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Saturday, 31 October 2020

तीर है (ग़ज़ल) - डा. जियाउर रहमान जाफरी

  

तीर है
(ग़ज़ल)
इस तरफ  भी तीर है 
मसअला गंभीर     है 

मुश्किलें जितनी  रहें 
हाथ में  तदबीर     है 

तोडना ही है       उसे 
हाँ मगर  ज़ंजीर      है 

मुस्कुराहट  होंठ     पर 
और  दिल  में पीर    है 

हर  ग़ज़ल रोती     रही 
क्या  यही तदबीर    है 

शेर अब  उससे    बढ़े 
कौन रांझा    हीर    है 

मसअले सब   हल हुए 
आज  पानी   थीर    है 
-0-
-डा जियाउर रहमान जाफरी ©®
नालंदा (बिहार)



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इस बार दीवाली पर (लघुकथा) - टीना रावल

 

 इस बार दीवाली पर
(लघुकथा)
"अंजली! आ गई तू,  कैसी है ? और घर में सब ठीक तो है " मेधा ने पॉर्च के बेंच पर आकर बैठी अंजलि से पूछा। 
"हां आंटी जी...... सब ठीक है। पर अब केवल छह घर ही हैं काम के,  तो तंगी रहती ही है।"  अंजलि ने उदासी से कहा। 
अंजलि मेधा के घर डेढ़ साल से काम कर रही थी,  जरूरत पड़ने पर उसके चार साल के बेटे को कभी संभाल भी लेती थी। पर लॉक डाउन होने के बाद मेधा को उसे काम पर नहीं आने को कहना पड़ा। 
"अंजलि,  मैं सुरक्षा कारणों से तुम्हें अभी काम पर नहीं बुला सकती,  मैं स्वयं कर रही हूं । बस,  दीवाली पर तुम तीनों भाई बहन के लिए नए कपड़े और मिठाई के लिए पैसे देने ही बुलाया था।
"लेकिन आंटी जी, आपने लॉकडाउन में भी दो महीने की तनख्वाह बिना काम की दी थी । अब यह और....  अच्छा नहीं लग रहा। बहुत सारे लोगों ने तो सफाई में निकले पुराने कपड़े और बेकार सामान दिए हैं जिसे हमारे एक कमरे के घर में रखने की जगह भी नहीं है।" अंजलि ने दुख से कहा।
"कोई बात नहीं बेटा,  मुश्किल वक्त है सावधानी से निकल ही जाएगा,  यह लो पकड़ो।  मेधा ने प्यार से बेग पकड़ा दिया। 
इस बार सबके लिए सोचना है किसी के भी घर सूनी या फीकी  दिवाली न मने।
-०-
पता:
टीना रावल
जयपुर (राजस्थान)

 

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'यह इंदु अमृत रस टपकाये' (कविता) - रजनीश मिश्र 'दीपक'

 

'यह इंदु अमृत रस टपकाये'
(कविता)

शरद पूर्णिमा का यह इंदू
अमृत रस टपकाये।
लक्ष्मी जन्म दिवस का यह दिन
अनुपम खुशियाँ लाये।
माँ लक्ष्मी की कृपा से
मधुर मिलन हो हर घर आंगन,
माता शिक्षा स्वास्थ्य और सम्पन्नता
घर घर में बरसायें।
भव्य दिव्य हो हर वन उपवन
प्रेम से महके हर तन मन,
खिल कर हर प्राणी का मन
स्वर गीत सुमधुर गुनगुनायें।
न हो गृह कलेश कहीं भी
न मन में रहे किसी के कटुता,
गृहणियां प्रेम का मधुरस मिलाकर
घर घर खीर बनायें।
फिर छत पर रख
इन्दु रश्मियों का अमृत रस भर इसमें,
अपने घर के हर प्रिय जन को
यह पियूष प्रसाद खिलायें।
दीपक करते आपसे प्रार्थना
हे जगतपाल लक्ष्मीनारायण,
आपकी कृपा से यह स्वर्ग
इस वसुंधर पर उतर आये। ।
-०-

पता 

रजनीश मिश्र 'दीपक'
शाहजहांपुर (उत्तरप्रदेश)

-०-



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स्पर्श (कविता) - सुशांत सुप्रिय

स्पर्श
(कविता)
धूल भरी पुरानी किताब के
उस पन्ने में
बरसों की गहरी नींद सोया
एक नायक जाग जाता है
जब एक बच्चे की मासूम उँगलियाँ
लाइब्रेरी में खोलती हैं वह पन्ना
जहाँ एक पीला पड़ चुका
बुक-मार्क पड़ा था

उस नाज़ुक स्पर्श के मद्धिम उजाले में
बरसों से रुकी हुई एक अधूरी कहानी
फिर चल निकलती है
पूरी होने के लिए

पृष्ठों की दुनिया के सभी
अपनी देह पर उग आए
खर-पतवार हटा कर

जैसे किसी भोले-भाले स्पर्श से
मुक्त हो कर उड़ने के लिए
फिर से जाग जाते हैं
पत्थर बन गए सभी शापित देव-दूत
जैसे जाग जाती है
हर कथा की अहिल्या
अपने राम का स्पर्श पा कर
-०-
पता:
सुशांत सुप्रिय
ग़ाज़ियाबाद (उत्तरप्रदेश)

-०-



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Friday, 30 October 2020

रिश्वत का देवता (लघुकथा) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'

 

रिश्वत का देवता
(लघुकथा)
रेल अपनी पूर्ण रफ्तार में थी | कढाके की ठंड में पाखाने के नजदीक ठीक दरवाजे के सामने जमीन पर फटे-पुराने चीथड़ों में एक निर्धन किसान बैठा हुआ था | वह ठंड से कांप रहा था और बार-बार अपनी जेब को टटोल रहा था | वह यह प्रयास निरन्तर पिछले दस-पन्द्रह मिनट से कर रहा था |

दस - पन्द्रह मिनट पहले सब ठीक-ठाक था | एक कालेकोट वाला रिश्वत का देवता आया और उसने उस निर्धन किसान का टिकट चेक किया | टिकट सामान्य श्रेणी का था और बेचारा निर्धन किसान आरक्षित श्रेणी में घुस गया था | बस रिश्वत के देवता को मिल गया लूट का मंत्र... पूरे दो सौ रुपये लूटकर ले गया और ऊपर से तमाम भद्दी-भद्दी गालियाँ उपहार में दे गया |

उस निर्धन किसान की आँखों से एक प्रलयकारी ज्वालामुखी फूट रहा था | पता नहीं उस ज्वालामुखी की महाअग्नि से वो रिश्वत का देवता भस्म होगा कि बच जायेगा... यह तो परमेश्वर ही जाने |
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
फतेहाबाद-आगरा. 
-०-

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बीज धर्म (कविता) - गोरक्ष जाधव

 


बीज धर्म
(कविता) 
मैं बीज धर्म नहीं भुला,
मैं मिट्टी की गंध नहीं भूला,
पसीने की सौगंध नहीं भूला,
सृजन का अनुबंध नहीं भूला,
मैं बीज धर्म नहीं भूला।

धूप और छाँव से,
तन के अपार घाव से,
दान का वचन नहीं भूला,
मैं बीज धर्म नहीं भूला।

प्यास की आस नहीं भूला,
भूख की पुकार नहीं भूला,
मेरा सहयोग का हस्त नहीं  डोला।
मैं बीज धर्म नहीं  भूला।

खाक में मिल कर भी
अंकुर बन उठा हूँ मैं,
आसमाँ छूने की तड़प नहीं भूला,
मैं बीज धर्म नहीं भूला।
-०-
गोरक्ष जाधव 
मंगळवेढा (महाराष्ट्र)

-०-




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माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान (कविता) - डाॅ० सिकन्दर लाल


माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान
(कविता)

माँ हमारी, माँ सरस्वती समान।
क्योंकि हमारी माँ, हमारा रखती हैं नित ध्यान।
इन्हीं की कृपा से व्यक्ति होता है महान्।
इन्होंने ही हमें संसार किया है प्रदान।
तभी तो हमें महाविद्यालय रूपी पावन
धाम में सेवा करने का मिला है काम।
अतएव हमारी माँ हैं विदुषी महान्।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।1।।

माँ हमारी अपनी क्षमतानुसार सबका रखती हैं नित ध्यान।
तभी हम मानते हैं अपनी माँ को माँ सरस्वती समान।
जैसे परमात्मा रखते हैं हम सबका नित ध्यान।
वैसे ही हमारी माँ हमें नित ध्यानपूर्वक सद्मार्ग करती हैं प्रदान।
अतएव माँ हमारी परमात्मा के समान।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।2।।

माँ ने हमको जीवन देकर , हमें धन्य कर दिया।
माँ को पाकर मानो हमने परमात्मा को पा लिया।
परमात्मा को पाकर हमने संसार के किसी भी मानव एवं
जीव-जन्तु से घृणा करना बन्द कर दिया, क्योंकि परमात्मा
ने ही सबको बनाकर, ईवर का रूप ले लिया।
संसार के किसी भी मानव एवं जीव-जन्तु से उसके
रूप, रंग, क्षेत्र, धर्म आदि से घृणा करने के बजाय हमने
अपनी क्षमतानुसार उनकी सेवा-सुरक्षा में जीवन को समर्पित कर दिया।
ऐसा करके मानो हमने परमानन्द को पा लिया।
परमानन्द को प्राप्त कर मानों हमने माँ सरस्वती का प्राप्त कर लिया|
माँ सरस्वती को पाने का सरल उपाय बतायीं हैं, हमारी माँ महान्।
इसलिए माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।3।।

माँ ने हमको संसार रूपी धाम में विराजमान् मानव एवं
जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों की दर्शन करवायीं।
तभी तो हमने संसार रूपी पावन धाम एवं
जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों का वास्तविक अर्थ समझ पाया।
इसीलिए हम अपनी क्षमतानुसार
इन मूर्तियों की सेवा-सुरक्षा में लगे रहते हैं।
सेवा-सुरक्षा में लगे रहने हेतु हम अपनी क्षमतानुसार लिखते-पढ़ते तथा
सत्कर्म करने की भरपूर कोशिश करते रहते हैं।
इसी सत्कर्म का परिणाम है कि हमने स्वचरित
छः किताब एवं 76 शोधपत्र को प्रकााित करवाया।
जो किताबें क्रमशः- वाल्मीकि रामायण एवं
तुबन्ध का तुलनात्मक - अध्ययन, स्पृय-अस्पृय कौन?,
ज्ञानदायिनी, गाँधी सर्वोदय दर्शन की वर्तमान समय में
उपयोगिता , ज्ञानानन्द एवं परमानन्द आदि ग्रन्थ कहलाया।
इन छः किताबों को लिखने में हमारी माँ एवं
माँ सरस्वती ने हमको दिया भरपूर ज्ञान।
इसलिए हम मानते हैं अपनी माँ को माँ सरस्वती समान।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।4।।

माँ हमारी जीवों पर दया करने की, सद्ज्ञान करती रहती हैं प्रदान।
इसलिए हम इस सद्ज्ञान को अपने अन्तरात्मा में करते हैं ध्यान।
अन्तर्ध्यान करके जान-बूझकर संसार के जीवों को न मारने का माँ से लेना हैं ज्ञान।
तभी हम इस संसार में बन पायेंगे एक अच्छे इंसान।
माँ की कृपा से ही हम जीव-जन्तु की सेवा- सुरक्षा हेतु बन पायेंगे एक इंसान महान्।
एक सच्चा इंसान बनाकर माँ ने जीव-जन्तु की
सेवा-सुरक्षा में लगाने का किया पुनीत काम।
इसलिए माँ हमारी हैं माँ सरस्वती समान।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।5।।

हमारी माँ हमें सात्विक ज्ञान देती हैं।
हमारी भावनाओं को भाप लेती हैं।
तभी तो माँ ने हमको जीवन दिया।
माँ ने हमको जीवन देकर मानों हमको सब कुछ दे दिया।
सब कुछ पाकर हम सब में देखने लगे ईवर को एक समान।
इसलिए अपने सदाचरण से सदा खुश रहती हैं, हमारी माँ महान्।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।6।।

पाकर हम अपनी माँ को सदा खुश रहते हैं।
खुश रहकर हम माँ के चरणों में सदा शीश झुकाया करते हैं।
शीश झुकाकर इनके अच्छे चिन्तन को
हम अपनी अन्तरात्मा में भरते हैं।
अन्तरात्मा में भरकर इनके बताये सद्मार्ग पर चलते रहते हैं।
जिससे हम सबका होता है कल्याण।
माँ हमारी हैं, माँ सरस्वती समान।।7।।

माँ ने हमें सद्ज्ञान दिया अरु सद्मार्ग दिखाया।
जिससे हमने ज्ञान की देवी माँ
सरस्वती के चरणों में आश्रय पाया।
माँ सरस्वती के चरणों को हमने अपने हृदय में बसाया।
तभी तो हमने, मानव एवं जीव-जन्तु की भलाई हेतु इस कविता को लिख पाया।
अतएव माँ हमारी हैं, हमारे लिए कृपानिधान।
माँ हमारी हैं , माँ सरस्वती समान।।8।।

-०-
पता:
डाॅ० सिकन्दर लाल
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

-०-
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Thursday, 29 October 2020

जैसा अन्न... वैसा मन (लघुकथा) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

जैसा अन्न... वैसा मन
(लघुकथा)
शर्मा जी भले ही शहर में आकर बस गए हैं परंतु पास के गाँव में उनकी खेती आज भी होती है। उन्हीं के गाँव का ननकू बहुत ही ईमानदार और मेहनती मजदूर है। वही उनकी खेती संभालता है। ननकू का एक लड़का है, दीनू।अभी उसकी उम्र होगी करीब 15-16 साल की। अक्सर वह शर्मा जी के पास आता रहता  है। उसके आने पर शर्मा जी कभी उसे सब्जी  लेने तो कभी नल, टेलीफोन, बिजली के बिल जमा कराने भेजते हैं । वह भी उसके पिता की तरह ईमानदार है। खर्च होने के बाद जितने रुपए बचते हैं, वह उन्हें लौटा देता है।शर्मा जी, ननकू की तरह दीनू की ईमानदारी पर भी गर्व करते हैं।
एक दिन शर्मा जी के एक मित्र उनसे कहने लगे, 'कोई ईमानदार लड़का हो तो बताओ, हमारे साहब को उनके घर में काम करने के लिए चाहिए।
उन्होंने दीनू के बारे में बतलाया और उनके यहां काम करने भेज दिया।
एक दिन दीनू , शर्माजी के पास आया तो उसने बतलाया, साहब अकेले रहते हैं। मैं ही उनके घर का पूरा काम करता हूं। खाना बनाता हूं, झाड़ू-पोंछा, बरतन धो-मांजना, बाजार से सामान लाना ऐसे सभी काम करता हूं। वहीं रहता हूं। वहीं खाना खाता हूं।उनकी मेम साहब दूसरे शहर में नौकरी करती हैं।
         फिर एक दिन जब दीनू आया तो उसने बतलाया - 'साहब की ऊपरी कमायी बहुत है। घर पर बहुत लोग आते हैं और रुपए दे जाते हैं।' शर्मा जी ने उसे गौर से देखा। उसके नये कपड़े, नये जूते देखकर पूछा- ' ये साहब ने ही... '
' हाँ, उन्होंने ही दिलाए हैं'  शर्मा जी की बात पूरी होने के पहले ही वह बोला।
शर्मा जी, उसे दो सौ रुपए देते हुए बोले, 'बाइक में पेट्रोल डलवा लाओ। ' वह बाइक लेकर गया तो बहुत देर बाद लौटा। आते ही कहने लगा- ' घर चला गया था। बहुत दिनों से नहीं गया था।'
       एक दिन जब वह आया तो शर्मा जी ने उसे बिजली का बिल जमा करने भेजा। वापिस आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ, उसने बाकी के रुपए नहीं लौटाए। उससे बाकी के रुपए मांगे तो वह बोला-  ' मेरे दोस्त मिल गए थे, उन्हें चाय पिलाने में खर्च हो गए।'
शर्मा जी ने महसूस किया। वह बदलने लगा है और उसकी ईमानदारी कहीं खोती जा रही है।
        एक दिन उनका वही मित्र घबराते हुए आया और पूछा - ' दीनू ! यहां आपके पास  आया था क्या? मेरे साहब ढूँढ़ रहे हैं। दो दिन से वह उनके यहां नहीं जा रहा है।उन्होंने, उसे बैंक में रुपए जमा करने दिए थे वे भी उसने जमा नहीं किए। मैंने आपको ईमानदार लड़के का बोला था। वह तो बेईमान निकला।
 शर्मा जी स्तब्ध रह गए।
'जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन'... उन्हें बचपन में पढ़ी एक कहानी की सीख याद आ गई।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

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रमाबाई (कहानी) - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव


रमाबाई
(कहानी)

      रमाबाई गुजर गईं । इस समाचार को जिसने भी सुना वह ही आश्चर्य में पड़ जाता ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है भला......अभी चार-पांच दिन पहिले तक स्कूल में काम कर रही थी वह बीमार भी नहीं थी फिर अचानक कैसे गुजर गई । सभी का आश्चर्य उस समय और बढ़ गया जब यह ज्ञात हुआ कि रमाबाई की मौत तो चार दिन पहिले ही हो चुकी थी पर किसी को उनकी मृत्यु होने का आभास तक नहीं हुंआ । चार दिन बाद जब उनका कमरा खोला गया तो पीछे का सारा आंगन बदबू से भरा चुका था । लोग अपनी नाक पर रूमाल रखकर कमरे के अंदर गए जहां रमाबाई का निश्चेत शरीर धरती पर पड़ा था । सारे लेाग अचंभित थे । रमाबाई के दोनो बेटे भी तो वहीं रहते हैं फिर किसी को कैसे पता नहीं चला कि रमाबाई की मृत्यु हो गई है ‘‘जरूर दाल में कुछ काला है’’ । संदेह का बीजारोपण हो चुका था । मुझे भी रमाबाई के देहवसान का समाचार मिला । मैं भगा-भगा उसके घर चला गया था और बहुत देर तक उस दिवंगत रमाबाई को देखता रहा था । रमाबाई का संघर्ष मेरे सामने चलचित्र की भांति जीवंत दिखाई देने लगा था ।
         रमाबाई अपने पति की मृत्यु के बाद स्कूल में अनुकंपा नियुक्ति पर काम कर रही थी । उसके पति का अवसान भी ऐसे ही अचानक हो गया था कम उम्र में ही, वो उसी स्कूल में क्लर्क थे । जब पति की मौत हुई उस समय रमाबाई तीन छोटी-छोटी संतानों की माॅ बन चुकी थी । रमाबाई ने अपने पति के जीवित रहते तक कभी घर की दहलीज के बाहर कदम तक नहीं रखा था । निहायत सभ्रांत परिवार और सीधीसादी महिला । बच्चों को पालना था इसलिए काम तो करना ही था । पर ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए उसे चपरासी की नौकरी ही मिली । । सिर पर पल्ला और चेहरे पर उदासी के भाव लिए वह स्कूल में अपनी नौकरी पर पहुंची थी । तीन-तीन बच्चों का भार उसके ऊपर था । बडे और छोटे बेटे को वो स्कूल में छोड़ आती और बिटिया को अपने कांधे पर लेकर स्कूल आ जाती । बिटिया खेलती रहती और वह दिन भर भागदौड़ करती रहती । स्कूल बंद होने के बाद वह अपने बच्चों को साथ लेकर घर लौटती और उनके खाने आदि का इंतजाम करती । उसके व्यवहार के चलते स्कूल का सारा स्टाफ उससे प्रसन्न रहता और उसकी मदद भी करता रहता । देखते ही देखते उसके बच्चे बड़े होते चले गए । एक दिन उसने बिटिया का भी ब्याह रचा दिया । लड़के वाले गरीब थे पर सीधे सादे थे सो उसे बिटिया का ब्याह का करने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई । उसके दोनों बेटो ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी । छोटा बेटा पंडिताई करने लगा और एक दिन अपना सामान समेटकर इंदौर चला गया और बड़ा बेटा मां के साथ ही बना रहा । वह कोई काम नहीं करता था दिन भर आवारगर्दी करता रहता । रमाबाई अक्सर उसे लेकर चितित हो जाया करती । कहने को तो रमाबई के बहुत सारे रिश्तेदार थे पर उसकी मदद करने कोई सामने नहीं आते थे । कम तनखाह में वह अपनी घर गृहस्थी को ढो रही थी । इन परिस्थितियों में बड़े बेटे की आवारागर्दी ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया था ।
                 स्कूल के पास में ही मेरी दुकान भी थी । वह दिन में एकाध बार दुकान पर अवश्य आती और कुछ कहना हो तो मेरे खाली होने का इंतजार करती नहीं तो ‘‘राम राम’’ करके चली जाती । वह एक सीधी सादी सभ्रान्त महिला थी । यदि उसके पति जिन्दा रहते तो वह कभी घर के बाहर कदम तक न निकालती पर उसका दुर्भाग्य था कि उसे उसके पति की मौत के बाद नौकरी करनी पड़ी । उस समय उसके तीनों बच्चे छोटे थे । दो लड़के और एक लड़की । उसके सामने अपने दुधमुंह बच्चों को पढ़ाने का बोझ था । सुबह जल्दी से उठकर घर के सारे काम निपटाकर वह अपने बच्चों को स्कूल छोडती और स्वंय काम पर आ जाती । सिर पर पल्ला और चेहरे पर उदास मुस्कान । दिन भर वह भाग भाग कर काम करती और शाम को अपने घर लौट जाती । बच्चे धीरे धीरे बड़े होने लगे । रमाबाई बच्चें पर ज्यादा ध्यान दे नहीं पाई थी इस कारण बच्चे ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए । छोटा बेटा तो पंडिताई करने लगा और इंदौर में जाकर रहने लगा बड़ा बेटा आवारागर्दी करने लगा ।
‘‘सर मैं सोच रही थी जीपीएफ के कुछ पैसे निकालकर बड़े बेटे का एक ट्रेक्टर दिलवा दूॅ’’
‘‘क्यों.......और जानती हो ट्रेक्टर कितने का आयेगा’’
‘‘बेटा कह रहा था कि बैंक से कर्जा में ट्रेक्टर मिल जाता है’’
‘‘मिल तो जाता है पर इतने सारे पैसे लौटाओगी कैसे ।’’
‘‘वो बेटा जिद्द कर रहा है......कि ट्रेक्टर लेना है.......’’
‘‘उसके जिद्द करन से क्या......तुम खुद भी सोच समझकर निर्णय लो....’’
‘‘उसने दो दिन से खाना नहीं खाया कह रहा था कि जब तक ट्रेक्टर लेकर नहीं दोगी तब तक खाना नहीं खाऊंगा........उसके चक्क्र में मैंने भी दो दिन से खाना नहीं खाया’’
मैं चुप रहा मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं ।
‘‘अच्छा सर जी मैं जाती हूॅ........बैंक जाकर पता करती हूॅ’’
वह चली गई ।
 कुछ महिनों तक रमाबाई ने अपने घर के संबंध में कोई बात नहीं की थी । मुझे लगने लगा था कि अब बड़े बेटे का काम भी जम गया होगा और रमाबाई का भार भी हल्का हो गया हो गया । एक दिन रमाबाई को उसका बेटा मोटरसाईकिल से छोड़ने आया
‘‘सर जी बेटे को मोटरसाईकिल दिला दी है उसे काम के लिये यहां वहां जाना होता था और मुझे भी यहां स्कूल आना पड़ता है...वह कह रहा था कि रोज मुझे स्कूल छोड़ दिया करेगा........कंपनी वालों ने ही फायनेंस कर दी है ।’’
मैं कुछ नहीं बोला ।
कुछ दिन तक मैं रमाबाई को रोज मोटरसाईकिल पर आते और जाते हुए देखता रहा ।
         गर्मियों के अवकाश के कारण रमाबाई से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई थी । रमाबाई के प्रति मेरी हमदर्दी बढ़ती जा रही थी । उसके चेहरे की उदासी और उसका संघर्ष मुझे हर पल उसकी मदद करने के लिये प्रेरित करता था पर वह मुझसे कोई मदद कभी नहीं लेती थी । केवल चर्चा भर करती थी और मेरी सलाह को भी नजर अंदाज कर देती थी । इसके बाबजूद मुझे उसे सलाह देते रहना अच्छा लगता था । मैं उसमें नारी सशक्तिकरण की संभावानयें खोजने का प्रयास करता था । वैसे तो रमाबाई जितना अपनी नौकरी में कमाती है उससे वह पूर्ण संतुष्टी के साथ जीवन यापन कर सकती थी पर उसका बेटा उसका संघर्ष बढ़ा रहा था, स्ववाभाविक रूप से उसका स्नेह अपने बेटे के प्रति अधिक था इसलिए वह बेटे की जिद्द के आगे झाुक जाती और न चाहते हुए भी अथवा मेरी सलाह को भी नजरअंदाज करते हुए वह अपने भविष्य को दांव पर लगा देती । मेरा उससे कोई नाता नहीं था और न ही उसके पति से मेरे कोई प्रगाढ़ संबंध थे फिर भी एक मातृत्व अटैचमेन्ट मैं महसूस करता था । गर्मियों के अवकाश के बाद वह स्कूल आई थी पर मुझसे मिली नहीं थी । हो सकता है मेरे पास आने का समय न मिला हो पर कुछ दिन बाद जब वह मिली तो उसके उदास चेहरे को मैंने पढ़ लिया था
‘‘रमाबाई कुछ उदास हो’’
‘‘कुछ नहीं सर....’’ उसने पल्लू से अपनी आंखें पौंछी ।
‘‘कुछ तो बात है.....पर रहने दो तुम बताना नहीं चाहतीं...’’
वह खामोश रही । मैंपे भी बात को जाने का प्रयास नहीं किया ।
            रमाबाई अब मोटरसाईकिल से नहीं आ-जा रही थी । वह लगभग भागते हुए सी स्कूल आती और वैसे ही भागते हुए सी वापिस लौटती । मैं उसे आते जाते देखता रहता ।
एक दिन रमाबाई ने अपने बेटे की शादी का कार्ड मुझे दिया ।
‘‘पर अभी तो भांवर ही नहीं है ’’
‘‘है न भड़रिया नमें कीं......’’
‘‘ओह......हां........तो क्या शादी जल्दी बन गई...’’
‘‘वो मेरा बेटा मान ही नहीं रहा है........तो करना पड़ रही है’’
‘‘अच्छा उसकी पंसद की हो रही है’’
‘‘जी.......’’
उसने और कोई बात नहीं की वह चली गई ।
मैं बहुत देर तक उसके जीवन में घट रहे घटनाक्रम को समझने का प्रयास करता रहा ।
मैंने महससू किया था कि वह अपने बेटे का शादी कार्ड देते समय भी प्रसन्न नहीं थी । रमाबाई जब अपनी बिटिया की शादी का कार्ड देने आई थी तब उसके चेहरे पर जो प्रसन्नता थी वह अभी नदारत थी । तब उसने जिद्द करके बोला था ‘‘सर आप जैसे बड़े लोग मेरी बेटी के ब्याह में आयेगें तो हमें अच्छा लगेगा....आप आईयेगा जरूर’’ । उसके इस स्नेहामंत्रण के कारण मैं उसकी बिटिया की शादी में गया भी था पर इस बार उसका आमंत्रण वैसा नहीं था । केवल औपचारिकता सा लग रहा था । हो सकता है वह बेटे की शादी की जिद्द के कारण उदास हो पर लड़की तो उसके समाज की ही है तो उसे उदास नहीं होना चाहिए । ऐसा मैने सोचा ।
               रमाबाई के बेटे की शादी में मैं गया था पर रमाबाई नहीं मिली थी । मैं करीब एकाध घंटे वहां रहा । रमाबाई को छोटा बेटा जो इंदौर में रहता था वह भी शादी में आया हुआ था । चारों ओर उल्लास का माहौल था । सभी नाच गा रहे थे । उनके हंसते हुए चेहरों में मैं रमाबाई का उदास चेहरा देख रहा था । शादी के सम्पन्न हो जाने के एकाध सप्ताह बाद रमाबाई स्कूल आई थी । उसके तन पर नई पीली साड़ी थी और चेहेर पर मुस्कान । उसका बड़ा बेटा उसे छोड़ने आया था ।
‘‘सर भगवान जी की कृपा से शादी अच्छी हो गई’’
रमाबाई की बातों में उत्साह था । मुझे अच्छा लगा ।
‘‘बहू कैसी है’’
‘‘बहुत अच्छी सर जी.....मेरा बहुत ध्यान रखती है.......’’
‘‘चलो अच्छा हुआ रमाबाई.....अब तुमको कुछ आराम मिलेगा...’’
रमाबाई के दिन अच्छे कटते दिखाई देने लगे थे । वह दिनभर स्कूल में खुशी-खुशी काम करती और उसका बेटा शाम को उसे लेने आता वह उसके साथ घर लौट जाती । उसके चेहरे पर रंगत नजर आने लगी थी । रमाबाई काम के प्रति बहुत ईमानदार थी । वह पूरे समर्पण के साथ काम करती । स्कूल की हर कक्षा की सफाई करती बाहर मैदान में झाड़ू लगाती और स्कूल के स्टाफ का ध्यान रखती । स्कूल के सारे स्टाफ की वह चहेती थी । दोपहर में जब स्कूल की आधी छुट्टी होती तब वह स्टाफ को चाय-पिलाकर खाना का डिब्बा खोलकर जल्दी-जल्दी खाना खाती । कई बार वह काम के चलते खाना खा भी नहीं पाती पर फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान पर बनी रहती । बेटे की शादी के बाद उसकी बहु नये डिब्बे में स्वादिष्ट खाना रखने लगी थह जिसे वह बहुत चाव से खाती । रमाबाई दिन भर अपनी बहु की तारीफ करती रहती । सभी को संतुष्टि हो रही थी कि रमाबाई अब सुख से दिन व्यतीत कर रही है । बेचारी ने अपने जीवन में बहुत कष्ट सहन किए हैं ।
            रमाबाई देा दिन बाद स्कूल आई थी । उसके माथे पर पट्टी बंधी थी । चेहरा कुम्हलाया हुआ था । वैसे तो उसने स्टाफ को यही बताया था कि वह गिर गई थी जिसके कारण उसके माथे पर चोट लग गई है । पर मेरे सामने वह फफक कर रो पड़ी थी
‘‘सर जी.....मेरी कोई गल्ती नहीं थी.....अब बड़ा बेटा का काम अच्छा चल रहा है तो मैंने इस बार की तनख्वाह में से कुछ रूपये छोटे बेटे को भेज दिए थे .......बताओ सर जी यह गलत था क्या.........बड़े बेटे ने जब मेरी तनख्वाह में कम रूपये देखे तो नाराज हो गया...और डांटने लगा.......फिर उसने मुझे........’’ वह सुंबक पड़ी ।
मुझे भी आश्चर्य हुआ । कोई बेटा भला अपनी माॅ को मार भी सकता है । मैं चुप रहा ।
‘‘बहु ने भी मुझे बुरा भला कहा.......’’ ।
उसकी आंखों से लगतार आंसू बह रहे थे ।
‘‘तुमने कुछ खाया........’’
‘‘नहीं.....सर...कल शााम से जब मैं स्कूल से घर लौटी तबसे कुछ नहीं खाया’’
‘‘बहु ने भी नहीं कहा खाने को...’’
‘‘नहीं....वह भी मुझे गालियां ही दे रही थी...’’ ।
रमाबाई की सिसकी की आवाज अब चारो ओर फैलती जा रही थी ।
‘‘तुम कुछ खाओगी......मैं बुलवा दूं......’’
‘‘नहीं...सर....अब तो जीने की इच्छा ही खत्म हो गई है.......’’
‘‘कुछ नाश्ता ही कर लो......मैं बुलावाये देता हूॅ’’
‘‘नहीं सर.....पैसे के लिए......मेरे बेटे ने मुझे मारा सर.....’’ वह फिर सुबक उठी ।
मैं मौन रहा आया ।
‘‘छोटे बेटे का भी तो अधिकार है....मैंने उसको कुछ पैसे भेज भी दिए तो क्या गलत किया मैंने....यदि सर में कमाती नहीं तो मेरा बेटा तो मुझे घर से ही निकाल देता......मैंने कर्जा लेकर उसे ट्रेक्टर दिलवाया.......मोटरसाईकिल दिलवाई.....पूरी तनख्वाह उसे देती रही.......इतना सब करने के बाद भी.......उसने मुझे मारा सर.....गिलास फेंक कर मारा मेरे माथे पर चोट लगी और खून बहता रहा उसे फिर भी दया नहीं आई......बहु ने भी गालियां दी सर......’’ । उसके रोने की आवाज उसके हलक के नीचे ही गुम होती जा रही थी । मैं उसकी वेदना को महसूस कर रहा था । उसका दर्द चोट लगने का नहीं था उसका दर्द तो उसके बेटे और बहु के व्यवहार का ज्यादा था । मैं चाहकर भी उनके पारिवारिक मामले में हस्तक्षेप करना नहीं चाह रहा था । रमाबाई बहुत देर तक मेेरे पास आंसू बहाती रही थी और फिर अपना चेहरा पांैछकर स्कूल चली गई । वह शायद किसी को भी अपने बेटे की करतूत बताना नहीं चाह रही थी । मैं जानता था कि रमाबाई जब अपनी पूरी वेदना शब्दों में और आंसूओं में बहा देगी तब उसका मन कुछ हल्का हो जायेगा । मेरे बहुत कहने के बाबजूद भी उसने कुछ नहीं खाया था । वह चली गई पर मैं बहुत देर तक उसकी वेदना को महसूस करता रहा था ।
               रमाबाई ने एक अलग कमरा किराये पर ले लिया था और नये सिरे से अपने आपको सम्हालने की असफल चेष्टा कर रही थी । गाहे बेगाहे वह मेरे पास आकर अपना दर्द बयां कर जाती । मैं केवल उसका हौसला ही बढ़ा सकता था जो मैं कर भी रहा था । वह स्वाभिमानी थी इसलिये वह किसी किस्म की मदद नहीं लेती थी ।
‘‘सर जी....आपके पास आकर मैं रो लेती हूॅ.....मेरा दर्द हल्का हो जाता है...मैं किसी और के सामने रो भी तो नहीं सकती......आपका यह अहसान ही बहुत है मेरे लिए...’’ ।
रमाबाई अक्सर ऐसा कह कर मुझे चुप कर देती । एक दिन उसने बताया था कि उसका छोटा बेटा इंदौर से वापिस यहीं आने वाला है ।
‘‘कह रहा था कि माॅ आप परेशानी की हालत में हो ऐसे में मेरा मन भी बाहर नहीं लग रहा है’’
‘‘चलो अच्छा है......वह आ जायेगा तो आपको कुछ मदद मिलेगी’’ । मैंने उससे बोला ।
‘‘हां सर......इसलिए मैंने भी उसे आने का बोल दिया है ।
              रमाबाई का छोटा बेटा वापिस आ गया था और माॅ के साथ ही किराये के मकान में रहने लगा था । रमाबाई ने उधारी करके एक दुकान उसके लिए खुलवा दी थी । छोटा बेटा उसे स्कूल छोड़ने आता और लेने भी आता । रमाबाई अपने पुराने दर्द की टीस लिये नई जिन्दगी में रमती जा रही थी । बड़े बेटे को सन्तान प्राप्ति हुई । रमाबाई बहुत प्रसन्न थी । उसका बहुत मन कर रहा था कि अपने पोते को देखने जाये पर वह नहीं जा पाई पर छोटा बेटा तो बड़ें बेटे से मिलता रहता था सो वह ही गया और आकर अपनी माॅ को सब कुछ बताया साथ ही यह भी बताया कि बड़ा बेटा पैतृक मकान में उसका हिस्सा देने तैयार है ।
                    छोटे बेटे के पास कुछ जमा-पूंजी थी और कुछ रमाबाई ने अपने जीपीएफ फंड से निकाल ली थी । इसके चलते मकान का काम प्रारंभ कर दिया गया । बड़े बेटे के मकान से लगकर छोटे बेटे के मकान का काम चल रहा था । रमाबाई पूरी तल्लीनता और उत्साह के साथ उसमें हाथ बंटा रही थी । अपनी पूरी की पूरी तनख्वाह वह मकान में लगा रही थी कर्जा बन रहा था उसे भी चुकता कर देने का वायदा कर रही थी ।  मकान के पीछे का कमरा रमाबाई ने नहीं तोड़ने दिया था ।
‘‘इसमें कुल देवता की पूजा होती है....इसलिये इसे तोड़े बिना सुधार लो’’
बेटे ने माॅ की बात मान ली ।
बड़े बेटे के साथ भी उसके संबंध बेहतर होते जा रहे थे । वह स्कूल से लौटने के बाद नाती को अपनी छाती से चिपकाये घूमती रहती थी । छोटे बेटे की दुकानदारी भी जम गई थी पर फिर भी रमाबाई घर की जरूरतों की पूर्ति अपनी तनख्वाह से ही करती । वह बड़े बेटे के परिवार की जरूरतों को भी पूरा करती । उधारी चुकाने के चलते उसके पास ज्यादा कुछ बचता नहीं था ।
‘‘सर देखो मैने नाती के लिये सोने की ‘हाय’ बनबाई है....एक अंगूठी मेरे पास रखी थी न अब मैं तो अंगूठी पहनती नहीं हूॅं सोचा नाती के लिये हाय ही बनवा दूॅ’’ । उसने उत्साह और आतुरता के साथ मेरे सामने डिब्बी में से हाय निकाल कर रख दी थी ।
‘‘अरे ये तो बहुत वजनदार है......इतना सोना कोई बच्चे को पहनाता है क्या’’
‘‘क्या करूं सर जी....अंगूठी वजनदार थी न तो सुनार बोला कि सोना वापिस ले लो या उसके पैसे ले लो...मुझे लगा कि पैसे तो अभी खर्च हो जायेगें....और बचा सोना ले भी लिया तो कहीं भी रखकर गुम हो गया तो बेकार ही चला जायेगा न...इसलिये मैंने हाय को ही वजनदार बनवा लिया...’’ । उसने भोलेपन से जबाब दिया । मैं कुछ नहीं बोला । मैं उसके पारिवारिक मामलों में कुछ बोलता भी नहीं था । पर मैं जानता था कि रमाबाई का यह कदम आत्मघाती कदम है । उसकी छोटी बहु इसे बर्दाश्त नहीं करेगी । शायद हुआ भी यही था । रमाबाई ने खुलकर तो कुछ नहीं बताया पर इतना जरूर बताया कि छोटी बहु ने नाती को हाय देने ही नही दी और गुस्से में उसे कचरे में फेंक दी । रमाबाई की छोटी बहु से तनातनी प्रारंभ हो गई थी । छोटे बेटे ने भी डांटा । बड़े बेटे को जब सोने की हाय के बारे में पता चला तो उसकी भी भौंह तन गई । एक दिन जब वह स्कूल आई थी तब ही दोनों बेटों ने मिलकर उसके सामान की खानातलाशी ली और उसके सारे जेवर दोनों ने आपस में बांट लिये । शाम को जब वह लौटी तब तक उसका सारा सामान पीछे बने कुल देवता के कमरे में रखा जा चुका था । वह हतप्रभ सी खड़ी रह गई थी । उसकी आंखों के सामने दोनों बहुओं और बेटो ने उससे कोई बात नहीं की । उसके स्कूल से ही लौटते ही लपक कर उसकी छाती से चिपक जाने वाला नन्हा पोता अपनी माॅ की गोद से आल्हादित भावों से उसे देख रहा था । शायद वह रमाबाई की गोद में आने के लिये जोर लगा रहा था पर उसकी माॅ उसे कसकर पकड़े थी । उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उससे गल्ती कहां हो गई जिसके चलते उसके दोनों बेटे और बहु उसके दुश्मन बन गए । अपनी आंखों से बहते आंसूओं के बीच उसने अपने बेटे बहु के सामने हाथ जोड़ लिए थे ‘‘मुझसे कोई गल्ती हो गई क्या बेटा’’  । किसी ने काई जबाब नहीं दिया । उसने अपने हाथों से अपने चेहरे को ढंक लिया । वह सुबक पड़ी थी । उसके रोने की आवाज चारों और फैलती जा रही थी । उसके बेटो और बहुओं पर इसका का कोई असर नहीं हो रहा था । माॅ की गोद में बैठा नाती रोने लगा था वह गोदी से उतार दिये जाने का प्रयास कर रहा था पर उसकी माॅ उसे ऐसा नहीं करने दे रही थी । बड़ी बहु ने उसे खींच कर घसीटते हुए पीछे वाले कमरे के सामने लाकर छोड़ दिया था । रमाबाई की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे । वह बार बार विनती कर रही थी
‘‘मुझे क्षमा कर दो बेटा....मुझे नहीं मालूम की मुझसे क्या गल्ती हुई है पर फिर भी मैं हाथ जोड़ रही हूॅ......मुझें क्षमा कर दो......’’ । उसने कातर निगाहों से अपने छोटे बेटे की ओर देखा । उसने अपना मुंह घुमा लिया ।
‘‘चल चुप हो जा......तूने हमारी जिन्दगी बर्बाद कर रखी है’’ बड़े बेटे ने उसे डांटते हुए उसके गाल पर चांटा मार दिया । रमाबाई को इसका अंदेशा नहीं था । उसके मुंख से रोने की आवाज आना बंद हो गई थी । वह एक हाथ से अपने गाल को सहला रही थी । वह समझ गई थी कि अब कुछ भी मिन्नत करना बेकार है । वह तो केवल अपनी गल्ती समझ लेना चाह रही थी । जो कोई बताने तैयार नहीं था । उसने एक बार फिर अपने दोने बहुओं को देखा जो उसे हिकारत भरी नजरों से देख रहीं थीं फिर उसने अपने बेटों को देखा जो उसे गुस्से से देख रहे थे । उसने अपने नाती को देखा उसके चेहरे पर ममत्व के भाव थे । उसने अपनी निगाहों को झुका लिया । अब उसकी आंखों में आंसू नहीं थे । उनमें कुछ दृढ़ निश्चय के भाव दिखाई दे रहे थे । उसने कमरे का दरवाजा खोला जहां उसका सामान बिखरा पड़ा था । अंदर जाने के बाद उसने अपने कमरे को बंद कर लिया था । वह हताश और निराश अपने नये ठिकाने पर जाकर पड़ी रहीं थी । रमाबाई उस कमरे से फिर कभी बाहर नहीं निकली । किसी ने भी उसके बारे में जानने का कोई प्रयास भी नहीं किया ।  .                   
रमाबाई जब दो तीन दिन तक बगैर बताए स्कूल नहीं पहुंची तो प्राचार्य ने रमाबाई की खोजबीन की । उसके बेटों ने रमाबाई के बारे में कुछ भी जानकारी होने से मना कर दिया । चपरासी को रमाबाई का कमरा दिखा दिया था । चपरासी बहुत देर तक कमरे का दरवाजा खटखटाकर रमाबाई को आवाजें देता रहा पर जब अंदर से कोई जबाब नहीं मिला तो उसकी घबराहट बढ़ गई । आनन-फानन में रमाबाई के कमरे के दरवाजे को तोड़ा गया जहां रमाबाई का चेतनाशून्य शरीर दिखाई दिया था  । सभी को समझ में आ चुका था कि रमाबाई देह को त्याग चुकी हैं । डाक्टर को तो खैर औपचारिकता के लिए बुलाया गया था । उसने नब्ज हाथ में लेकर बता दिया था कि रमाबाई की मृत्यु हुए तो तीन-चार दिन हो चुके हैं । मुझे भी उसकी मौत की खबर लगी थी । मैं भी भागता हुआ सा वहां पहुंचा था । मैं एकटक रमाबाई के चेहरे को देख रहा था जिसमें उसके जीवन के संघर्ष की पूरी दास्तां दिखाई दे रही थी ‘‘सर जी....औरत का जीवन ऐसा ही होता है.....घुट-घुट कर कटता है सारा जीवन.......मेरी तरह ही...’’ ।
मैं थके कदमों से लौट आया था उसके अंतिम संस्कार में सहभागी हुए बिना ।
-०-
पता:
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)

-०-
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"मन का दीया" (कविता) - मधुकर वनमाली


"मन का दीया"
(कविता)
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

तेरे उर में तिमिर बसे जो
खाली मन का शिविर लगे जो
कांच के टुकड़ों सा बिखरा मन
पथ में तेरे जाके बिछे जो
नही जरा तुम राह को रोना
बस मेरी लौ तक आ जाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

जीवन में कैसी तृष्णा है
प्यास बढ़े पीने से देखो
हो न कभी जो पग ये डगमग
मजा नहीं जीने में देखो
स्वाति बूंद सा नीर नयन का
मैंने वह मोती पहचाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

मिलन की बेला में अलसाई
सोयी है या जाग रही तू
सुंदर वह सपनों की वीणा
मालकोश के राग चढ़ी तू
आज नया सा गीत तुम्हें दूं
सुन कर हौले से मुस्काना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।
-०-
पता:
मधुकर वनमाली
मुजफ्फरपुर (बिहार)

-०-
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Wednesday, 28 October 2020

नफरतों से (कविता) - संजीव कुमार ठाकुर


नफरतों से
(कविता)
नफरतों से हमारी रगो में उबाल क्यों नहीं,
बढ़ती हरकतों पर हमारे बीच सवाल क्यों नहीं।।

इन कौमी हमले पर जरा मलाल क्यों नहीं,
शर्मनाक हिंसा पर दुनिया में बवाल क्यों  नहीं।।

नफरतों के बीज से आतंक ही होगा पैदा,
तुम अपने आप से पूछते सवाल क्यों नहीं।

जिस माटी का खाया नमक, हक़ अदा करो,
नमक हराम क्यों नमक हलाल क्यों नहीं।।

पेरिस के हमलों में  लहुं में उबाल क्यों नहीं
दिलों में नफरत पर दुनिया मे सवाल क्यों नहीं।।

मुह में राम बगल में छुरी ऐसे में सवाल क्यों नहीं।
हवाओ में नफरत घोलनें पर बवाल क्यों नहीं।

ये इंसानियत का क़त्ल है जेहन में सवाल क्यों नहीं
अगली नस्ल क्या सीखेगी तुम्हे मलाल क्यों नहीं।।
-०-
पता:
संजीव कुमार ठाकुर
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-
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निर्जन अपनी रातों को (कविता) - डॉ. राजीव पाण्डेय


निर्जन अपनी रातों को
(गीत)
जब खंगाला हमने अपने,       
         अनुबंधों के खातों को।
पृष्ठ पृष्ठ पर पाया केवल,
      घातों अरु प्रतिघातों को।

प्रथम पंक्ति में सदा खड़ा था,
          जीवन की हर मुश्किल में।
फिर भी फ़ांस नही निकली थी,
            फंसी हुई थी जो दिल में।
मेरा झुकना रास न आया,
       फिर भी पाया लातों को।

जहाँ जहाँ उनके कदम पड़े थे         
             खूब बिछाया फूलों को।
रिश्तों की खातिर तो हमने,
             छोड़ा सभी उसूलों को।
मात्र खिलौना ही समझा था,
           मेरे भी जज्बातों को।

पास फटकने नहीं दिया था,
             जीवन में अवरोधों को।
धारण कण्ठ किया था हमने,
          इस जग के प्रतिशोधों को।
नहीं धरातल दे पाये वो,
         मेरी कोमल बातों को।

जला दिया था सिय के कारण
         प्रतिबन्धों की लंका को।
भले पूँछ में आग लगी थी,
           निर्मूल किया शंका को।
अवध सो गई उनकी चिंता,
         निर्जन अपनी रातों को।
-०-
पता:
डॉ. राजीव पाण्डेय
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-
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कोरोना से मुक्ति (कविता) - डॉ. मलकप्पा अलियास महेश



कोरोना से मुक्ति
(कविता)
कार्तिक मास की
आमावस में लक्ष्मी भ्रमण
पर निकली कोरोना काल में |

कोरोना से फैला
तमस को मिटा प्रज्वलित
ज्योती जगाकर नयी स्फूर्ति
भर नये प्रादुर्भाव लेगी माँ |

धनथेरेस  पर खरीददारी
कर घी का दीया जलाकर
प्रत्येक कोने को प्रकाशित
करते कोरोना को मुक्ति देना है |

श्रीगणेश, लक्ष्मी पूजा
कर शांति व समृद्धि
पाना है कोरोना भगाना है |

राम, कृष्ण के भक्तों
ने तो रावण, नरकासुर
वध के प्रतीक भी खुशियों
का पर्व मनायेंगे |

हम प्रार्थना करें प्रभु से
कोरोना को संहार करने
हेतु अवतरण लेलो फिर
एक बार |
-०-
पता:
डॉ. मलकप्पा अलियास महेश
बेंगलूर (कर्नाटक)

-०-
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Tuesday, 27 October 2020

बाजारवाद (कविता) - अ कीर्तिवर्धन

बाजारवाद
(कविता)
मैंने कहा
भारतीय संस्कृति मे
बेटी के घर का खाना
उचित नहीं माना जाता,
हमारी परम्परा
बहन ,बेटी को देने की है
उनसे कुछ भी लेने की नहीं|

लोगों ऩे मुझे पढ़ा,सुना और
अतीत की दिवार पर चस्पा कर दिया,
मुझे भारी जवानी मे
बूढ़ा करार दे दिया गया|
बाजारवाद के इस दौर मे
सभ्यता और संस्कृति के
शाश्वत नियमों का उल्लंघन,
अंतहीन,प्रयोजन रहित
बहस करना
वर्तमान बता दिया|
और
एक नई बहस को जन्म दिया
कि नारी
मात्र वस्तु है,भोग्य है
तथा
उसे विज्ञापन बना दिया,
घर,दफ्तर से
दिवार पर लगे पोस्टर तक|
और नारी खुश हो गई
पैसों कि चमक मे|
शायद
इन आधुनिक बाजारवादी लोगों के लिए
कल बहन और बेटी भी
वस्तु / विज्ञापन
या भोग्य बन जायेंगी
यही इनका भविष्य होगा|
और हम
काल के गर्त मे समाकर
प्राचीन असभ्य युग मे
वापस आ जायेंगे |

सच ही तो है
इतिहास स्वयं को दोहराता है |
स्रष्टि के विकास क्रम मे
मनुष्य नंगा रहता था,
आज हम पुनः
बाजारवाद की दौड़ मे
सभ्यता को छोड़कर
नग्नता की और बढ़ रहे हैं,
मन से भी और तन से भी |
प्राचीन कबीलाई संस्कृति को
पुनः अपना रहे हैं,
जातिवाद,क्षेत्रवाद व धर्मवाद के
नए कबीले
तैयार किये जा रहे हैं|

असभ्य मानव
अज्ञानवश पशुओं को खाता था
आज बाजारवाद मे
प्रायोजित तरीकों से
पशु-पक्षियों को
खादय बताया जा रहा है,
जिसके कारण
अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गयी
कुछ होने के कगार पर हैं,
मगर हम सभ्य हैं,
बाज़ार की भाषा मे
विकास कर रहे हैं,
जंगलों को काटकर
मकान तथा
अस्त्र शस्त्र निर्माण कर रहे हैं|
अब हैजे या प्लेग जैसी
बीमारी की जरुरत नहीं,
सिर्फ एक बम ही काफी है
लाखों लोग नींद मे सो जायेंगे,
उनके संसाधनों पर
हम कब्ज़ा जमायेंगे|

यही तो होता था,
कबीलों मे भी
जिसने जीता
स्त्री,पुरुष,धन संपत्ति
सब उसकी
और आज भी यही होता है
जंगल के राजा
शेर के व्यवहार मे
बंदरों के संसार मे,
और
इन आधुनिकों के
उन्मुक्त विचार मे,घर,व्यापार मे|

हम
सुनहरे कल की और बढ़ रहे हैं,
वह सुनहरा कल
जिसका आधार
बीता हुआ कल है,
जिसका वर्तमान
लंगड़ा व अँधा है,
जिसका भविष्य
अंधकारमय है,
और
जो स्थिर होना चाहता है
बाजारवाद के
खोखले कन्धों पर |
तमसों माँ ज्योतिर्गमय |
-०-
पता: 
अ कीर्तिवर्धन



***
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याद का दीपक (कविता) - सपना परिहार

 

याद का दीपक
(कविता)
याद का दीपक जलता है
कोई चुपके-चुपके पिघलता है
रहता है अक्सर तन्हाई में वो
पर मुँह से उफ़्फ़ तक न कहता है।
उम्मीद का दिया जलाया है उसने
मन मे ढेर सारी आस लिए
न सोता है वो इस इंतजार में
वो आएगा जरूर ये दिल कहता है।
सुबह सूनी है,शाम अधूरी लगती है
शायद उसकी कोई मजबूरी लगती है
अंतिम साँस तक ये दिया जलेगा
तुमसे मेरा मन ये कहता है।
उसके बिना जीवन मे अंधियारा है
उसके होने से दीवाली का उजियारा है
काली अमावस भी पूनम हो जाती है
जो वो मेरे आस-पास रहता है।
रंगोली,वन्दनवार, रोशनी ,दीपक
तुम बिन सब अधूरे से लगते है
साथ तुम हो तो श्रृंगार पूरे लगते है
देहरी पर आज भी आस का दिया जलता है
तुम जल्दी आओगे मेरा मन ये कहता है।
-०-
पता:
सपना परिहार 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

-०-
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यूं ना छोड़ (कविता) - निधि शर्मा

  

 यूं ना छोड़
(कविता)
तुझसे विश्वास पाकर
ही मैने मंजिल की ओर
कदम बढाया था,
और अब राह के
कांटे देखकर,
यूं ना छोड़
मुझे तू बीच राह में।

अभी तो चलना है,
तेरे साथ ही मुझे
आखिरी कदम रखकर
गंतव्य को पाना है,
बरकरार रख, उस उत्साह
और हौसले को जिसने
ये मार्ग दिखाया था,
मेरे आत्मविश्वास!
यूं ना छोड़
मुझे तू बीच राह में।
-०-
पता:
निधि शर्मा
जयपुर (राजस्थान)


-०-


***
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Monday, 26 October 2020

सृजन महोत्सव पटल का आरंभ दिन 26 अक्तूबर

 

सादर सस्नेह नमस्कार,
           आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आज 26 अक्तूबर 2020 के दिन सृजन महोत्सव पटल को एक वर्ष पूरा होने जा रहा है. पूरे वर्ष में साहित्य सृजन महोत्सव पर आपका लेखन प्रकाशित करते हुए साहित्यिक सृजन का आनंद उठाते हुए भारतवर्ष सहित विदेशों तक पहुँचाने का कार्य सृजन महोत्सव पटल ने किया है. इस पटल पर देश सहित विदेशी रचनाकारों का प्यार बहुत मिला और मिल रहा है. इससे हम अभिभूत है. आपका स्नेह और साहित्य सृजन के प्रचार-प्रसार में योगदान मिलता रहेगा, यह विश्वास है.

           आजतक सृजन महोत्सव लगभग ३२५ साहित्यकारों के परिचय सहित १२०० से अधिक साहित्यिक रचनाएँ गद्य एवं पद्य विधा कि प्रकाशित करके बहुत ख़ुशी हो रही है. हम सभी सृजन शिल्पियों का हार्दिक अभिनंदन करते है. साथ ही उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते है. भविष्य में भी आपका स्नेह औरप्रेम यूं ही मिलाता रहें.

             आज तक इस पटल को लगभग ५३५०० लोगों ने भेट कर आशीष प्रदान किया है. हम सभी पाठक वर्ग का भी अभिनंदन करते हैं.
          

सृजन महोत्सव पटल की वर्षगाँठ पर इस कार्य को बढ़ावा देने हेतु आपसे निवेदन है कि सृजन महोत्सव पटल पर समय-समय पर प्रकाशित हो रही सृजन महोत्सव पटल की प्रस्तुति, आपकी रचनाओं की प्रस्तुति, सम्मानित प्रमाणपत्र आदि पर अपने अमूल्य अभिमत एवं सुझाव प्रदान कर हमारा हौसला बढाए. साथ ही प्रतिदिन प्रकाशित हो रही रचनाओं के लिंक अपने मित्र, साहित्यकार, हिंदी प्रेमी एवं पठन में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति तक पहुँचाने का कष्ट करें.

 
         आप सभी जानते है कि सृजन महोत्सव ब्लॉग की नींव रखने के बाद 'सृजन महोत्सव पत्रिका' का प्रवेशांक भी प्रकाशित हो चूका है. उसकी ई कापी सभी तक व्हाट्सअप, फेसबुक आदि के माध्यम से पहुंचाई है. इस पत्रिका का द्वितीय अंक नवंबर-दिसंबर 2020 है. इस हेतु पूर्व पत्रिका पर अभिमत सुझाव एवं अपनी अप्रकाशित स्तरीय रचनाएँ 25 अक्तूबर 2020 तक भेजकर सहयोग प्रदान करें.!!!

ई-मेल पता - editor.srijanmahotsav@gmail.com

srijanmahotsav@gmail.com


         सृजन महोत्सव ब्लॉग आप सभी का मंच है. इसकी वर्षगाँठ पर आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएँ एवं बधाइयाँ!!!

भवदीय,
संपादक द्वय


राजकुमार जैन 'राजन' (98281219919)

  

मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' (9730491952)
***

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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ