व्यापार की संभावना नहीं होती है। रेस्टोरेंट, होटल के व्यवसाय की तो दिवाली से पहले शुरुआत होने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। और अन्य खाने-पीने के समान बेचने वाले, आईसक्रीम, कोल्ड्रिंक्स, आदी के ठेले लगाकर सीजन का व्यापार करने वालों के सारे अरमान धरे के धरे ही रह गये है।

बीस लाख करोड़ का सरकारी पैकेज कुछ लोगों को थोड़ी राहत दे सकता है। लेकिन खुदरा व्यवसायियों और छोटे दुकानदारों को इससे क्या लाभ होगा? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। इस सरकारी पैकेज के बहाने सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ और ‘लोकल के लिए वोकल’ जैसी कुछ योजनाओं को जनता के समाने रखा है जो भविष्य में देश के लिए कारगर सिद्ध होगी। इसमे कोई दो मत नहीं है। ये योजनाएँ देश की अर्थव्यवस्था को आने वाले समय में मजबूत करेगी। पर वर्तमान में व्यवसायियों की समस्या इससे हल होगी, ऐसा लगता नहीं है। सरकारी नफे-नुकसान के आंकड़े अर्थशास्त्रीयों और राजनेताओं के भले ही समझ में आ जाए लेकिन भूखे पेट बैठे मजदूर, और सैकड़ों लोगों के जीवन की धूरी बनकर रहने वाले छोटे व्यापारी को न कभी समझ आए है और न आएंगे। उनका उद्देश्य घर चलाना है। और घर चलेगा तो ही देश चलेगा। आदमी अपनी जरुरत के लिए कमाता भी है और टेक्स देता है। इसलिए आज करोना की उलझन के बीच जरुरत है व्यापार को पटरी पर लाने की।

मल्टीनेशन कंपानियों ने तो वर्क फ्रॉम होम का फार्मुला अपनाकर अपनी कार्य व्यवस्था और अपने कर्मचारियों को संभाल लिया। उनको कोई फर्क नहीं पड़ना है। बंद कमरे में वैसे भी उनके काम होते थे, अब घरों में हो रहे है। पर उद्योग और व्यापार जगत जो सीधे-सीधे बाजार को प्रभावित करता है, या कहे बाजार का आधार है वह पुरी तरह से वेंटिलेटर पर आने की तैयारी में है। बगैर कमाए कब तक उद्योगपति अपने कर्मचारी और मजदूरों को तनख्वाह दे पाएंगे। बगैर कमाए कब तक छोटे व्यवसायी और मजदूर अपने परिवार को खाना खिला पाएंगे। दो महिने से घर बैठे मन मार कर खाते रहे पर अब पूरे देश के व्यापारियों को व्यापार चाहिए। पूरे देश में व्यापारी एक ही बात करते नजर आते है। अब लॉकडॉउन में उन्हें राहत मिलना चाहिए।

वैसे भी छोटे व्यवसायी कोई बड़ा राहत पैकेज मिले इसकी इच्छा भी नहीं रखते। कारण राहत पाने के लिए जितनी खानापूर्ति करनी और जितने कागज काले करने होते है। उतने समय में वे अपने आज और कल के खाने की व्यवस्था कर सकते है। सरकारी राहत केवल ऊंट के मुंह में जीरे के समान है न कि उम्र भर की रोजी-रोटी, वैसे भी छोटे व्यवसायी अपनी किस्मत रोज अपने हाथों से लिखना जानते है। रोज कमा कर खाना उनको आता है। बस वे चाहते है कि जिन क्षेत्रों में कोरोना का प्रभाव कम है उन क्षेत्रों में सरकार अब लॉकडाउन के तरीके में बदलाव करे। कुछ जगह बदलाव किए गये भी है। जो कारगर लग रहे है। कुछ शहरों में दुकानों को खोलने के अलग-अलग समय निर्धारित किए गये है। ताकि जरुरत का सामान लेने व्यक्ति उसी समय घर से निकले और सामान लेकर व्यर्थ बाजार घुमने की बजाए सीधे घर जाए। इस व्यवस्था से व्यापारियों को, स्थाई कर्मचारियों को, बाजार में हम्माली करने वालों को, घरेलू उद्योग करने वालों को, उत्पाद को बाजार तक पहुँचाने वालों को, खुली मजदूरी करने वालों को, ट्रांसपोर्ट से जुड़े लोगों को राहत मिलेगी। वर्तमान युग में जीवन भी तभी रहता है जब आजीविका चालु रहे। कमाई होगी तो ही लोग खाएंगे, जरुरत की चीजें खरीदेंगे और तभी धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था भी गति पकडेगी।
वैज्ञानिको के अनुसार कोरोना को लेकर जितना एहतियात देश की जनता आज बरत रही है। उतना ही आने वाले समय में भी बरतना होगा। तो फिर क्यों न इस एहतियात भरे भविष्य को स्वीकार करके सरकार देश को पटरी पर लाने की पहल करे। बाजार खोलने के लिए चाहे ऑड-इवन पालिसी हो या टाईम मैनेज पालिसी। दोनों में से एक व्यवस्था को क्षेत्र की व्यवस्था के हिसाब से लागु करना ही होगा । बाजार खोलने की शुरुआत इसी तरह होगी तो ही भीड़ भी नियंत्रीत होगी। धीरे धीरे पुरा बाजार खुल सकेगा और पैसे की आवक जावक बाजार में होगी।

बगैर पैसे के आज के युग में जीवन की कल्पना संभव नहीं है। और पैसा तभी हाथ में आता है जब काम चले, व्यापार चले, सरकार भी तभी चलती है जब टेक्स आता है। और टेक्स के लिए व्यापार का चलना जरुरी है। लॉकडाउन के कारण छोटे- बड़े सभी उद्योग,धंधे बंद है। कोरोना न फैले इसके लिए ये जरुरी भी था। लेकिन अब उद्योग धंधे करने वालों की सांसें फूलने लगी है। घर में बैठ कर अब खर्चा नहीं चलाया जा सकता है। अब जरुरत इस बात की है कि लॉकडाउन से कैसे बाहर निकले। जानकारों का मानना है कि महामारी पर विजय तो तभी मिलेगी जब इसका कोई इलाज या वैक्सीन बन कर आ जाए। तब तक लॉकडाउन तो नहीं रखा जा सकता है? हॉ व्यापारिक स्थल के तौर-तरीकों में बदलाव ला कर काफी हद तक इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। और देश बचाया जा सकता है।
-०-
संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
उज्जैन (मध्य प्रदेश)
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एक न्याय व्यवस्था (आलेख) - प्रशान्त 'प्रभंजन'

एक न्याय व्यवस्था
(आलोचना - आलेख)
           आलोचना की प्रकृति ही ऐसी है कि यह किसी को रास नहीं आती। इसे अक्सर बुराई करने वाला- 'निंदक' या फिर नकारात्मक छवि के रूप में- 'हतोत्साहित करने वाला' के रूप में देखा जाता है। हम मानव की भी प्रकृति अजीब है कि कोई प्रशंसा करे तो फूले नहीं समाते हैं और कमी निकाले तो फट पड़ते हैं। आलोचना यहीं मार खा जाती है क्योंकि यह न तो प्रशस्ति-पत्र है जो किसी की प्रशंसा करे और न ही निंदा का दस्तावेज जो किसी की बुराई करे।
           आलोचना इन दोनों के बीच का वह मार्ग है जो तिक्ष्ण विवेक व तर्क द्वारा ज्ञान व अनुभव के माध्यम से सृजनात्मकता की कसौटी पर किसी रचना या कला को कसती है। साधारण-सी बात हमारे समझ में क्यों नहीं आती कि जब हम किसी भौतिक वस्तु जो वास्तव में क्षणभंगुर है को खरीदते हैं तो उसके शुद्धता का परीक्षण करते हैं, कई बार उलट-पलट कर देखते हैं तो फिर शाश्वत सत्य को उद्घाटित करने वाली, समाज का दर्पण कहलाने वाली, राजनीतिक के आगे चलने वाली सृजनात्मकता को बिना कसौटी पर कसे कैसे स्वीकार कर लिया जाय। सृजन के क्षेत्र में आलोचक ही वह जौहरी है जो हीरे जैसी कालजयी रचनाओं के मूल को समाज के सामने लाता है जिसके आलोक में भावी पीढ़ी अपना मार्ग खोजती है।
           अक्सर लोग आलोचना को 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा' जैसे दो कौड़ी के मुहावरे द्वारा तौलने की कोशिश करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि आलोचक सर्वप्रथम एक सजग पाठक होता है जो सिर्फ राय व्यक्त नहीं करता वरन् रचनाकार का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वह आलोचना करते समय तटस्थ रहते हुए रचना व रचनाकार के अंत:स्थल तक उतरता है बिल्कुल एक गोताखोर की तरह व्यापक अध्ययन करके सागर की तलहटी में, तब जाकर कुछ काम की चीजें प्राप्त होती है जो एक व्यापक सामाजिक सांस्कृतिक हित धारण किए हुए होती है।
            एक सजग रचनाकार को भी अतिरिक्त सजगता की जरूरत होती है और यह कर्तव्य आलोचना बखूबी निभाती है। दुर्भाग्य से आलोचना स्वार्थपरक होकर रचना व रचनाकार को उठाने व गिराने का साधन-मात्र बनकर रह गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि जैसे सामाजिक-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए न्याय-प्रणाली है, वैसे ही सृजन के क्षेत्र में आलोचना एक न्याय-व्यवस्था है। यह रूढ़ी, पूर्वाग्रह, प्रभाव, हित-अहित व व्यक्तिगत मनोभावों से मुक्त एक तटस्थ भाव है, जो व्यक्तिनिष्ट न होकर वस्तुनिष्ठ, संस्थात्मक न होकर समितात्मक क्रिया है जिसकी परिणति है- सृजन के शाश्वत सत्य को समाज के सामने प्रत्यक्ष करना।
             प्रेमचंद ने 'हंस' पत्रिका में कहानीकार जैनेन्द्र और भुवनेश्वर पर लिखा था, "जैनेन्द्र में यदि दुरूहता और भुवनेश्वर में कटुता कम हो जाय तो इनका भविष्य उज्जवल है" आज भी इन दोनों कथाकारों पर ये आरोप लगाए जाते हैं क्योंकि जैनेन्द्र में न दुरूहता कम हुई, न भुवनेश्वर में कटुता। यदि ये प्रेमचंद के सुझाव स्वीकार कर लिए होते तो कम-से-कम आज ये आरोप इन पर नहीं लगते।
           वाह-वाह, अति सुन्दर, अत्यन्त मार्मिक, शानदार, बहुत खूब, क्या लिखा है आपने या लाइक मिलना रचना की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं है........ यह सिर्फ और सिर्फ पसंद और नापसंद तक सीमित है, जो कभी रचना को मिलता है तो कभी रचनाकार को। कभी पढ़े तो कभी बिना पढ़े भी। आलोचना इन सबसे परे है....... मुक्ति की राह दिखाता....... राग-द्वेष से मुक्त।                      
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पता:
प्रशान्त 'प्रभंजन'
कुशीनगर (उत्तरप्रदेश)

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Tuesday, 28 July 2020

यादें (कविता) - श्रीमती रमा भाटी

यादें
(कविता)
क्या है यादें
किसी अपने के साथ
बिताए वो प्यारे पल,
यां देखे थे वो सपने
जो कभी पूरे ना हुए।
क्या है यादें।

खुशियों भरे वो लम्हे
प्यार भरे वो पल,
जी लिया तो प्यारा साथ
खो दिया तो हैं यादें।
क्या है यादें।

वो तुम्हारी सादगी
वो जुस्तजू तुम्हारी,
वो उदासी भरा चेहरा
ना खुलकर जिए कभी।
क्या है यादें।

उम्र के इस पड़ाव में
याद आती है वो मीठी
कड़वी यादें,
वो एक दूसरे का रूठना मनाना।
क्या है यादें।

कभी तुम्हारा देर से घर आना
और मेरा झूठा गुस्सा दिखाना,
बुढ़ापे में गर साथ
होता हमारा।
क्या हैं यादें।

क्या होता है अपनों
को खोने का दर्द,
अश्क हैं की याद
में उनकी थमते नहीं।
क्या है यादें।
हां यही है यादें
हां यही है यादें।
-०-
पता:
श्रीमती रमा भाटी 
जयपुर (राजस्थान)

-०-


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भाईचारा (कविता) - लीना खेरिया


भाईचारा
(कविता)
ये हरी वसुंधरा सबकी ही है
है ये नील गगन सबका प्रिये
ये सुरभित सुमन सबके ही हैं
है पल्लवित चमन सबका प्रिये..

कभी किसी में भेदभाव नही करते
ये ऊँचे पर्वत ये नदिया ये सागर सब
ईश्वर की बनाई अद्वितिय प्रकृति ने
लोगों में फर्क किया है कब..

हे मानव तू कुछ सीख प्रकृति से
शॉंत चित हो कर विचार तो कर
वासुदेव कुटुम्बकम की प्रवृति को
तू ह्रदय में अपने उजागर तो कर

ऋषि मुनियों ने भी यही सिखाया
है ये विश्व विशाल परिवार समान
जो कोई भी इस धरा पर जन्मा
तू उसका अपना भाई बंद ही मान..
-०-
पता:
लीना खेरिया
अहमदाबाद (गुजरात)
-०-


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वेदना गान (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

वेदना गान
(कविता) 
असहाय जीव हो गया अमानवीय कृत्यों का शिकार,
ऐसी 'असभ्य- साक्षरता' पर है मुझको धिक्कार।

तनिक हुआ न हृदय में कम्पन,नयनों में अश्रु नहीं आये,
ऐसे पाषाण हृदय वाले आखिर क्यों मानव जन्म हैं पाये,
क्या दोष था उस हथिनी का, जो भूख से थी अति व्याकुल?
  उदर की भूख तृप्ति का उसे फल प्राप्त हुआ बेकार,
 इंसानों पर भरोसा करके काया हुई जल- जल कर अंगार।

गर्भ में ही जीवित जल गया नन्हा हाथी शावक,
अंतर्मन को झुलसाए प्रतिपल दुःख की पावक,
यदि तुम किसी भूखे को भोजन नहीं दे सकते हो,
तो फल रूपी मृत्यु देने का भी नहीं तुम्हें अधिकार।
तुम्हारे अपराधों की सजा तुम्हें मिलेगी बारम्बार।

मनुज नहीं तुम दैत्य हो, न कहना स्वयं को मानव,
तुम्हारे क्रूर कृत्यों ने बना दिया तुम्हें दानव,
 हृदय प्रस्तर हो चुका तुम्हारा,जम गया है रक्तप्रवाह?
जो कर्ण असमर्थ रहे सुनने में, एक जीव का चीत्कार,
क्या तुम्हारे अंतस में ग्लानि का, होता नहीं हाहाकार?

हम जी रहे हैं अब कैसे निकृष्ट समाज में?
दृग झुक रहे हैं पीड़ा, संताप और लाज में,
 उस निरीह प्राणी की मूक पीड़ा आकाश से बरसेगी,
बनकर प्राकृतिक आपदाओं का असीमित भंडार।
 लम्हों की इस खता को सदियों भोगेगा संसार।
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)


-०-


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प्रकाशक / अप्रकशक (व्यंग्य) - मधुकांत

प्रकाशक / अप्रकशक
(व्यंग्य)
रमेश --दिवाकर तुम प्रकाशक संघ की बैठक में इतनी जल्दी कैसे आ गए और अकेले कैंटीन में बैठे क्या कर रहे हो ? दिवाकर --रमेश जी यही लालच रहता है आप जैसे पुराने  प्रकाशको के साथ बैठकर कुछ सीख ले ली जाए ! रमेश ---तो बताओ तुम्हारा प्रकाशन कैसा चल रहा है?,,,, देखो एक बार बेरे को बुलाकर कुछ चाय पानी का ऑर्डर दे दो ,,,,,आज तो खाना भी नसीब नहीं हुआ । दिवाकर --रमेश जी मैं तो बाहर का कुछ खाता नहीं, आप अपनी पसंद का आदेश दे दे !
रमेश ने उंगली से बेरे को बुलाया ,दो चाय और एक प्लेट पकोड़े का आदेश दे दिया ।
--हां ,अब बताओ अपने प्रकाशन के बारे में ,,,।
दिवाकर-- क्या बताएं 2 वर्ष पूर्व 10 पुस्तकें प्रकाशित की थी! 20-20 पुस्तकें लेखकों को भेज दी ,शेष घर पर पड़ी है ! रमेश --दिवाकर यह बताओ तुम प्रकाशक क्यों बने ? दिवाकर --आप से क्या पर्दा ,कोई हमारी पुस्तकें प्रकाशित नहीं कर रहा था  तो दो पुस्तके अपनी तथा 8 पुस्तकें अपने साहित्यिक मित्रों की प्रकाशित कर ली।  रमेश-- देखो भैया, अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं !सारा माल कल ही मेरी दुकान पर भिजवा दो जो तेरी कोस्ट आई है हमसे ले लेना ,,,,परंतु पेमेंट 6 महीने बाद में दूंगा ।
दिवाकर --मुझे क्या लाभ होगा?
रमेश --अरे तेरा गोदाम खाली नहीं हो जाएगा, एक दिन कबाड़ी को बुलाकर उठवाएगा उससे तो अच्छा है । दिवाकर --रमेश जी एक बात बताओ भविष्य में इस व्यवसाय की स्थिति क्या रहेगी ? रमेश --हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहेंगे !सरकार कहां चाहती है पुस्तके छपे ,पुस्तकालय खुले ,,,सब कुछ ई बुक्स पर पढ़ना -पढ़ाना चल पड़ा है । दिवाकर --यह बात तो सत्य है रमेश जी लेकिन अब  ओखल में सिर दे दिया है तो कोई रास्ता समझाओ। रमेश --रास्ता बहुत आसान है भैया फेसबुक पर अपने प्रकाशन की योजना बताओ  ,मक्खी की तरह लेखक भिन्न-भिन्नाते हुए आने लगेंगे ।पुस्तक के हिसाब से लेखक से खर्चा मांग लो ,कम से कम आधा
एडवांस ।कुछ पुस्तकें अपने पास  रख लो ,सरकार की खरीद-फरोख्त निकलती रहती है कुछ कमीशन सरकार लेती है बाकी अधिकारी के मुंह पर मारो ।शेष जितना बचा सकते हो उसे अपनी जेब में डालो।  दिवाकर --भाई साहब ,ये सब बातें मुझे कुछ हजम नहीं हो रही । रमेश --भैया कहीं तुम लेखक -वेखक तो नहीं रहे? दिवाकर --सब कुछ आपको बताया तो है ,अपनी दो पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए तो मैं प्रकाशक बना ! रमेश --सब समझ गए, अब आपको साहित्य का तोड़ समझा देता हूं यदि साहित्यकार कहलाना है तो इस प्रकाशन को ताला लगा दो और प्रकाशक बनना है तो ये भावनाएं ,संवेदनाएं बंद करके घौर व्यापारी बन जाओ । दिवाकर --और मेरा लाखों रुपया,,,,,,।
   रमेश -- चिंता मत करो अपने प्रकाशन को हमारी सिस्टर कंसर्न बना दो !आपका शौक पूरा होता रहेगा और हमारा धंधा !
कटु सत्य होते हुए भी दिवाकर बेहद असहज हो गया ।चाय पकोड़े लगभग समाप्त होने को थे ।वह तेजी से उठा!-- रमेश जी आप चाय समाप्त करें मैं फ्रेश होकर आता हूं !
रमेश जी पकौड़ो का आनंद ले रहे थे और दिवाकर बाथरूम की ओर न जाकर तेजी से मेट्रो पकड़ने के लिए निकल पड़ा !
-०-
पता:
मधुकांत
रोहतक (हरियाणा)
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Monday, 27 July 2020

प्रेम-गीत मेरा तुम (कविता) - रवीन्द्र मारोठी 'रवि'


प्रेम-गीत मेरा तुम
(कविता)
प्रेम-गीत मेरा तुम प्रिये ।
अमर-गीत मेरा तुम प्रिये।।
कैसी बिछड़न जीवन की ये ।
सांसो की तुम डोर प्रिये ।।
            लगता न था,कभी जीवन में ।
            ऐसा भी सुखद दिन आयेगा ।।
            मैं रूठता सा  रहूंगा  तुमसे ।
            और तुम मनाने आओगे प्रिये ।।
प्रातः-गीत मेरा तुम प्रिये ।
सांझ-गीत मेरा तुम प्रिये ।।
कैसी दिल्लगी जीवन से ये ।
यादों की तुम मुस्कान प्रिये ।।
             लगता न था, कभी राहों में ।
             ऐसी मुलाकात भी तुमसे होगी ।।ं
             मैं देखता रहूंगा हर पल तुमको ।
             और तुम मुस्कराती रहोगी प्रिये ।।
महफिल-गीत मेरा तुम प्रिये ।
विरक्त-गीत मेरा तुम प्रिये ।।
कैसी तड़फ  मुहब्बत से ये ।
हृदय की तुम धड़कन प्रिये ।।
             लगता न था, कभी बातों में ।
             इस कदर भी मुहब्बत होगी ।।
             मै खोता रहूंगा हर पल तुममें ।
             और तुम मुझमें समाती रहोगी प्रिये।।
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पता:
रवीन्द्र मारोठी 'रवि'
बागेश्वर (उत्तराखण्ड)

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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ